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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में यों कहा जा सकता है जो अंगुली अंगुष्ठादिरूप नहीं है, वह अंगुष्ठादि नहीं होती। इसका यह अर्थ नहीं है कि अंगूठे की अंगूठे के रूप में नास्ति है। जो है, वही है, अन्यरूप नहीं है। नास्तित्व नास्तित्वरूप में परिणत होता है, इसके उदाहरण भी वे ही समझने चाहिए, क्योंकि स्वरूप से अस्तित्व ही परस्वरूप से नास्तित्व कहलाता है। ' इस सूत्र की दूसरी व्याख्या इस प्रकार भी है-नास्तित्व का अर्थ- अत्यन्त अभावरूप है। अत्यन्ताभावरूप नास्तित्व के उदाहरण-गधे के सींग या आकाशपुष्प आदि हैं। अतः जो अत्यन्ताभावरूप नास्तित्व है, वह (गदर्भ शृंगादि) अत्यन्ताभावरूप नास्तित्व में ही रहता है, क्योंकि जो वस्तु सर्वथा असत् होती है, उसका कदापि अस्तित्व (सत्रूपता) हो नहीं सकता। कहा भी है-'असत् सद्रूप नहीं होता और सत् असत्रूप नहीं होता।'
तीसरी व्याख्या इस प्रकार भी है-धर्मी के साथ धर्म का अभेद होता है, इसलिए अस्तित्व यानी सत् (जो सत् होता है, वह) सत्त्वरूप धर्म में होता है। जैसे–पट पटत्व में ही है। तथा नास्तित्व यानि असत् (जो असत् है, वह) असत्त्वरूप धर्म में ही होता है। जैसे अपट अपटत्व में ही है। .
पदार्थों के परिणमन के प्रकार-अस्तित्व का अस्तित्वरूप में परिणमन दो प्रकार से होता है प्रयोग से (जीव के व्यापार से) और स्वभाव से (विश्रसा)। प्रयोग से यथा-कम्भार की क्रिया से मिट्टी के पिंड का घटरूप में परिणमन । स्वभाव से यथा-सफेद बादल काले बादलों के रूप में किसी की क्रिया के बिना, स्वभावतः परिणत होते हैं। नास्तित्व का नास्तित्वरूप में परिणमन भी दो प्रकार से होता है-प्रयोग से और स्वभाव से। प्रयोग से यथा-घटादि की अपेक्षा से मिट्टी का पिण्ड नास्तित्व रूप है। स्वभाव से-यथा-पच्छाकाल में सफेद बालों में कृष्णत्व का नास्तित्व।
गमनीयरूप प्रश्न का आशय-गमनीय का अर्थ है-प्ररूपणा करने योग्य। गमनीयरूप प्रश्न का आशय यह है कि पहले जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है, वह केवल समझने के लिए है या प्ररूपणा करने योग्य भी है? ।
'एत्थं' और 'इहं' प्रश्नसम्बन्धी सूत्र का तात्पर्य-'एत्थं' और 'इहं' सम्बन्धी प्रश्नात्मकसूत्र की तीन व्याख्याएँ वृत्तिकार ने की हैं- (१) 'एत्थं' का अर्थ यहाँ अर्थात् - स्वशिष्य और 'इहं' का अर्थ-गृहस्थ या परपाषण्डी आदि। इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि वस्तु की प्ररूपणा आप अपने और पराये का भेद न रखकर स्व-परजनों के लिए समभाव से करते हैं ?, (२) अथवा 'एत्थं' का अर्थ हैस्वात्मा और 'इहं' का अर्थ है- परात्मा। इसका आशय है कि आपको अपने (स्वात्मा) में जैसे सुखप्रियता आदि धर्म गमनीय हैं, वैसे ही क्या परात्मा में भी गमनीय-अभीष्ट हैं ?, (३) अथवा 'एत्थं' और 'इहं' दोनों समानार्थक शब्द हैं। दोनों का अर्थ है-प्रत्यक्षगम्य, प्रत्यक्षाधिकरणता। इसका आशय यह है-जैसे आपको अपनी सेवा में रहे हुए ये श्रमणादि प्रत्यक्षगम्य हैं, वैसे ही क्या गृहस्थ आदि भी प्रत्यक्षगम्य हैं ?
इस प्रश्न का उत्तर भगवान् ने दिया, उसका आशय यह है कि चाहे स्वशिष्य हो या गृहस्थादि, प्ररूपणा सबके लिए समान होती है-होनी चाहिए।
(क)भगवतीसूत्र अभय. वृत्ति. पत्रांक ५५-५६ (ख)भगवतीसूत्र (टीका-अनुवाद पं. बेचरदासजी) खण्ड १, पृ. ११८ से १२० तक