Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम शतक : उद्देशक-१]
[३५ [७-२ प्र.] भगवन्! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं? इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न का फिर से उच्चारण करना चाहिए।
_[७-२ उ.] गौतम! जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं-संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक। उनमें से जो जीव असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध (मुक्त) हैं और सिद्ध भगवान् न तो आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं और न ही उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं। जो संसारसमापन्नक जीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं-संयत और असंयत। उनमें जो संयत है, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, जैसे कि-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत। उनमें जो अप्रमत्तसंयत हैं, वे न तो आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं और न उभयारम्भी हैं; किन्तु अनारम्भी हैं। जो प्रमत्तसंयत हैं, वे शुभ योग की अपेक्षा न आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं और न उभयारम्भी हैं; किन्तु अनारम्भी हैं। अशुभयोग की अपेक्षा वे आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। जो असंयत हैं, वे अविरति की अपेक्षा आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। इस कारण (हेतु से) हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि कितने ही जीव आत्मारम्भी हैं, यावत् अनारम्भी भी हैं। चौबीस दंडक में आरंभ प्ररूपणा
८.[१] नेरइयाणं भंते ! किं आयारंभा ? परारंभा ? तदुभयारंभा ? अणारंभा ? गोयमा! नेरइया आयारंभा वि जाव नो अणारंभा। सेकेणटेणं? गोयमा! अविरतिं पडुच्च से तेणटेणं जाव नो अणारंभा। [८-१ प्र.] भगवन्! नैरयिक जीव क्या आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, उभयारम्भी हैं, या अनारम्भी
[८-१ उ.] गौतम! नैरयिक जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं, और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं।
[प्र.] भगवन्! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं ?
[उ.] हे गौतम! अविरति की अपेक्षा से, अविरति होने के कारण (ऐसा कहा जाता है कि) नैरयिक जीव आत्मारम्भी, परारम्भी और उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं।
[२-२०] एवं जाव असुरकुमारा वि, जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया ।
[८-२ से २०] इसी प्रकार असुरकुमार देवों के विषय में भी जान लेना चाहिए, यावत् तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय तक का भी (आलापक) इसी प्रकार कहना चाहिए।
[२१] मणुस्सा जहा जीवा। नवरं सिद्धविरहिता भाणियव्वा । [२२-२४] वाणमंतरा जाव वेमाणिया जधा नेरतिया।
[८-२१ से २४] मनुष्यों में भी सामान्य जीवों की तरह जान लेना। विशेष यह है कि सिद्धों का कथन छोड़कर । वाणव्यन्तर देवों से वैमानिक देवों तक नैरयिकों की तरह कहना चाहिए।