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आदिपुराणम् रूषिताः कञ्जकिंजलकैराभान्स्येते मधुव्रताः । सुवर्णकपिगैरङ्गः कामाग्नेरिव मुर्मुराः ॥२३॥ स्थलेषु स्थलपद्मिन्यो विकसन्त्यश्चकासति । शरच्छुियो जिगीषन्त्या दृष्यशाला इवोस्थिताः ॥२४॥ स्थलाब्जशकिनी हंसी सरस्यब्जरजस्तते । संहृत्य पक्षविक्षेपं विशन्तीयं निमज्जति ॥२५।। हंसोऽयं निजशावाय चञ्च्चोद्धृत्य लसद्विसम् । पीथबुद्ध्या ददात्यस्मै शशाङ्ककरकोमलम् ॥२६॥ 'कृतयत्नाः प्लवन्तऽमी राजहंसाः सरोजले । सरोजिनीरजःकीणे धूतपक्षाः शनैः शनैः ॥२७॥ चक्रवाकी सरम्तीरे तरङ्गः स्थगिताममूम् । अपश्यन् करुणं रौति चक्राह्वः साश्रुलोचनः ॥२८॥ अभ्येति वरटाशङ्की धार्तराष्ट्रः कृतस्वनम् । सरस्तरङ्गशुभ्रागी कोककान्तामनिच्छतीम् ॥२६॥ अनुगङगातटं भाति साप्तपर्णमिदं वनम् । सुमनोरेणुभिर्कोम्नि वितानश्रियमादधत् ॥३०॥ मन्दाकिनीतरङगोत्थपवनोऽध्वश्रमं हरन् । शनैः स्पृशति 'नोऽङगामि 'रोधोवनविधूननः ॥३१॥ आतिथ्यमिव नस्तन्वन् हृतगङ्गाम्बुशीकरः । अभ्येति" पवमानोऽयं वनवीथीर्विधूनयन् ॥३२॥
अगोष्पदमिदं देव देवैरध्युषितं वनम् । लतालयैर्विभात्यन्तः "कुसुमप्रस्तराञ्चितैः ॥३३॥ करनेके लिए उत्कण्ठित हो रहे हैं ऐसे ये भ्रमर कामदेवके बाणोंकी मूठके समान आभावाले अपने पंखोंसे कमलिनियोंके समूहमें जहाँ-तहाँ विचरण कर रहे हैं, घूम रहे हैं ॥ २२ ॥ जिनके अंगोपांग कमलकी केशरसे रूषित होनेके कारण सुवर्णके समान पीले-पीले हो गये हैं ऐसे ये भ्रमर कामरूपी अग्निके स्फुलिङ्गोंके समान जान पड़ते हैं ॥ २३ ॥ जगह-जगह पृथिवीपर फूले हुए स्थल-कमलिनियोंके पेड़ ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो सबको जीतनेकी इच्छा करनेवाली शरद् ऋतुरूपी लक्ष्मीके खड़े हुए कपड़ेके तम्बू ही हों ॥ २४ ।। जो कमलोंकी परागसे व्याप्त हो रहा है ऐसे सरोवरमें कमलको स्थलकमल समझती हुई यह हंसी पंखोंके विक्षेपको रोककर अर्थात् पंख हिलाये बिना ही प्रवेश करती है और पानीमें डूब जाती है ॥ २५ ॥ यह हंस चन्द्रमाकी किरणोंके समान कोमल और देदीप्यमान मृणालको अपनी चोंचसे उठाकर
और क्षीरसहित मक्खनके समान कोई पदार्थ समझकर अपने बच्चेके लिए दे रहा है ।। २६ ॥ कमलिनीके परागसे भरे हुए तालाबके जलमें ये हंस धीरे-धीरे पंख हिलाते हुए बड़े प्रयत्नसे तैर रहे हैं ॥ २७ ।। तालाबके तीरपर तरंगोंसे तिरोहित हुई चकवीको नहीं देखता हुआ यह हंस आँखों में आँसू भरकर बड़ी करुणाके साथ रो रहा है ।। २८ ।। सम्भोगकी इच्छा करनेवाला यह शब्द करता हुआ हंस, तालाबकी तरंगोंसे जिसका शरीर सफेद हो गया है ऐसी चकवीके सम्मुख जा रहा है जब कि वह चकवी इस हंसकी इच्छा नहीं कर रही है ।।२९।। गंगा नदोके किनारे-किनारे यह सप्तपर्ण जातिके वृक्षोंका वन ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो अपने फूलोंकी परागसे आकाशमें चंदोवाकी शोभा ही धारण कर रहा हो ॥ ३० ॥ मार्गकी थकावटको दूर करता हुआ और किनारेके वनोंको हिलाता हुआ यह गंगाकी लहरोंसे उठा हुआ पवन हम लोगोंके शरीरको धीरे-धीरे स्पर्श कर रहा है ॥३१॥ वनकी पंक्तियोंको हिलाता हुआ यह वायु ग्रहण की हुई गंगाके जलकी बूंदोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो हम लोगोंका अतिथि-सत्कार करता हुआ ही आ रहा हो ॥३२॥ हे देव, जो गायोंके संचारसे रहित है अर्थात् अत्यन्त दुर्गम १ आच्छादिताः। २ कनकवत् पिङ्गलैः । ३ विस्फुल्लिङ्गाः । ४ पटकुटयः । 'दुष्यं वस्त्रे च तद्गृहे'। ५ सक्षीरनवनीतबुद्ध्या । ६ कृतयत्नं ल०, द०, इ०, अ०, प०, स०,। ७ स्तनिताम् आच्छादिताम् । ८ आलोक यन् । ९ हंसकान्तेति शडकावान् । 'वरटा हंसकान्ता स्यात् वरटा वरलापि च" इति वैजयन्ती। १० सितेतरचञ्चुचरणवान् हंसः । 'राजहंसास्तु ते चञ्चश्चरणैः लोहितैः सिताः । मलिनमल्लिकाक्षास्तैर्तिराष्ट्राः सितेतरैः' इत्यभिधानात् । ११ कृतस्वनः द०, ब०, ल० । कृतस्वनाम् अ० । १२ अस्माकम् । १३ तटवन । १४ अतिथित्वम् । १५ शीकरैः ल०, ५०, इ० । १६ अभिमुखमागच्छति । १७ प्रमाणरहितम् । प्रवेष्टुमशक्यं वा। १८ विभात्येतैः इ०, ल०,' द० । १९ शयन ।