Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम शतक : उद्देशक - ३]
[ ७९
[१५-१ प्र.] भगवन् ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ?
[१५ - १ उ.] हाँ, गौतम ! वे भी वेदन करते हैं ।
[२] कहं णं भंते! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेंति ?
गोयमा! तेहिं तेहि नाणंतरेहिं दंसणंतरेहिं चरित्तंतरेहिं लिंगंतरेहिं पवयणंतरेहिं पावयणंतरेहिं कप्पंतरेहिं मग्गंतरेहिं मतंतरेहिं भंगंतरेहिं नयंतरेहिं नियमंतरेहिं पमाणंतरेहिं संकिया कंखिया वितिकिछिता भेदसमावन्ना, कलुससमावन्ना, एवं खलु समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेंति ।
[१५-२ प्र.] भगवन्! श्रमण निर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन किस प्रकार करते हैं ?
[१५-२ उ.] गौतम ! उन-उन कारणों से ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रवचनिकान्तर कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तरों के द्वारा शंकित, कांक्षित, विचिकित्सत, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ।
है ?
[ ३ ] से नूणं भंते! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ?
हंता, गोयमा ! तमेव सच्चं नीसंकं जाव पुरिसक्कारपरक्कमे इ वा ।
सेवं भंते! सेवं भंते! ० ।
॥ तइओ उद्देसओ सम्मत्तो १-३ ॥
[१५-३ प्र.] भगवन् ! क्या वही सत्य और नि:शंक है, जो जिन भगवन्तों ने प्ररूपित किया
यावत्
[१५-३ उ.] हाँ, गौतम ! वही सत्य है, नि:शंक है, जो जिन भगवन्तों द्वारा प्ररूपित है, पुरुषकार - पराक्रम से निर्जरा होती है; (तक सारे आलापक समझ लेने चाहिए।)
गौतम - हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! भगवन्! यही सत्य है!
विवेचन - चौबीस दण्डकों तथा श्रमण निर्ग्रन्थों में कांक्षामोहनीय कर्मवेदन सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रस्तुत दो सूत्र में से प्रथम सूत्र में चौबीस दण्डक के जीवों के ६ अवान्तर प्रश्नोत्तरों द्वारा तथा श्रमण निर्ग्रन्थों के कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गए हैं।
पृथ्वीकाय कर्मवेदन कैसे करते हैं ? – जिन्हें मनोलब्धि प्राप्त नहीं, जो भले-बुरे की पहिचान नहीं कर पाते वे पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन कैसे करते हैं ? इस आशय से श्री गौतमस्वामी द्वारा पूछा गया है।
तर्क आदि का स्वरूप - 'यह इस प्रकार होगा', इस प्रकार के विचार-विमर्श या ऊहापोह को तर्क कहते हैं। संज्ञा का अर्थ है - अर्थावग्रहरूप ज्ञान । प्रज्ञा का अर्थ है – नई-नई स्फुरणा वाला विशिष्ट ज्ञान या बुद्धि । स्मरणादि रूप मतिज्ञान के भेद को मन कहते हैं। अपने अभिप्राय को शब्दों द्वारा