Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम शतक : उद्देशक - १]
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[१३-१६] इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय तक के जीवों के विषय में समझ लेना चाहिए । अन्तर केवल इतना है कि जिसकी जितनी स्थिति हो उसकी उतनी स्थिति कह देनी चाहिए तथा इन सबका उच्छ्वास भी विमात्रा से - विविध प्रकार से – जानना चाहिए; (अर्थात् — स्थिति के अनुसार वह नियत नहीं है ।)
विवेचन - पंच स्थावर जीवों की स्थिति आदि के विषय में प्रश्नोत्तर - छठे सूत्र के अन्तर्गत १२ वें दण्डक से सोलहवें दण्डक तक के पृथ्वीकायादि पांच स्थावर जीवों की स्थिति आदि का वर्णन किया गया है ।
पृथ्वीकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति - खरपृथ्वी की अपेक्षा से २२ हजार वर्ष की कही गई है। क्योंकि सिद्धान्तानुसार स्निग्ध पृथ्वी की १४ हजार वर्ष की, मनःशिला पृथ्वी की १६ हजार वर्ष की, शर्करा पृथ्वी की १८ हजार वर्ष की और खर पृथ्वी की २२ हजार वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति मानी गई है। विमात्रा- आहार, विमात्रा - श्वासोच्छ्वास – पृथ्वीकायिक जीवों का रहन-सहन विचित्र होने से उनके आहार की कोई मात्रा- - आहार की एकरूपता - नहीं है। इस कारण उनमें श्वास की मात्रा नहीं है कि कब कितना लेते हैं । इनका श्वासोच्छ्वास विषमरूप है - विमात्र है।
. व्याघात - लोक के अन्त में, जहाँ लोक- अलोक की सीमा मिलती है, वहीं व्याघात होना सम्भव है। क्योंकि अलोक में आहार योग्य पुद्गल नहीं होते ।
आहार स्पर्शेन्द्रिय से कैसे - पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीवों के एकमात्र स्पर्शेन्द्रिय ही होती है, इसलिये ये स्पर्शेन्द्रिय द्वारा आहार ग्रहण करके उसका आस्वादन करते हैं ।
शेष स्थावरों की उत्कृष्ट स्थिति – पृथ्वीकाय के अतिरिक्त शेष स्थावरों की उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः अप्काय की ७ हजार बर्ष की, तेजस्काय की ३ दिन की, वायुकाय की ३ हजार वर्ष की और वनस्पतिकाय की दस हजार वर्ष की है ।
द्वीन्द्रियादि त्रस - चर्चा
[ १७- १ ] बेइन्दियाणं ठिई भाणियव्वा । ऊसासो वेमायाए ।
[१७-१] द्वीन्द्रिय जीवों की स्थिति कह लेनी चाहिए। उनका श्वासोच्छ्वास विमात्रा से (अनियत) कहना चाहिए।
[ १७-२ ] बेइन्दियाणं आहारे पुच्छा । अणाभोगनिव्वत्तिओ तहेव । तत्थ णं जे से आभोगनिव्वत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए आहारट्ठे समुप्पज्जइ । सेसं तहेव जाव अनंतभागं आसायंति ।
[१७-२] (तत्पश्चात् ) द्वीन्द्रिय जीवों के आहार के विषय में (यों) पृच्छा करनी चाहिए - (प्र.) भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है ? (उ.) अनाभोग - निर्वर्त्तित आहार पहले के ही समान ( निरन्तर ) समझना चाहिए । जो आभोग - निर्वर्त्तित आहार है, उसकी अभिलाषा भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २९
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