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प्रथम शतक : उद्देशक-३]
[६९ यह यथार्थ है या नहीं?' इस प्रकार का सन्देह करना शंका है। एकदेश से या सर्वदेश से अन्यदर्शन को ग्रहण करने की इच्छा करना कांक्षा है। तप, जप, ब्रह्मचर्य आदि पालन के फल के विषय में संशय करना विचिकित्सा है। बुद्धि में द्वैधीभाव (बुद्धिभेद) उत्पन्न होना भेदसमापनता है, अथवा अनध्यवसाय (अनिश्चितता) को भी भेदसमापन्नता कहते हैं, या पहले शंका या कांक्षा उत्पन्न होने से बुद्धि में भ्रान्ति (विभ्रम) पैदा हो जाना भी भेदसमापन्नता है। जो वस्तु जिनेन्द्र भगवान् ने जैसी प्रतिपादित की है, उसे उसी रूप में निश्चय न करके विपरीत बुद्धि रखना या विपरीत रूप से समझना कलुष-समापन्नता है।
कांक्षामोहनीय कर्म को हटाने का प्रबल कारण-कांक्षामोहनीय कर्म के कृत, चय आदि तथा वेदन के कारणों की स्पष्टता होने के पश्चात् इसी सन्दर्भ में अगले सूत्र में श्री गौतमस्वामी उस कर्म को हटाने का कारण पूछते हैं। छद्मस्थतावश जब कभी किसी तत्त्व या जिनप्ररूपित तथ्य के विषय में शंका आदि उपस्थित हो, तब इसी सूत्र–'तमेव सच्चंणीसंकं जंजिणेहिं पवेइयं' को हृदयंगम कर ले तो व्यक्ति कांक्षामोहनीय कर्म से बच सकता है और जिनाज्ञाराधक हो सकता है।
जिन-'जिन' किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है, वह एक पदवी है, गुणवाचक शब्द है। जिन्होंने प्रकृष्ट साधना के द्वारा अनादिकालीन राग-द्वेष, अज्ञान, कषाय आदि समस्त आत्मिक विकारों या मिथ्यावचन के कारणों पर विजय प्राप्त कर ली हो, वे महापुरुष 'जिन' कहलाते हैं, भले ही वे किसी भी देश, वेष, जाति, नाम आदि से सम्बन्धित हों। ऐसे वीतराग सर्वज्ञपुरुषों के वचनों में किसी को सन्देह करने का अवकाश नहीं है। अस्तित्व-नास्तित्व-परिणमन चर्चा
७.[१] से नूणं भंते! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमति ? हंता, गोयमा! जाव परिणमति।
.[७-१ प्र.] भगवन्! क्या अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है तथा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है ?
[७-१ उ.] हाँ, गौतम! अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है।
[२]जंतं भंते! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमति, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमति तं किं पयोगसा वीससा?
गोयमा! पयोगसा वि तं, वीससा वि तं।
[७-२ प्र.] भगवन्! वह जो अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, सो क्या वह प्रयोग (जीव के व्यापार) से परिणत होता है अथवा स्वभाव से (विश्रसा)?
[७-२ उ.] गौतम! वह प्रयोग से भी परिणत होता है और स्वभाव से भी परिणत होता है।
भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ५२ से ५४ तक