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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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श्री सेठिया जैन अन्यमाला पुष्प नं० १०६
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
सातवाँ भाग (बोल ३१ से ५७ तक) ( बोल नं० ६६१ से १०१२ तक)
श्री हंसराज बच्छराज नाहटा सरदारशहर निवासी
द्वारा जैन विश्व भारती, लाडनूं
को सप्रेम भेट -
अगरचन्द भैरोंदान सेठिया
जैन पारमार्थिक संस्था बीकानेर (राजस्थान)
विक्रम संवत २००१ न्योछावर
दीपमालिका केवल शा) भी । द्वितीयावृत्ति •बीर संवत् २४७ ज्ञान खाते में लगेगा।
१००० । महसूल खर्च अलग एजूकेशनल प्रेस, बीकानेर ता. १८-१०-५२
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[२]
आभार प्रदर्शन श्रीमान् जैनाचार्य पूज्य श्री १००७ श्री गणेशीलालजी महाराज साहब ने महती कृपा फरमाकर, हमारी प्रार्थना से इस भाग के कतिपय बोल सुनने की कृपा की है। आपकी अमूल्य सूचनाओं से हमें विशेप ज्ञान लाभ हुआ है । अतएव हम पूज्य श्री का परम उपकार मानते हैं। श्रीमान् मुनि श्री १००७ श्री बडे चाँदमलजी महाराज साहब श्रीघासीलालजी महाराज साहव तथा अन्य मुनिवरों ने भी कई एक बोल सुनने की कृपा की है । बोलों के सम्बन्ध में आप श्रीमानों ने भी हमें अमूल्य सूचनाएं देकर अनुगृहीत किया है । अतएव आप श्रीमानों के प्रति भी यह समिति कृतज्ञता प्रकाश करती है। आप मुनिवरों की कृपा का यह फल है कि हम पुस्तक को विशेष उपयोगी एवं प्रामाणिक बना सके हैं।
निवेदक-पुस्तक प्रकाशन समिति (द्वितीयावृत्ति के सम्बन्ध में) शास्त्रमर्मज्ञ पंडित मुनि श्री पन्नालालजी म. सा. ने इस भाग का दुवारा सूक्ष्मनिरीक्षण करके संशोधन योग्य स्थलों के लिये उचित परामर्श दिया है । अतः हम आपके आभारी हैं।
वयोवृद्ध मुनि श्री सुजानमलजी म. सा. के सुशिष्य पं० मुनिश्री लक्ष्मीचन्दजी म. सा ने इसकी प्रथमावृति की छपी हुई पुस्तक का आदयोपान्त उपयोग पूर्वक अवलोकन करके कितनेक शंका स्थलों के लिये सूचना की थी। उनका यथास्थान संशोधन कर दिया गया है। अतः हम उक्त मुनि श्री के आभारी हैं।
इसके सिवाय जिन २ सज्जनों ने आवश्यक संशोधन कराये और पुस्तक को उपयोगी बनाने के लिये समय समय पर अपनी शुभ सम्मतियाँ प्रदान की हैं उन सब का हम आभार मानते हैं। __ इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ के प्रणयन में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में मुझे जिन जिन विद्वानों की सम्मतियों और ग्रन्थ कर्ताओं की पुस्तकों से लाभ हुआ है उनके प्रति मैं विनम्र भाव से कृतज्ञ हूँ। ऊन प्रेस बीकानेर
निवेदक-भैरोदान सेठिया
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[३]
दो शब्द श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह के सातवें भाग की द्वितीयावृत्ति पाठकों के सामने प्रस्तुत है। इसकी प्रथमावृत्ति संवत् २००० में प्रकाशित हुई थी। पाठकों को यह बहुत पसन्द आई । इसलिए थोड़े ही समय में इसकी सारी प्रतियां समाप्त हो गई। इस ग्रन्थ की उपयोगिता के कारण इसके प्रति जनता कि रुचि इतनी बढ़ी कि हमारे पास इसकी मांग वरावर आने लगी। जनता की मांग को देख कर हमारी भी यह इच्छा हुई कि इसकी द्वितीयावृत्ति शीघ्र ही छपाई जाय किन्तु प्रेस की असुविधा के कारण इसके प्रकाशन में विलम्ब हुआ है। फिर भी हमारा प्रयत्न चालू था। आज हम अपने प्रयत्न में सफल हुए हैं। अतः इसकी द्वितीयावृत्ति पाठकों के सामने रखते हुए हमें आनन्द होता है। __ प्रमाण के लिये उद्धृत ग्रन्थों की सूची प्रायः इसके भाग १ से ५
और भाग के अनुसार है। और बोलों के नीचे सूत्र और ग्रन्थ का नाम प्रमाण के लिये दिया हुआ भी है। बोल संग्रह पर विद्वानों की सम्मतियों प्राप्त हुई है। वे भी कागज की कमी के कारण इस मे नहीं दी जा सकी हैं।
'पुस्तक शुद्ध छपे इस बात का पूरा पूरा ध्यान रखा गया है फिर भी दृष्टिदोष से तथा :स कर्मचारियों की असावधानी से छपते समय कुल अंशुद्धियां रह गई हैं इसके लिए पुस्तक में शुद्धिपत्र लगा दिया गया है। अतः पहले उसके अनुसार पुस्तक सुधार कर फिर पढ़े। इनके सिवाय यदि कोई अशुद्धि आपके ध्यान में आवे तो हमें सूचित करने की कृपा करें ताकि आगामी आवृत्ति में सुधार कर दिया जाय ।
वर्तमान समय में कागज, छपाई और अन्य सारा सामान महंगा होने के कारण इस द्वितीयावृत्ति की कीमत बढ़ानी पड़ी है।
निवेदक:--
मन्त्री श्री अगरचन्द भैरोदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था
बीकानेर
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[ 8 ]
श्री सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर पुस्तक प्रकाशन समिति
अध्यक्ष - श्री दानवीर सेठ भैरोदानजी सेठिया । मंत्री श्री जेठमलजी सेठिया ।
उपमंत्री - श्री माणकचन्दजी सेठिया ।
--
लेखक मण्डल
श्री इन्द्रचन्द शास्त्री M. A. शास्त्राचार्य, न्यायतीर्थ, वेदान्तवारिधि । श्री रोशनलाल जैन B. A., LL.B., न्याय काव्य सिद्धान्ततीर्थ, विशारद ।
श्री श्यामलाल जैन M. A न्यायतीर्थ, विशारद ।
श्री घेवरचन्द्र बांठिया 'वीरपुत्र' न्याय व्याकरणतीर्थ, सिद्धान्तशास्त्री |
:
पुस्तक मिलने का पता ---
अगरचन्द भैरोदान सेठिया
जैन पारमार्थिक संस्था,
मोहल्ला मरोटीयां का
बीकानेर (राजस्थान )
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श्री जैन सिद्धान्त बोल-संग्रह सातवां भाग
গাষ্ট
मप्रय
मगत्य
वीणा
खीण धरण
पायान
हल्के
वर्ण आयत
हल्के हैं • करुयोत्पादक
धाय संसर्ग
करणोत्पादक धाया संसार
होले
होने
ज्ञान
योग
योगों उडाहरण
उदाहरण पूरबी
पृथ्वी करण
कारण মাল
श्रतज्ञान रवाधिक
रत्नाधिक প্লাটি
अशक्ति नाना एवंधून
एवंभूत विपत्र
विपय अताचानीयचदर्शन श्रुतज्ञानी अचक्षुदर्शन चन्मए
चकमाए अगुणाए
अगुणगाए अनागार
अनगार सपतण
मणतेण क्योंकी
क्योंकि मस्याचु
भइयत्रो अद्धमागहाए
अदमागही
१०५
१० ११२ ११६ १२३
१२४
१२५ १०६
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१२८ १२८
पत्रादि जोवों वितिज्छेयं
१३०
दुर्लभतो
गोतम सयध
पात्रादि
जीवों वित्तिच्छेयं दुर्लभता गौतम समय चाला
जया परिघेतव्या
१३७
१६३
१६६ १६
१६८
१७३ १७४
जाय परिषेतचा सन्न व्ययस्थित अमित्त सूसावात्रो विप दागाव
व्यवस्थित
अमित्त
मुसावात्रो
१७४
विष
१८०
दापत्र
एवं
५८० १६० १६२
भगवान्
१६६
दुरासयं पि
दि
भ गान् दुरासयं वित्तं दुरुद्धारणि संदरो सम्बन्धी विचारना दर्यात
२२६
२३३
दुरुद्वाणि
सुंदरो सम्बन्धों विचरना
वयंति भावार्थ अवगाहना काश्यप अरण्य
२३५
मावार्य
२५२
२५४
चप्रगाना काइपप प्रारण्य
२५६
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[५]
विषय सूची
घोल न०
पृष्ट बोल नं०
मुख पृष्ठ
१५६७१ बत्तीस विजय ४३ आभार प्रदर्शन २६७२ उत्तराध्ययन सूत्र के
पाँच अकाम मरदो शब्द
रणीय अ० की बत्तीस पुस्तक प्रकाशन समिति ४
गाथाएं विषय सूची, पता ५/७३ उत्तराध्ययन सूत्र के । अकाराद्यनुक्रमणिका ११ म्यारहवें बहुश्रुतपूजा मंगलाचरण
अध्ययन की बत्तीस ३१ वां बोला- २-१४
गाथाएं
७४ सूचगडॉग सूत्र द्वितीय ६६३ सिद्ध भगवान के
___ अध्ययन के द्वितीय इकतीस गुण
की बत्तीस गाथाएं ५६ ६६२ साधु की ३१ उपमाएं ४ ६६३ सूत्रफताङ्ग (सूयगडांग) ३३ वा चोल:--६१-६८
सूत्र चौथे अ० प्रथम १५ तेतीस आशातनाएं ६१ उ० की ३१ गाथाएं ६७६ अनन्तरागत सिद्धों के ३२ वां बोला-१५-६१ चौल ६६ ६ ब्रह्मचर्य (शील की) ३४ वां बोला-- ६८-७१ बत्तीस उपमाएं १५/
१७७ तीर्थङ्कर देव के चौतीस . ६६५ वत्तीस योग संग्रह १६ ६६६ बत्तीस सूत्र २१
अतिशय ६८ ६७ सूत्र के बत्तीस दोप
SEE जम्बूद्वीप में तीर्थङ्करो२३ /
त्पत्ति के ३४ क्षेत्र ६६८ वत्तीस अस्वाध्याय
७१ १६. वंदना के बत्तीस दोप ३८३५ वां वोल:-- ७१-८७ ६७० सामायिक के बत्तीस ७ पैतीस सत्य वचना
४३ / तिशय
५५
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बोल नं०
६० गृहस्थ धर्म के पैतीस
गुण
७४
३६ वां बोल:- ८७- १३३
(२) नमस्कार सूत्र में सिद्ध से पहले अरिहन्त को क्यों नमस्कार किया
गया ?
(३)
६८१ सूयगडांग सूत्र के नवें धर्माध्ययन की छत्तीस गाथाएं क्या है ? ६८२ आचार्य के छत्तीस गुण ६४ (६) मन:पर्ययदर्शन नहीं ६८३ प्रश्नोत्तर ३६:- ६८
८७
है फिर मन:पर्ययज्ञानी
(१)
नमस्कार सूत्र में सिद्ध और साधु के दो ही पद कह कर पाँच पद क्यों कहे १
·
(४)
नमस्कार उत्पन्न है या अनुत्पन्न | यदि उत्पन्न ? है तो उसके उत्पादक निमित्त क्या हैं ?
पृष्ठ बोल नं०
६५
६८
[६]
१००
नमस्कार का स्वामी नमकारक है या पूज्य है ?
१०१
(५) तीर्थकर दीक्षा लेते समय किसे नमस्कार करते
हैं ?
(६) क्या परमावधिज्ञानी
१०२
पृष्ठ
चरम शरीरी होते हैं १ १०३
(७) अनुत्तरविमान वासी देव शंका होने पर किसे पूछते हैं और कहाँ से ११०३
(८) मन:पर्ययज्ञान का विषय
अनन्तप्रदेशी स्कन्ध जानता और देखता है, यह कैसे कहा ? १०५
(१०) चक्षु की तरह श्रोत्र यदि इन्द्रियाँ भी दर्शन में कारण हैं फिर चक्षुदर्शन की तरह श्रोत्र आदि दर्शन क्यों नहीं कहे गये ? (११) सर्वविरतिरूप सामायिक वाले को पोरिसि आदि के प्रत्याखानों की क्या आवश्यकता है १ १०७
१०६
(१२) क्या साधु के सत्य
१०४
वचन में विवेक होना चाहिये १
१०७
(१३) साधु के लिये ग्लान साधु की सेवा करना आवश्यक है या उसकी
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[]
प्रम बोल नं0
प्रश्न पोल नं.
इच्छा पर निर्भर है १ १०८ अलग क्यों कहे गये हैं १११८ (१४) अनुत्तर विमान में उत्पन्न । (२२) तीर्थङ्करों ने पांच महा
जीव क्या नरक तिर्यञ्च व्रत और चार महाव्रत रूप के भव करता है? ११२
धमे अलग अलग क्यों (१५) अभव्य जीव अपर कहाँ
कहा १ ११६ तक उत्पन्न होते हैं ? ११३ (२३) मोहनीय कर्म वेदता हुश्रा (१६) विविध गुण विशिष्ट
जीव मोहनीय कमे श्रावक अन्तसमय पालो
वांधता है या वेदनीय चना प्रतिक्रमण कर
कर्म बांधता है? १२० संधारापूर्वक काल कर (२४) जाव हल्का भार मारा
कहाँ उत्पन्न होते हैं ? ११४/ किस प्रकार होता है ? १२० (१७) विविध गुण सम्पन्न
(२५) द्रव्य हिंसा में हिंसा का अनमार महात्मा इस
लक्षण नहीं घटता फिर भव की स्थिति पूरी कर
वह हिंसा क्यों कही कहाँ उत्पन्न होते हैं ? ११५
गई? ११ (१८) आठ कर्मों का क्षय (२६) क्या सभी मनुष्य एक करने वाले महात्मा यहाँ
सी क्रियाकले होते हैं ११२१ की स्थिति पूरी कर कहां (२७) क्या पृथ्वी के जीव
उत्पन्न होते हैं? ११७ अठारह पाप का सेवन (१६) व्रतधारी तिवञ्च अन्त
करते हैं? १२२ समय विधि पूर्वक काल (स) द्रव्य और भाव मन कर कहां उत्पन्न होता
का क्या स्वरूप है?
क्या द्रव्य और भाव मन (२०) औपशमिक और क्षायिक एक दूसरे के बिना भी सम्यक्त्व में क्या
होते हैं। १२२ अन्तर है? ११७/(२९) द्रव्य क्षेत्र काल भाव. (२१) सामायिक और छेदोप- इनमें कौन किससे
स्थापनीय चारित्र अलग ।
Tam
१२४
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[८]
प्रश्न बोल नं०
पृष्ठ बोल नं० (३०) देवता कौनसी आषा ८४ उत्तराध्ययन सूत्र के
बोलते हैं? १२५ दसवें दुमपत्रक १० । (३१) क्या ज्योतिष शास्त्र की की सैतीस गाथाएं १३३
तरह जैन शास्त्रों में भी । ३८ वां बोलः- १३४ पुष्य नक्षत्र की श्रेष्ठता ६८५ सूयगडांग सूत्र के . '
का वर्णन है१ १२६ ग्यारहवे मार्गाध्ययन की (३२) तेरह काठिये के बोलों
__ अड़तीस गाथाएं १३६ का वर्णन कहाँ है ? १२६ | ३६ वां बोल:- १४४ (३३) धनुष के जीवों की
६ समय क्षेत्र के उनतरह क्या पात्रादि के
चालीस कुल पर्वत १४४ जीवों को भी जीवरक्षा ४० वां बोला-- १४५ कारणक पुण्य का बंध ६८७ खरवादर पृथ्वीकाय के
होता है ? १२८ चालीस भेद १४५ (३४) क्या 'माहण' का अर्थ
दायक दोष से दूषित श्रावक भी होता है १ १२६
चालीस दाता भगवती श०८ उ०६ ४१ वां चोल:-- १४६ में तथारूप के आस- PEEE उदीरण विना उदय में यती अविरति को प्रासुक आने वाली इकताया अप्रासुक आहार
लीस प्रकृतियाँ १४६ देने से एकान्त पाप होना किस अपेक्षा से
४२ वां बोलः- १९ बतलाया है१ १३०
| ६६. आहारादि के बया
लीस दोप अपनी ओर से किसी
६६१ नामकर्म की वयालीस को भय न देना ही
प्रकृतियाँ क्या अभयदान का
|LE२ आश्रव के बयालीस
भेद ३७ वां बोल:-१३३-१३८ | E६३ पुण्यप्रकृतियाँ बयालीस १५०
३५
१३१ ।
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पृष्ठ
२०५
Gm Ko MN
३२
[ ] बोल नं०
पृष्ट बोल नं० ४३ वा वोल-१५१-२५२२४ विजय
१९८ RE४ प्रवचन संग्रह तयालीस १५१ / २५ दान १ धर्म
| २६ तप
२०२ २ नमस्कार महात्म्य १५३
अनासक्ति ३ निन्थ प्रवचन महिमा १५५ / २८ आत्म-दमन २०७ आत्मा
१५६ | २६ रसना (जीभ)का संयम २१२ ५ सम्यग्दर्शन
! ३० कठोरवचन २१४ संम्यग्ज्ञान
३१ कर्मों की सफलता २१६ ७ क्रिया रहित ज्ञान
कामभोगों की असारता २१८ ८ व्यवहार निश्चय
३३ अशरण
२२२ ६ मोक्षमार्ग
३४ जीवन की अस्थिरता २२५ १० अहिसा-दया
३५ वैराग्य
२२८ ११ सत्य
३६ प्रमाद १२ अदत्तादान (चोरी)
३७ राग द्वेष
२३३ विरत
३६ कपाय १३ ब्रह्मचर्य-शील
३६ तृष्णा १४ अपरिग्रह परिग्रह
४० शल्य का त्याग
|४१ आलोचना २४६ १५ रात्रि भोजन त्याग | ४२ आत्म-चिन्तन ૨૪s १६. भ्रमरवृत्ति १८५४३ क्षमापना
२५० १७ मृगचर्या
१८६ ४४ वां बोल- २५२ १८ सच्चा त्यागी
| E६५ स्थावर जीवों की अव. १६ वमन किये हुए को ग्रहण । न करना
१८६
गाहना के अल्प बहुत्व २० पूजा प्रशंसा का त्याग १६०
के चवालीस बोल २५२ २१ रति अरति १६३ / ४५ वां बोल:-- - २५४ २२ यतन
१६५/६६ उत्तराध्ययन सूत्र के २३ विनय
१६५ रचीसवे अ० की
२३१
२३६
२४४
१८
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[ १० ] पोल नं० पृष्ठ बोन नं0
पृष्ठ पैंतालीस गाथाएं २५४ ५ १ वां बोल २७१ ५४७ आगम पैतालीस २६० / १००५ आचारांग प्रथम
४६ वां बोल:- २६३ तस्कन्ध के इकावन ६६८ .गणितयोग्य काल परि
उद्देशे
२७१ माण के ४६ भेद २६३
५२ वो बोला- २७२ REE ब्राह्मीलिपि के मातृ- १००६ विनय के बावन भेद २७२
काक्षर छियालीस २६४ । १००७ साधु के बावन ४७ वां बोल:- २६५
२७२ . १००० आहार के सैंतालीस
५३ वां वोल:- २७२ दोष
२६५ | १०० मोहनीय कर्म के ४८ वां बोल:- २६५ पन नाम । २७६ १००१ तिर्यञ्च के अड़तालीस ५४ वां बोल:- २७७ . ... भेद
२६५ / १००६ चौपन उत्तम पुरुष २७७ १००२ ध्यान के अड़तालीस
५५ वां बोल:- २७७ भेद
१ १०१• दर्शन विनय के
पचपन भेद • २७६ १००३ श्रावक के प्रत्याख्यान ५६वां बोल:- २७७ के उनचास भंग
२६ २६७
१०११ छप्पन अन्तरद्वीप २७७ ५० वां वोल:- २७१ ५७ चा चोला- २८० १००४ प्रायश्चित्त के पचास
१०१२, संवर के ५७ भेद २० २७१ /
भेद
प्राप्तिस्थान श्री अगरचन्द भैरोदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था
नायब्रेरी भवन बीकानेर (राजस्थान)
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[११] श्रकारानुक्रमणिका
का
२२२
बोल नं. पृष्ठ / बोल नं०
पृष्ठ
EE४ (१४) अपरिग्रह (परि १७२ अकाममरणीय अ.
ग्रह का त्याग) गाथा ११-१८१ (उ० अ०५) की १८३ (३६) अभयदान का ___ बत्तीस गाथाएं ४६ अर्थ क्या अपनी ओर ६७७ अतिशय चौतीस तीर्थ
से किसी को भय न कर देव के ६८
देना ही है या अधिक१११३ ६६४ (१२) अदत्तादान
३ (१५) अभव्य जीव (चोरी) विरति
कर कहां तक उत्पन्न गाथा ५
१७६ होते हैं। ११३ ७६ अनन्तरागत सिद्धों के
133)शा अल्प बहुत्व के तेतीस
गाथा १०
६८ अस्वाध्याय बत्तीस १००७ अनाचीर्ण बावन
६६४ (१०) अहिसा-दया साधु के
२७२
गाथा १७ १६७ ६६४ (२७) अनासक्ति
गाथा १८ (१४) अनुत्तर विमान
६७ श्रागम पैतालीस में उत्पन्न जीव क्या १००५ आचारांग प्रथम नरक तिर्यश्च के भव
श्रुतस्कन्ध के इकावन करता है? ११२ उद्देशे
२०१ १८३ (७) अनुचर विमानवासी २ प्राचार्य के छत्तीस शंका होने पर किसे
गुण पूछते हैं और कहां से? १०३ / ६६४ (४२) श्रात्मचिन्तन १०११ अन्तरद्वीप छप्पन २७७। । गाथा ,
घोल
२०५३
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तीस
६१ ।
[१२] बोल नं.
पृष्ठ / बोल नं. ६४ (२८) आत्म-दमन
में आने वाली इकगाथा १६
२०७१ तालीस प्रकृतियां १४६ ४ (४) आत्मा गाथा ७-१५६ ६६४ (४१) आलोचना
| १८३ (२०) औपशमिक और गाथा ८
२४६ क्षायिक सम्यक्त्व में १७५ आशातनाएं तेतीस
क्या अन्तर है? ६२ आश्रव के बयालीस भेद
१४६
६६४ (३०) कठोर वचन १००० आहार के सैतालीस
| गाथा ! २१४ . २६५
| ६६४ (३१) कर्मों की सफ६. आहारादि के बयालीस
लता गाथा ५ २१६ दोष
१४६
६४ (३८) कषाय गाथा २३
२३६ १८०६ उत्तम पुरुप चौपन २७७ १८३ (३२) काठिया के तेरह ६७३ उत्तराध्ययन सूत्र के
बोलों का वर्णन ग्यारहवें अ० की
कहां है ? १२६ बत्तीस गाथाएं ५१ / ८४ (३२) कामभोगों की १८४ उत्तराध्ययन सूत्र के । भसारता गाथा १६-२१८
दसर्व अ० की मैतीस ELE कालपरिमाण के गाथाएं
छियालीस भेद २६३ ६६६ उत्तराव्ययन सूत्र के ८६ कुलपर्वत उनचालीस १४४
पच्चीसवें अध्ययन की ६८३ (२६) क्या सभी मनुष्य
पैंतालीस गाथाए २५४ एक सी क्रिया वाले ६७२ उत्तराध्ययन सूत्र के
होते हैं
१२१ पांचवें अ० की बतीस ६४ (७) क्रिया रहित गाथाए
४६ | ज्ञान गाथा ४ १६२ L८९ उदीरणा बिना उदय
४ (४३)क्षमापना गाथा -२५०
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बोल नं०
__ पृष्ठ | वोन नं. ४८३ (२०) क्षायिक और औपशमिक सम्यक्त्व में
६८२ छत्तीस गुण आचार्य के ६४ क्या अन्तर है १ ११७ | १०११ छप्पन अन्तर द्वीप २७७
पतास
१८७ खरवादर पृथ्वी काय | जम्बूद्वीप में तीर्थकरोके चालीस भेद १४५ त्पत्ति के ३४ क्षेत्र
६४ (३४) जीवन की १६८ गणितयोग्य कालपरि
अस्थिरता गाथा १०- २२५ माण के ४६ भेद २३३ / ९८३ (२४) जीव हल्का और ८० गृहस्थ धर्म के पैंतीस
भारी किस प्रकार ___ होता है?
१२० १८३ (१३) ग्लान साधु
की सेवा करना क्या ६३ (३५) तथारूप के साधु के लिये आव
असंयती अविरति को श्यक है या उसकी
प्रासुक या अप्रासुक इच्छा पर निर्भर है ? १०० आहार देने से एकान्त
पाप होना भगवती श०८ ६८३ (१०) चतुदर्शन की
३०६ में किस अपेक्षा तरह श्रोत्रादि दर्शन
से बतलाया है १ १३० क्यों नहीं कहे गये ? ८६४ (२६) तप गांथा ११-- २०२ श्रोत्रादि भी चक्षु की १००१ तिर्यश्च के अड़तालीस तरह दर्शन में कारण
भेद
२६५ तो ही।
६८३ (४) तीर्थकर दीक्षा ६६४ (१२) चोरी का
समय किसे नमस्कार त्याग गाथा ५
करते हैं? १७७ चौतीस अतिशय
६७७ तीर्थकर देव के तीर्थकर देव के
चौतीस अतिशय
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[१४] पृष्ठ वोल नं०
की सैंतीस गाथाएं
वोल नं० १७ तीर्थङ्करोत्सत्ति के
जम्बूद्वीप के चौंतीस
पृष्ठ
१३३
क्षेत्र
१०५ (३६) तृष्णा गाथा ७- २४२ १८३ (३३) धनुष के जीवों १७५ तेतीस आशातनाएँ ६१
की तरह क्या पात्रादि
। के जीवों की भी जीवरक्षा ६६४ (१०) दया माथा १७- १६७ कारणक पुण्य का बन्ध १०१० दर्शन विनय के एच
होता है ? १२८ पर भेद ३७४ (१) धर्म गाथा - १५१ ६६४ (२५) दान गाथा ७-> २०० / ९८१ धर्माध्ययन (सू० अ०१) ६८८ दायक दोष से दूषित
की छत्तीस गाथाएं ८७ चालीस दाता १४६ : ध्यान के ४५भेद २६६ १८३ (३०) देवता कौनसी
भाषा बोलते हैं ? १२५ १८३ (२८) द्रव्य और भाव
६८३ (३) नमस्कार उत्पन्न
या अनुत्पन्न ? यदि मन का क्या स्वरूप है ? क्या द्रव्य और
उत्पन्न है तो उसके
उत्पादक निमित्त भाव मन एक दूसरे बिना भी होते हैं? १२२
क्या हैं ? १०० ४८३ (२६) द्रव्य क्षेत्र काल ८३ (४) नमस्कार का स्वामी भाव-इनमें कौन
नमस्कार कर्ता है या किससे सूक्ष्म है? १२४ पूज्य है। १८३ (२५) द्रव्य हिसा में ६८४ (२) नमस्कार माहात्म्य हिसा का लक्षण नहीं
गाथा घटता फिर वह हिसा ६८३ (१) नमस्कार सूत्र
क्यों कही गई ? १२१ । में सिद्ध और साधु ये , , ,88 द्रुमपत्रक २० अ०१० । दो ही पद न कह कर
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[१५] बोल नं०
पृष्ठ । बोल नं० । पांच पद क्यों कहे? ८७ पैंतीस वाणी के ६५३ नमस्कार सूत्र में सिद्ध
अतिशय से पहले अरिहन्त को E४ (३६) प्रमाद गाथा १० २३१ क्यों नमस्कार किया LE४ प्रवचन संग्रह तयालीस १५१ गया?
८८३ प्रश्नोत्तर छत्तीस ६८ ६६१ नामकर्म की बयालीस १००४ प्रायश्चित के पचास प्रकृतियां
१४ भेद ६६४ (३) निर्ग्रन्थ प्रवचन ___ महिमा गाथा ३ १४५६ बत्तीस अस्वाध्याय २०
६६ वत्तीस सूत्र २१ ६८१ (६) परमावधि ज्ञानी ६६० बयालीस आहार दोष १४६
क्या चरम शरीरी १७३ बहुश्रुत पूजा अध्ययन
होते हैं? १०३ (उ० अ० ११) की । LE४ (१४) परिग्रह का
बत्तीस गाथाएं ५१ त्याग गाथा ११ १८१ | १००७ बावन अनाची EE: पुण्यप्रकृतियां बयालीस ५०
साधु के ६८३ (३१) पुष्य नक्षत्र की ६६४ ब्रह्मचर्य की बत्तीस श्रेष्टना का वर्णन क्या
उपमा जैन शास्त्रों में भी है ? १२६ | १४ (१३) ब्रह्मचर्य शील ६६४ (२०) पूजा प्रशंसा का
गाथा १६ त्याग गाथा १० १६०ER ब्राह्मीलिपि के मातृका६८७ पृथ्वीकाय (खरबादर) क्षर छियालीस २६४ के चालीस भेद १४५
म ६८३ (२७) पृथ्वीकाय के १००३ मांगे उनचास श्रावक जीच क्या १८ पाप
प्रत्याख्यान के २२७ का सेवन करते हैं१ १२२ ४ (१६) भ्रमरवृत्ति ६६७ पैंतालीस आगम २६० गाथा ४
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पृष्ठ
[१६] योल नं०
पृष्ठ | बोल न०
नीय कर्म बांधता है या ६८३ (८) मनःपर्ययज्ञान का वेदनीय कर्म! १२० विषय क्या है ? १०४ ।
य १८३ (8) मनापर्ययज्ञानी के यज्ञीयाध्ययन (10 लिये अनन्त प्रदेशी
अ० २५) की पैंतास्कन्ध का देखना कैसे
लीस गाथाए २५४ कहा गया जबकि
६४ (२२) यतनागाथा ३.१६५ मनापर्ययदर्शन है
६५ योगसंग्रह पत्तीस ही नहीं ? १०५ ८३ (२२) महाव्रत मध्य
४ (२१) रति अरति तीर्थवरों ने चार और
गाथा ६
१६३ प्रथम चरम ने पांच क्यों कहे ११६
EE४ (६) रसना (जीम) का ३८५ मार्गाध्ययन सू० अ० । संयम गाथा ७ २१२
४ (३०) रागद्वेष गा० १८-२३३ ११) की अड़तीस
गाथाएं
१३/६४ (१५) रात्रि भोजन
त्याग गाथा ५ ८३ 'माहण' शब्द का
१५४ अर्थ क्या श्रावक भी होता है ?
| R६E वंदना के बत्तीस दोप ३८ ६६४ (१७) मृगचर्या
६४ (१६) धमन किये हुए को । गाथा
१८६
प्रहण न करना गा० ६.15E ६६४ (E) मोक्षमार्ग
६७६ वाणी के ३५ अतिशय ७१ गाथा १५
६६४ (२४) विजय गाथा -१६ २००८ मोहनीय कर्म के
६७१ विजय बत्तीस ४३ ओपन नाम
६६४ (२३) विनय गाथा ११-१६५ १३ (२३) मोहनीय कर्म १००६ विनय के पावन भेद २७२
वेदता हुआ जीव मोह- ६४ (३५) वैराग्य गाथा १२-२२८
२७६
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[१७] बोल नं०
पृष्ठ बोल नं० ६४ (5) व्यवहार निश्चय
पैतीस गाथा २
१ ६३ ९८६ समय क्षेत्र के उन८३ (१६) व्रतधारी तिर्यञ्च चालीस कुल पर्वत १४४
समय विधि पूर्वक अन्त ८ समय (काल) परिमाए काल कर कहां उत्पन्न
के ४६ भेद होते है१ ११७/ १४ (६) सम्यग्ज्ञान
२६३
गाथा ७ १-२४४/६६४ (५) सभ्यग्दर्शन
१६४ (४०) शल्य गाथा १४ (१३) शील गाथा १६-१७७
| गाथा १० ६६४ शील की बत्तीस उपमा १५ / ६८३ (११) सर्व विरति रूप ५८३ (१६) आवक अन्त
सामायिक वाले को
पोरिसी आदि प्रत्या-- समय आलोचना प्रति
ख्यानों की क्या आवक्रमण कर संथारा पूर्वक
श्यकता है? १०७ काल कर कहां उत्पन्न
होता है? १९७६ ३ (१७) साधु इस भव १००३ श्रावक के प्रत्याख्यान ।
की स्थिति पूरी कर के ४६ भंग २६७)
कहां उत्पन्न होते हैं ? ११५ १९६२ साधु को इकतोस
उपमाए' १०१२ संवर के ५७ भेद ८०
११००७ साधु के बावन ६६४ (१८) सच्चा त्यागी
अनाचीर्ण २५२ गाथा २
१८८३ (१८) साधु महात्मा, ६४ (११) सत्य गाथा १४-१७२ जिन्होंने आठ कर्म ES (१२) सत्य वचन में भी । क्षय कर दिये हैं, यहां क्या साधु को विवेक
की स्थिति पूरी कर रखना चाहिये १ १०७
कहां उत्पन्न होते हैं १ ११७ PLE सत्य वचनातिशय
३ (२१) सामायिक और
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[१८] बोल नं०
पृष्ठ बोल न.. ' छेदोपस्थापनीय चारित्र । चौथे अध्य० प्रथम उ० अलग २ क्यों कहे
की इकतीस गाथाएं गये हैं।
१७४ सूयगडांग सूत्र के १७० सामायिक के बत्तीस
द्वितीय अ० के द्वितीय दोष
उ० की बत्तीस १६१ सिद्ध भगवान के
गाथाए ___ इकतीस गुण
१८१ सूयगडांग सूत्र के नवे ६७६ सिद्धों के अल्प बहुत्व के तेतीस बोल
अ० की छत्तीस गाथाएं ८७ ४६७ सूत्र के बत्तीस दोष २३ १९६३ स्त्री परिज्ञा (स० अ०४) ६६६ सुन बत्तीस २१ अध्ययन के पहले १८५ सूयगडांग सूत्र के
उ० की ३१ गाथाएं ५ ग्यारहवें अ० की अड़- ६५ स्थावर जीवों की अव.
तीस गाथाएं १३६ । गाहना के अल्प बहुल ६६३ सूयगडांग सूत्र के
के चॅवालीस बोल २५२
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
(सातवां भाग)
मङ्गलाचरण सर्वज्ञमीश्वरमनन्तमसंगमग्रयं ।
सार्वीयमस्मरमनीशमनीहमिद्धम् ॥ सिद्धं शिवं शिवकर करणव्यपेनं ।
श्रीमज्जिनं जितरिपुं प्रयतः प्रणामि ॥१॥ श्रीमत्पावजिनं नत्वा, स्मृत्वा च गुरुदेवताम् ।
सिद्धान्तसंग्रहे भागःसप्तमोऽयं विरच्यते ॥२॥ (१) सर्वज्ञ, ईश्वर, अनन्त, असंग, प्रधान, सर्वहितावह, अस्मर (वासनारहित), अनीश (स्वामी रहित), अनीह (इच्छा रहित), तेजस्वी, सिद्ध, शिव, शिवकर, करण अर्थात् इन्द्रिय एवं शरीर से रहित, जितरिषु श्रीमान् जिनेश्वर भगवान् को प्रपत्न पूर्वक प्रणाम करता हूं।
(२) श्री पार्श्वजिन भगवान् को प्रणाम कर एवं गुरुदेव का स्मरण कर श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह के सातवें भाग की रचना की जाती है।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
इकतीसवाँ बोल संग्रह ६६१-सिद्ध भगवान् के इकतीस गुण
ज्ञानावरणीयादि पाठ कर्मों का सर्वथा क्षय कर सिद्धिगति में विराजमान होने वाले सिद्ध' कहलाते हैं।
ज्ञानावरणीय आदिआठ कर्मों की इकतीस प्रकृतियाँ हैं । सिद्ध भगवान् ने इन प्रकृतियों का सर्वथा क्षय कर दिया है । इसलिये उनमें इनके क्षय से उत्पन्न होने वाले इकतीस गुण होते हैं - नव दरिसणम्मि चत्तारि आउए पंच आइमे अन्ते । सेसे दो दो भेया खीणभिलावेण इगतीस ।।
(१) क्षीण भाभिनिवोधिक ज्ञानावरण (२) क्षीण श्रुतज्ञानाचरण (३) क्षीण अवधि ज्ञानावरण (४) क्षीण मनःपर्यय ज्ञानावरण (५) क्षीण केवलज्ञानावरण (६) क्षीण चक्षुदर्शनावरण (७) क्षीण अचक्षुदर्शनावरण (6) क्षीण अवधिदर्शनावरण (8) क्षीण केवलदर्शनावरण (१०) क्षीण निद्रा (११) क्षीण निद्रानिद्रा (१२) क्षीण प्रचला (१३) क्षीण प्रचला प्रचला (१४) क्षीण स्त्यानगृद्धि (१५) क्षीण सातावेदनीय (१६। क्षीण असातावेदनीय (१७) क्षीण दर्शनमोहनीय (१८) क्षीण चारित्रमोहनीय (१६) क्षीण नैरयिकायु(२०) क्षीण तिर्यञ्चायु (२१) क्षीण मनुष्यायु (२२) क्षीण देवायु (२३) क्षीण उच्च गोत्र (२४) क्षीण नीच गोत्र (२५) क्षीण शुभ नाम (२६) क्षीण अशुभ नाम (२७) क्षीण दानान्तराय (२८) क्षीण लाभान्तगय (२६) क्षीण मोगान्तराय (३०) क्षीण उपभोगान्तराय (३१) क्षीण वीर्यान्तराय ।
सिद्ध भगवान् के गुण इस प्रकार भी बतलाये गये हैंपडिसेहण संठाणे य वण्णगंधरसफास वेए य। पण पण दु पण तिहा एगतीसमकायऽसंगऽरुहा ॥
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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, सातवां भाग
अर्थ-सिद्ध भगवान् ने पाँच संस्थान, पाँच वरण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, तीन वेद एवं काय, संग और रुह (पुनरुत्पत्ति) का तय किया है । इनके तय से उन में इकतीस गुण होते हैं
परिमण्डल, वृत्त, ज्यत्र, चतुरस्र और आयात ये पाँच संस्थान हैं। सफेद, पीला, लाल, नीला और काला ये पाँच वर्ण हैं । गन्ध के दो भेद हैं-सुरभिगन्ध, दुरभिगन्ध, । तीखा, कड़वा, कपैला, खट्टा और मीठा ये पाँच रस हैं। गुरु, लघु, मृदु, कर्कश, शीत, उष्ण स्निग्ध और रूक्ष ये आठ स्पर्श हैं। स्त्री, वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद ये तीन वेद हैं। सिद्ध भगवान् में इन अट्ठाईस बोलों का अभाव होता है। शेष तीन गुण इस प्रकार हैं- प्रौदारिक आदि पाँच शरीरों में से कोई भी शरीर सिद्ध अवस्था में नहीं रहता, इसलिये सिद्ध भगवान् काय रहित अर्थात् अशरीरी हैं । बाह्य और आभ्यन्तर संग रहित होने से वे असङ्ग (निःसङ्ग) कह. लाते हैं। सिद्ध हो जाने के बाद वे फिर कभी संसार में जन्म नहीं लेते इसलिये वे 'रूह' कहलाते हैं। संसार के कारणभूत आठ कर्मों का सर्वथा दाय हो जाने से पुनः संसार में उत्पन्न होने का कोई कारण नहीं है। कहा भी है
दरचे वीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मवीजे तथा दग्घे, न रोहति भवांकुरः ||
2
अर्थ - जिस प्रकार बीज के जल जाने पर अंकुर पैदा नहीं होता उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के जल जाने पर संसार रूपी अंकुर पैदा नहीं होता |
सिद्ध भगवान् के उक्त गुण आचाराङ्ग मूत्र में इस प्रकार हैं'से न दीहे न हस्से न वट्टे न तसे न चउरंसे न परिमण्डले, न किण्हे न णीले न लोहिए न हालिदे न सुक्कले, न सुभगंधे न दुग्भिगंधे, न तित्ते न कडुए
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
न कसाए न अंविले न महुरे, न कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न सीए न उण्हे न निद्धे न लुक्खे, न काए, न संगे, न रहे, न इत्थी न पुरिसे न णपुंसे।' ___ अर्थ-सिद्ध भगवान् न लम्बे हैं, न छोटे हैं, न वृत्त (गोल) हैं, न त्रिकोण है, न चौकोण हैं और न मण्डलाकार हैं। वे काले नहीं हैं, हरे नहीं, हैं, लाल नहीं हैं, पीले नहीं है और सफेद भी नहीं हैं। वे न. सुगन्ध रूप है और न दुर्गन्ध रूप हैं। वे न तीखे है, न कड़वे हैं, न कपैले है, न खट्टे हैं और न मीठे हैं। वे न कठोर हैं, न कोमल है, न भारी है, न हल्के । वे न ठण्डे है, न गरम हैं, न चिकने हैं, न रूखे हैं। उनके शरीर नहीं है। वे संसार में फिर जन्म नहीं लेते हैं । वे सर्व संग रहित हैं अर्थात् अमूर्त हैं। वे न स्त्री हैं, न पुरुष हैं और न नपुसंक हैं।
वे कैसे हैं ? इसके लिये शास्त्रकार कहते हैं
परिणे, सण्णे । उवमा ण विज्जइ । अरूवी सत्ता। अपयस्स पयं णत्थि।
भावार्थ-वे विज्ञाता हैं, ज्ञाता है अर्थात् अनन्त ज्ञान दर्शन सम्पन्न हैं। वे अनन्त सुखों में विराजमान हैं। उनके ज्ञान और सुख के लिये कोई उपमा नहीं दी जा सकती क्योंकि संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसके साथ उनके ज्ञान और सुख की उपमा घटित हो सके। वे अरूपी हैं । उनका स्वरूप शब्दों द्वारा कहा नहीं जा सकता। (उत्तराध्ययन अ० ३१) (प्रवचन सारोद्धार दार २७६) (समवायांग ३१) (अाचारांग श्रुत० १ अ०५उ०६) (हरिया प्रतिक्रमणाध्ययन) ६६२-साधु की ३१ उपमाएं
(१) उत्तम स्वच्छ कांस्य पात्र जैसे जल मुक्त रहता है-पानी उस पर नहीं ठहरता-उसी प्रकार साधु स्नेह से मुक्त होता है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग (२) जैसे शंख पर रंग नहीं चढ़ता उसी प्रकार साधु रागभाव से रंजित नहीं होता।
(३) जैसे कछुआ चार पैर और गर्दन इन पाँच अवयवों को दाल द्वारा सुरक्षित रखता है उसी प्रकार साधु भी संयम द्वारा पाँचों इन्द्रियों का गोपन करता है, उन्हें विषयों की ओर नहीं जाने देता।
(४) निर्मल सुवर्ण जैसे प्रशस्त रूपवान् होता है उसी प्रकार साधु रागादि का नाश कर प्रशस्त अात्मस्वरूप वाला होता है।
(2) जैसे कमलपत्र जल से नितित रहता है उसी प्रकार साधु अनुकूल विषयों में पासत न होता हुआ उनसे निर्लिप्त रहता है।
(६) चन्द्र जैसे सौम्य (शीतल) होता है उसी प्रकार साधु स्वभाव से सौम्य होता है । सौम्य परिणामों के होने से वह किसी को क्लेश नहीं पहुंचाता।
(७) सूर्य जैसे तेज से दीप्त होता है उसी प्रकार साधु भी तप के तेज से दीप्त रहता है।
(E) जैसे सुमेरु पर्वत स्थिर है, प्रलयकाल के बबण्डर से भी वह चलित नहीं होता। उसी प्रकार साधु संयम में स्थिर रहता है। अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसर्ग उसे चलित नहीं कर सकते हैं।
(8) सागर जैसे गम्भीर होता है उसी प्रकार माधु भी गम्भीर होता है। हर्प शोक के कारणों से उसका चित्त विकृत नहीं होता।
(१०) पृथ्वी जैसे सब सहती है उसी प्रकार साधु भी समभावपूर्वक अनुकूल प्रतिकूल सब परीपह उपसर्ग सहन करता है।
(११) राख से ढकी हुई अग्नि जैसे अन्दर से प्रज्वलित रहती है और वाहर मलिन दिखाई देती है। उसी प्रकार सायु तप से कृश होने के कारण बाहर से म्लान दिखाई देता है किन्तु उस का अन्तर शुभ लेश्या से प्रकाशमान रहता है।
(१२) थी से सिंची हुई अग्नि जैसे तेज से देदीप्यमान होती है उसी प्रकार साधु ज्ञान एवं तप के तेज से दीप्त रहता है।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (१३) गोशीर्ष चन्दन जैसे शीतल एवं सुगन्ध वाला होता है उसी प्रकार साधु कपायों के उपशान्त होने से शीतल एवं शील की सुगन्ध से वासित होता है ।।
(१४) हवा न चलने पर जैसे जलाशय में पानी की सतह सम रहती है, ऊँची नीची नहीं होती उसी प्रकार साधु भी समभाव वाला होता है । सम्मान एवं अपमान में भी उसके विचारों में चढ़ाव उतार नहीं होता।
(१५) सम्मार्जित स्वच्छ सीसा जैसे प्रगट भाव वाला होता है, उसमें मुख, नेत्र आदि का यथावत् प्रतिविम्ब पड़ता है इसी प्रकार साधु प्रकट शुद्ध भाव वाला होता है । माया रहित होने से उसके मानसिक भाव कार्यों में यथार्थ रूप से प्रतिविम्बित होते हैं।
(१६) जैसे हाथी युद्ध में शौर्य दिखाता है। उसी प्रकार साधु अनुकूल प्रतिकूल परीपह रूप सेना के विरुद्ध आत्मशक्ति का प्रयोग करता है एवं विजय प्राप्त करता है।
(१७) धोरी वृपभ की तरह साधु जीवन पर्यन्त लिये हुए व्रत नियम एवं संयम का उत्साहपूर्वक निर्वाह करता है।
(१८) जैसे शेर महाशक्तिशाली होता है, जंगली जानवर उसे हरा नहीं सकते । इसी प्रकार आध्यात्मिक शक्तिशाली साधु भी परीपह उपसर्गों से पराभूत नहीं होता।
(१६) शरद् ऋतु का जल जैसे निर्मल होता है उसी प्रकार साधु का हृदय भी शुद्ध अर्थात् रागादि मल रहित होता है। __ (२०)भारण्ड पक्षी सदा अत्यन्त सावधान रह कर निर्वाह करता है। तनिक भी प्रमाद उसके विनाश के लिये होता है। इसी प्रकार साधु भी हर समय संयमानुष्ठान में सावधान रहता है। कभी प्रमाद का सेवन नहीं करता। - (२१) जैसें गैंडे के एक ही सींग होता है, उसी प्रकार साधु
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
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रागद्वेष रहित होने से एकाकी होता है।
(२२) जैसे स्थाणु (वृक्ष का हूँ ठा) निथल गड़ा रहता है उसी प्रकार साधु कायोत्सर्ग के समय निश्चल खड़ा रहता है ।
(२३) सूने घर में जैसे सफाई सजावट आदि संस्कार नहीं होते उसी प्रकार साधु शरीर का संस्कार नहीं करता । वह बाह्य स्वच्छता, शोभा, शृङ्गार आदि का त्याग कर देता है ।
(२४) जैसे पवनरहित घर में जलता हुआ दीपक स्थिर रहता है परन्तु कम्पित नहीं होता । इसी प्रकार सूने घर में रहा हुआ साधु देवता मनुष्य आदि के उपसर्ग उपस्थित होने पर भी शुभ ध्यान में स्थिर रहता है परन्तु किञ्चित् भी चलित नहीं होता ।
(२५) जैसे उस्तरे के एक ओर धार होती है उसी प्रकार साधु भी उत्सर्ग मार्ग रूप एक ही धार वाला होता है ।
(२६) जैसे सर्प एक दृष्टि वाला यानी लक्ष्य पर ही दृष्टि जमाए रहता है, वैसे ही साधु अपने साध्य मोक्ष की ओर ध्यान रखता है और सभी क्रियाएं उसके समीप पहुंचने के लिये करता है ।
(२७) आकाश जैसे निरालम्बन-आधाररहित है वैसे ही साधु कुल, ग्राम, नगर आदि के आलम्बन से रहित होता है।
(२८) पक्षी जैसे सब तरह से स्वतन्त्र होकर विहार करता है उसी प्रकार निष्परिग्रही साधु स्वजन सम्बन्धी एवं नियतवास आदि बन्धनों से मुक्त होकर देश नगरादि में स्वतन्त्रतापूर्वक विचरता है।
(२६) जैसे सर्प स्वयं घर नहीं बनाता किन्तु दूसरों के बनाये हुए बिल में जाकर निवास करता है। इसी प्रकार साधु भी गृहस्थ द्वारा अपने निज के लिये बनाये हुए मकानों में उनकी अनुमति प्राप्त कर शास्त्रोक्त विधि से रहता है।
(३०) वायु की गति जैसे प्रतिबन्ध रहित है उसी प्रकार साधु भी बिना किसी प्रतिबन्ध के स्वतन्त्रता पूर्वक विचरता है ।
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' ' "श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(३१) परभव जाते हुए जीव की गति में जैसे कोई रुकावट नहीं होती, उसी प्रकार स्वपरसिद्धान्त का जानकार, वादादि सामर्थ्य वाला सांधु भी निःशङ्क होकर विरोधी अन्यतार्थियों के देश में धर्म-प्रचार करता हुआ विचरता है।
' ' (प्ररन व्याकरण धर्म द्वार ५ सूत्र २९) (श्रीपपातिक सूत्र १७) .६६३-सूत्रकृताङ्ग सूयगडांग) सूत्र चौथे । अध्ययन प्रथम उद्देशे की ३१ गाथाएं
सूत्रकृताङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के चौथे अध्ययन का नाम स्त्री परिज्ञा है। इसमें स्त्री द्वारा किये जाने वाले उपसर्गों का वर्णन है। ये उपसर्ग अनुकूल होने से अधिक दुःसह हैं । साधक इनके फेर में बहुत सुगमता से फंस जाता है और एक बार इनका शिकार होने के बाद वापिस साधना के मार्ग पर आना उसके लिये दुष्कर 'हो जाता है। इसीलिये सूत्रकार ने उपसर्गाध्ययन में सामान्यतः सभी उपसर्गों का वर्णन देकर भी स्त्री सम्बन्धी उपसर्गों का इस अध्ययन में स्वतन्त्र वर्णन दिया है। स्त्री परिज्ञा के प्रथम उद्देशे में सूत्रकार ने साधु को साधना के श्रेष्ठ मार्ग से गिराने वाली स्त्रियों की मायापूर्ण चेष्टाओं का विशद वर्णन किया है और बतलाया है कि किस प्रकार विद्वान् एवं क्रियाशील महात्मा उनकी मायाजाल में फंस कर अपनी दुष्कर साधना पर पानी फेर देता है एवं एकबार परवश होने के बाद पुनः स्वतन्त्र होना उनके लिये कितना कठिन हो जाता है। परस्त्री सम्बन्ध के ऐहिक भीषण परिणाम भी शास्त्रकार ने यथास्थान बतलाये हैं । इससे यह समझना कि शास्त्रकार ने यह वर्णन देकर स्त्री जाति की अवहेलना की है, उसके (शास्त्रकार के) साथ अन्याय करना है। स्त्रियों के दुश्चरित्र से साधक को सावधान करना ही शास्त्रकार का उद्देश्य है, जिसका (दुचरित्र का)
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श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, साता भाग
कि किसी तरह समर्थन नहीं किया जा सकता । वस्तुतः सूत्रकार के आगे स्त्री और पुरुष का इस दृष्टि से कोई भेद नहीं है। इसी लिये टीकाकार ने यह कहा है कि स्त्री के परिचय से पुरुषों को जो दोष कहे गये हैं, वे ही पुरुषों के संसर्ग से स्त्रियों को भी होते हैं, अतएव साधना में प्रवृत्त साध्वियों के लिये भी पुरुषों के परिचय आदि का त्याग करना श्रेयस्कर है । चौथे अध्ययन के प्रथम उद्दशे की ३१ गाथाएं हैं जिनका भावार्थ क्रमशः दिया जाता है। __(१) साधु मावा पिता भाई बहन आदि पूर्व संयोग एवं सास ससुरादि पश्चात् संयोग का त्याग कर दीक्षा ग्रहण करता है । दीक्षा लेते समय वह प्रतिज्ञा करता है कि मैं राग द्वेष कपाय से निवृत्त हो ज्ञानदर्शन चारित्र धारण करूँगा एवं वासना से विरत होकर एकान्त स्थानों में विचरूँगा।
(२) कामान्ध विवेकशून्य स्त्रियाँ कार्य विशेष का बहाना कर उक्त महात्मा पुरुष के समीप आती हैं । सूक्ष्म माया जाल का प्रयोग कर वे साधु को शील से स्खलित कर देती हैं। वे मायाविनी स्त्रियाँ साधु को ठगने के उन उपायों को जानती हैं जिनसे वह मुग्ध होकर उन में आसक्त हो जाता है। . (३) साधु को ठगने के लिये स्त्रियों द्वारा किये गये उपायस्त्रियाँ अत्यन्त हे प्रकट करती हुई साधु के समीप आकर बैठती हूँ । वासनापर्धक सुन्दर वस्त्रों को ढीला करके वारवार पहनती हैं। वासना जगाने के लिये वे जंघा आदि अंग दिखलाती हैं एवं भुजा उठा कर कांख दिखाती हुई साधु के सामने जाती हैं। : (४) एकान्त देख कर ये स्त्रियां शय्या आदि का उपभोग करने के लिये साधु से प्रार्थना करती हैं । परमार्थदर्शी साधु त्रियों की ऐसी हरकतों को बन्धन रूप समझे। : (५) ऐसी स्त्रियों से साधु अपनी दृष्टि न मिलावे ! अकार्य
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श्री सेठिया जन अन्थमाली करने की उनकी प्रार्थना भी स्वीकार न करे । उनके साथ प्रामादि में विहार न करे, न उनके साथ एकान्त में बैठे। इस तरह स्त्रीसंपर्क का परिहार करने से साधु समस्त अपायों से बच जाता है।
(६) 'अमुक समय मैं आपके पास आऊँगी' इस प्रकार संकेत देकर एवं नाना प्रकार के ऊँच नीच वचनों द्वारा विश्वास पैदा कर स्त्रियाँ अपने साथ भोग भोगने के लिये साधु से प्रार्थना करती हैं। स्त्री सम्बन्धी नाना प्रकार के शब्दादि विषय दुर्गति के कारण हैं यह जान कर साधु को इनका त्याग करना चाहिये।
(७) मीठे वचन कहना, प्रेम भरी दृष्टि से देखना, अङ्ग प्रत्यंग दिखाना आदि चित्त को आकृष्ट करने वाले अनेक प्रपंच कर स्त्रियां करणोत्पादक वचन कहती हुई विनय पूर्वक साधु के समीप आती हैं। साधु के समीप आकर वे विश्वासोत्पादक मधुर वचन कहती हैं। मैथुन सम्बन्धी वचनों से साधु के चिच को वश कर अन्त में वे उसे कुकर्म करने के लिये प्राज्ञा देती हैं।
(८) जैसे बन्धन विधि में दक्ष पुरुष मांस का प्रलोभन देकर निर्भीक अकेले विचरने वाले सिंह को गलयन्त्र आदि से बांध लेते हैं एवं विविध प्रकार से उसे दुःख देते हैं इसी प्रकार मधुर भापण श्रादि विविध उपायों से स्त्रियां भी मन वचन काया को पश किये हुए जितेन्द्रिय साधु को अपने जाल में फंसा लेती हैं।
(E) जैसे सुथार नेमिकाष्ठ को धीरे धीरे नमा कर कार्य योग्य घना लेता है इसी प्रकार स्त्रियां मीसाधु को अपने वश में कर शनैः शनैः इष्ट अर्थ की ओर झुका लेती हैं। जैसे जाल में फंसा हुआ हिरण छटपटाता हुआ भी जाल से मुक्ति नहीं पाता, उसी प्रकार स्त्री के मायापाश में फंसा हुआ साधु प्रयत्न करने पर भी उससे अपने को नहीं छुड़ा सकता।
(१०) जिस प्रकार विष मिश्रित खीर खाकर विष के दारुण
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां माग
विपाक से दुखी हुआ मनुष्य पीछे से पश्चात्ताप करता है। इसी प्रकार दुःख परिणाम वाले स्त्री के शब्दादि प्रलोभनों में फंसा हुआ साधु भी अन्त में पछताता है। इससे यह सबक सीखना चाहिये कि चारित्र का विनाश करने वाली स्त्रियों के साथ एक स्थान में रहना राग द्वेष रहित साधु के लिये ठीक नहीं है।
(११) विपलिप्त कण्टक के समान स्त्री को विपाकदारुण समझ कर साधु को उसका दूर से ही त्याग करना चाहिये। स्त्री के वश होकर जो अकेला ही गृहस्थ के घर जाकर उपदेश देता है वह साधु नहीं है । निषिद्ध आचरण के सेवन से अपाय (हानि) ही होता है।
(१२) जो साधु उत्तम अनुष्ठान का त्याग कर स्त्री संसर्ग रूप निन्दनीय कर्म में आसक्त है वह कुशीलों में शामिल है। अतएव उग्र तप से शोपित शरीर वाले महान् तपस्वी साधु को भी स्त्रियों के साथ विहार न करना चाहिये।
(१३) साधु को चाहिये कि वह अपनी कन्या, पुत्रवधू एवं धाया माँ के साथ भी एकान्त में न रहे। नीच दासियों तक के सम्पर्क का भी उसे त्याग करना चाहिये। छोटी अथवा बड़ी सभी स्त्रियों के साथ साधु को परिचय न रखना चाहिये।
(१४) साधु को एकान्त स्थान में स्त्री के साथ बैठा हुआ देख कर स्त्री के रिश्तेदार एवं मित्रों का चित्त खिन्न होता है । वे कहते हैं जिस तरह सामान्य प्राणी विषयों में आसक्त रहते हैं उसी प्रकार यह साधु भी है । यही कारण है कि संयमानुष्ठान का त्याग कर निर्लज्ज हो यह इस स्त्री के साथ बैठा रहता है। कभी क्रुद्ध हो वे साधु को यह भी कहते हैं कि हम तो केवल इसके रक्षण पोपण करने वाले हैं इसके पति तो तुम ही हो जो यह घर का काम काज छोड़ कर तुम्हारे पास एकान्त में बैठी रहती है।
(१५) रागद्वेष रहित तपस्वी साधु को भी स्त्री के साथ एकान्त
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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला में बातचीत करते हुए देख कर कई लोग कुपित हो जाते हैं। वे स्त्री में दोष की आशंका करने लगते हैं। जैसे यह स्त्री विविध संस्कार वाले भोजन साधु के निमित्त बना कर उनसे साधु की परिचर्या (सेवा) करती है। इसलिये यह यहाँ नित्य आ जाता है।
(१६) धर्मध्यान प्रधान व्यापारों से भ्रष्ट हुए शिथिलाचारी साधु मोहवश स्त्रियों के साथ परिचय रखते हैं । ऐहिक एवं पारलौकिक अपाय (हानि) का परिहा रकरने तथा आत्मकल्याण के लिये, स्त्री सम्बन्ध का त्याग करना आवश्यक है। इसीलिये सुसाधु स्त्रियों के स्थान पर नहीं जाते हैं ।
(१७) बहुत से लोग गृह त्याग कर प्रव्रजित होने के बाद भी मोहवश मिश्रभाव का सेवन करते हैं । वे द्रव्य से साधुवेश रखते हैं किन्तु भाव से गृहस्थाचार का सेवन करते हैं। यहीं ये विश्राम नहीं लेते किन्तु मिश्र प्राचार को मोक्ष का मार्ग बतलाते हैं । इन कुशोलों के शब्दों में ही शौर्य होता है किन्तु अनुष्ठानों में नहीं।
(१८) कुशीन साधु सभा में धर्मोपदेश के समय अपनी आत्मा एवं अपने अनुष्ठानों को शुद्ध बतलाता है और पीछे एकान्त में छिप कर पापाचरण का सेवन करता है। किन्तु यह मायाचार उसके छिपाये नहीं छिपता । इंगित (इशारा), आकार आदि के विशेषज्ञ जान लेते हैं कि यह व्यक्ति मायावी एवं धूर्त हैं। . ' (१६) अज्ञानी साधु अपने प्रच्छन्न (छिप कर किये गये) पापाचरण की बात को आचार्य से नहीं कहता। दूसरे से प्रेरणा किये जाने पर वह अपनी प्रशंसा करता है और अकार्य को छिपा देता है । 'मैथुन की इच्छा न करो' इस प्रकार बार बार आचार्य महाराज के कहने पर वह ग्लानि पाता है। . (१०) स्त्री का पोषण करने के लिये पुरुषों को जो विविध ' व्यापार करने पड़ते हैं, उनका जिन्हें कटुक अनुभव है, जो स्त्रीवेद
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के मायालु स्वभाव से सुपरिचित हैं ऐसे भुक्तभोगी एवं बुद्धिसम्पन्न व्यक्ति भी मोह वश पुनः स्त्रियों के वशवर्ती हो जाते हैं।
(२१) स्त्री सम्बन्ध का ऐहिक पुरा परिणाम-परस्त्री से सम्बन्ध रखने वाले विषयान्ध पुरुषों के हाथ पैर का छेदन किया जाता है। उनकी चमड़ी एवं मांस काटे जाते हैं । वे अग्नि में पाये जाते हैं तथा चमड़ी छील कर उनके नमक भरा जाता है।
(२२) परस्त्री सम्बन्ध के दण्ड स्वरूप ये लोग कान नाक और काठ का छेदन सहन करते हैं। इस तरह यहीं पर स्वकृत पापों से सन्तप्त होकर भी ये पापी यह नहीं कहते कि अब हम ऐसा कुकार्य नहीं करेंगे।
(२३) स्त्रियों के लिये जो ऊपर कहा गया है वह गुरु महाराज से सुना है, लोगों का भी यही कहना है। स्त्री स्वभाव का निरूपण करने वाले वैशिक कामशास्त्र में भी बताया है कि 'मैं अकार्यन करूंगी' यह मंजूर कर के भी स्त्रियाँ विपरीत याचरण करती हैं।
(२४) स्त्रियाँ मन में कुछ सोचती हैं, वचन से कुछ और कहती हैं एवं कार्य और ही करती हैं। स्त्रियों को बहुत माया वाली जान कर साधु उन पर विश्वास न करे ।
(२५) नवयौवना स्त्री विचित्र वस्त्र अलंकार पहन कर साधु के पास आती है और छलपूर्वक कहती है-हे भगवन् ! मैं घर के मंझटों से तंग आगई हूं। गृहस्थी छोड़ कर मैं संयम का पालन करूँगी । अतएव कृपा कर आप मुझे धर्म सुनाइये ।
(२६) कोई स्त्री श्राविका का बहाना कर साधु के पास श्राकर कहती है-महाराज ! मैं श्राविका हूं और इस नाते आपकी साधमिणी हूँ। इस प्रकार प्रपंच कर वह साधु से परिचय बढ़ाती है। फल स्वरूप अग्नि के समीप रहे हुए लाख के घड़े की तरह विद्वान साधु भी स्त्री के संवास में रहकर शिथिल विहारी हो जाता है।
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(२७) जैसे लाख का घड़ा अग्नि का स्पर्श पाकर शीघ्र ही तप कर नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार स्त्रियों के संसार में रहने से अनगार साधु भी नष्ट हो जाते है अर्थात् संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं। ' (२८) स्त्रियों में श्रासक्त हुए कई साधु व्रत नियमों की अवहेलना कर पाप कर्म का सेवन कर लेते हैं। प्राचार्यादि के पूछने पर वे कहते हैं-मैं यह अकार्य कैसे कर सकता हूं? यह स्त्री तो मेरी पुत्री के समान है। बचपन में यह मेरी गोद में सोया करती थी। पहले के उसी अभ्यास से उसका मेरे साथ ऐसा व्यवहार है।
(२९) ब्रह्मचर्य भंग रूप भारी भूल करने वाले उस अज्ञानी साधु की यह दूसरी अज्ञानता है कि पापकार्य करके भी पूछने पर झूठ बोल कर वह उसे छिपाता है । इस तरह वह दुगुने पापका भागी बनता है। लोक में अपनी पूजा के लिये पाप कार्य को छिपाने वाला वह साधु वस्तुतः असंयम का इच्छुक है।
(३०)श्रात्मज्ञानी किसी साधु को सुन्दराकृति देख कर दुःशील स्त्रियाँ उसे आमन्त्रण देती हुई कहती हैं-हे रक्षक! कृपया आप हमारे यहाँ पधार कर आहार पानी पस्न पात्र लीजियेगा।
(३१) स्त्रियों के इस आमन्त्रण को साधु नीवार रूप अर्थात. प्रलोभन समझे । जैसे सूअर को वश करने के लिये लोग उसे नीवार (धान्य विशेष) से ललचाते हैं उसी प्रकार स्त्रियों का यह आमन्त्रण साधु को अपने वश करने के लिये प्रलोभन रूप है। आत्मार्थी साधु को उनके घर जाने का विचार भी न करना चाहिए। शब्दादि विषय रूप जाल में फंस कर स्त्रियों के वश हुआ अज्ञानी व्यक्ति उनसे स्वतन्त्र होने में अपने को असमर्थ पाकर बार बार व्याकुल होता है। . (स्त्रकृताग सूत्र श्रुत० १ अध्य० ४ उ० १)
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(१०)साधु को योगों की प्रशस्तता के लिये ऋजुता-सरलता को अपनाना चाहिये।
(११) शुभयोम संग्रह के लिये साधु को शुचि अर्थात् सत्य शील एवं संयमी होना चाहिये ।
(१२)शुभ योग संग्रह के लिये साधु को सम्यग्दृष्टि होना चाहिये।
(१३) शुभ योग संग्रह के लिये साधु को समाधिवन्त अर्थात् प्रसन्न चित्त रहना चाहिये ।
(१४) योगों की प्रशस्तता के लिये साधु को चारित्रशील होना चाहिये, साधु का आचार पालने में माया न करनी चाहिये ।
(१५) इसी तरह साधु को विनम्र होना चाहिये, उसे मान का कतई त्याग करना चाहिये ।
(१६) शुभ योगों का संग्रह करने के लिये साधु की बुद्धि धैर्यप्रधान होनी चाहिये । उसे कभी दीन भाव न लाना चाहिये ।
(१७) इसी शुभ योग संग्रह के लिये साधु में संवेगभाव (संसार का भय एवं मोक्ष की अभिलाषा) होना चाहिये।
(१८)योगों की श्रेष्ठता के लिये साधु को छल कपट का त्याग करना चाहिये । उसे कभी माया न करनी चाहिये।
(१९) शुभयोगों के लिये साधु को सदनुष्ठान करना चाहिये।
(२०) साधु को संवरशील होना चाहिये, उसे नवीन कर्मों को आत्मा में आने से रोकना चाहिये।
(२१) योगों की उत्तमता के लिये साधु को अपने दोपों की शुद्धि कर उनका निरोध करना चाहिये ।
(२२) प्रशस्त योग संग्रह के लिये साधु को पाँचौ इन्द्रियों के अनुकूल विषयों से विमुख रहना चाहिये ।
(२३) शुय योग संग्रह के लिये साधु को मूल गुण विषयक प्रत्याख्यान. करना चाहिये।
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(२४) इसी शुभ योग संग्रह के लिये उसे उत्तरगुण विषयक प्रत्याख्यान भी करना चाहिये ।
(२५) योगों की प्रशस्तता के लिये साधु को द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकार का व्युत्सर्ग करना चाहिये ।
(२६) शुभयोगों के लिये साधु को प्रमाद छोड़ना चाहिये।
(२७) योग की प्रशस्तता के लिये साधु को प्रति क्षण शास्त्रोक्त समाचारी के अनुष्ठान में लगे रहना चाहिये ।
(२८)शुभ योग संग्रह के लिये साधु को शुभ ध्यान रूप संवर क्रिया का आश्रय लेना चाहिये।
(२६) प्रशस्त योग चाहने वाले साधु को मारणान्तिक वेदना का उदय होने पर भी घबराना न चाहिये।
(३०) शुभयोग संग्रहार्थी साधु को ज्ञपरिज्ञा से विषय संग हेय जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा उसका त्याग करना चाहिये।
(३१) योगों की प्रशस्तता के लिये साधु को दोष लगने पर प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होना चाहिये।
(३२) प्रशस्त योग संग्रह के लिये साधु को अन्त समय संलेखना कर पण्डित मरण की आराधना करनी चाहिये। (उत्तराध्ययन अ० ३१ गाथा २० टीका) (प्रश्नव्याकरण ५ धर्मद्वार सूत्र २६ टीका) (समवायांग ३२) (हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन गाथा १२७४ से १२७८) ६६६ वत्तीस सूत्र
ग्यारह अङ्ग, वारह उपाङ्ग, चार मूल सूत्र, चार छेद सूत्र और श्रावश्यक ये बत्तीस सूत्र है । ग्यारह अङ्ग और बारह उपाङ्ग का विशद वर्णन इसी ग्रन्थ के चौथे भाग में क्रमशः बोलनं० ७७६
और ७७७ में दिया गया है। चार मूल सूत्र और चार छेद सूत्र का विषय वर्णन इसी ग्रंथ के प्रथम भाग में क्रमशः बोल नं.
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२२ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
२०४ और २०५ में दिया गया है । आवश्यक सूत्र में सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, चन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान ये छ: अध्ययन हैं । इनका विशेष स्वरूप इसी ग्रन्थ के द्वितीय भाग में बोल नं० ४७६ में दिया गया है । यहाँ बत्तीस सूत्रों के नाम और उनकी श्लोक संख्या दी गई है ।
सूत्र का नाम
श्लोक संख्या
सूत्र का नाम
(१) आचाराङ्ग
: (३) स्थानाङ्ग
(५) भगवती
r
२५००
३७७०
१५७५२
८१२
(७) उपासकदशा (६) अनुत्तरोपपातिक २६२
(११) विपाक
१२१६
(१३) राजप्रश्नीय
२०७८
७७८७
(१५) प्रज्ञापना (१७) सूर्य प्रस
२२००
(१६) निरयावलिका
श्लोक संख्या
(२) सूत्रकृताङ्ग
२१००
( ४ ) समवायाङ्ग
१६६७
(६) जाता धर्मकथा ५५००
(८) अन्तकृद्दशा
६००
(१०) प्रश्नव्याकरण १२५०
(१२) औपपातिक १२००
(१४) जीवाभिगम ४७००
(१६) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ४१४६ (१८) चन्द्र प्रज्ञप्ति २२००
(२०) कल्पावर्त सिका
(२१) पुष्पिका (२२) पुष्पचूलिका (२३) वहिदशा
( २४ उत्तराध्ययन २००० (२६) नन्दी सूत्र (२८) दशाश्रुतस्कन्धदशा १८३५ (२६) बृहत्कल्प
७००
(३०) निशीथसूत्र ८१५
११०६
(२५) दशवैकालिक ७०० (२७) अनुयोग द्वार १६००
४७३
(३१) व्यवहार ६००
(३२) श्रावश्यक १२३
नोट- यह श्लोक संख्या अभिधान राजेद्रन्कोप प्रमथ भाग प्रस्तावना
पृष्ट ३१ से ३५ में से दी गई है । हस्त लिखित प्रतियों में श्लोक संख्या
अलग अलग पाई जाती है ।
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श्री जैन सिद्धान्त चोल संग्रह, सातवां भाग २३ ९६७-सूत्र के बत्तीस दोष अप्परगंथ-महत्थं वत्तीसा दोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्टहि य गुणेहि उववेयं ।। , भावार्थ-जिसमें अक्षरथोड़े हों, अर्थ अधिक हो, बत्तीस दोष न हो और आठ गुण हों ऐसा सूत्र लक्षण युक्त कहा जाता है। __यहाँ सूत्र के बत्तीस दोष क्रमशः दिये जाते हैं -
(१) अलीक-अलीक का अर्थ असत्य है । यह दो प्रकार का है-अभूतोद्भावन और भूतनिह्नव । 'जगद् ईश्वर का बनाया हुआ है। इस प्रकार अभूत (अविद्यमान) वस्तु का प्रगट करना अभूतोद्भावन है । 'श्रात्मा नहीं है। इस प्रकार विद्यमान वस्तु का गोपन करना भूतनिहव है।
(२) उपधात जनक- वेद विहित हिंसा धर्म के लिये है, मांस भक्षण में दोष नहीं है- इस प्रकार जीव हिंसा में प्रवृत्त कराने वाला सूत्र उपघातक है।
(३) निरर्थक-डित्यादि की तरह अर्थशून्य सूत्र निरर्थक है।
(४) अपार्थक-शब्दों के सार्थक होते हुए भी जिनका समुदायरूप से कोई संबद्ध अर्थ न हो इस प्रकार असंबद्ध अर्थ वाला सूत्र अपार्थक है । जैसे-शंख कदली में है और कदली मेरी में है। - (५) छल-सत्रकार जिस अर्थ को नहीं कहना चाहता उस अनिष्ट अर्थ को निकाल कर जहाँ उसके (सूत्रकार के) इष्ट अर्थ, की बात की जा सकती है ऐसे सूत्र का कहना छल दोष है। जैसेयह देवदत्त नव कम्बल वाला है । यहाँ 'नव कम्बल से वक्ता का प्राशय 'नई कम्बल' है किन्तु दुसरा व्यक्ति 'नौ कम्बल वाला' अर्थ कर वक्ता के इष्ट अर्थ की बात कर सकता है।
(६) हिल-पाप व्यापार का पोपक होने से जो सूत्र जीवों के हित का नाश करने वाला है वह दुहिल कहा जाता है। जैसे
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खाओ पित्रो मौज उड़ाओ, गया समय वापिस नहीं लौटता, यह शरीर पाँच भूतों का पिण्ड रूप है इत्यादि ।
(७ निःसार-युक्तिशून्य सारहीन वचन निःसार कहलाता है।
(८) अधिक-जिसमें आवश्यकता से अधिक अक्षर, मात्रा, पद वगैरह हों वह सूत्र अधिक दोप से दुपित है।
अथवा जिस में हेतु या उदाहरण अधिक हों वह सूत्र अधिक दोष वाला कहा जाता है। जैसे-शब्द अनित्य है क्योंकि कृतक है, जैसे घट, पट । यहाँ एक उदाहरण अधिक है।
(8) ऊन-जिसमें अक्षर,मात्रा, पद आदि कम हो वह सूत्र ऊन दोष वाला है । अथवा जिसमें हेतु या उहाहरण कम हो वह सूत्र ऊन दोप वाला कहा जाता है । जैसे-कृतक होने से शब्द अनित्य है। यहाँ उदाहरण की कमी है।
(१०) पुनरुक्त-पुनरुक्त दोप शब्द और अर्थ के भेद से दो प्रकार का है । घट, घट-यह शब्द पुनरुक्त है। घट, कट, कुम्भ यह अर्थ पुनरुक्त है।
(११) व्याहत-पहले कही हुई बात में पिछली बात से विरोध आना व्याहत दोप है । जैसे कर्म है, फल है किन्तु को नहीं है।
(१२) अयुक्त-युक्ति के आगे न टिक सकने वाला वचन अयुक्त कहलाता है । जैसे हाथियों के गंडस्थल से चूने वाली मदविन्दुओं से हाथी घोड़े और रथ को वहाने वाली नदी वहने लगी।
(१३) क्रमभिन्न-क्रम का टूट जाना क्रमभिन्न है । जैसे स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय के स्पर्श, रूप, शब्द, गन्ध और रस विषय हैं।
(१४) वचन भिन्न-वचनों (एकवचन, द्विवचन और बहु वचन) का व्यत्यय होना अर्थात् एक वचन की जगह दूसरे वचन का प्रयोग होना वचन भिन्न दोप है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग २५ (१५) त्रिभक्तिभिन्न-विभक्ति का अन्यथा प्रयोग होना विभक्तिभिन्न दोष है । जैसे-प्रथमादि विभक्तियों के स्थान पर द्वितीया आदि का प्रयोग होना।
(१६) लिङ्गभिन्न-स्त्रीलिंग, पुलिंग, नपुंसकलिंग-ये तीन लिंग हैं। इनका अन्यथा प्रयोग होना लिङ्गभिन्न दोष है । जैसे-स्त्रीलिंग के स्थान पर पुलिंग का प्रयोग होना।
(१७; अनभिहित-अपने सिद्धान्त में जो बातें नहीं हैं उनका अपनी इच्छानुसार कथन करना अनभिहित दोप है । जैसे-सांख्य मतानुयायी का प्रकृति पुरुष से भिन्न पदार्थों का निरूपण करना ।
(१८) अपद-जहाँ छन्द विशेष की आवश्यकता हो वहाँ उससे भिन्न छन्द में रचना करना अथवा एक छन्द में दूसरे छन्द का पद रखना अपद दोप है।
(१६ स्वभाव हीन-जिस वस्तु का जो स्वभाव है वह न कह कर उसका दूसरा स्वभाव बतलाना स्वभाव हीन दोष है। जैसे वायु का स्थिर स्वभाव कहना। . (२०) व्यवहित-एक वस्तु का वर्णन करते हुए वीच ही में दूसरी वस्तु का विस्तार पूर्वक वर्णन करने लगना एवं बाद में पुनः प्रकृत वस्तु का वर्णन करना व्यवहित दोप है।
(२१) कालमिन्न-काल का अन्यथा प्रयोग करना कालभिन्न दोप है । जैसे भृत काल के बदले वर्तमान काल का प्रयोग करना। . .२२) यविदोष-पद्य में आवश्यक विराम का न होना अथवा उसका यथास्थान न होना यति दोष है।
(२३) छवि दोप-यहाँ छवि से अलंकार विशेष (तनस्विता). का तात्पर्य है, उसका न होना छवि दोप है।
(२४) समय विरुद्ध-स्वाभिमत सिद्धान्त से विपरीत वचन कहना समयविरुद्ध दोष है।
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(२५) वचनमात्र - बिना किसी हेतु के इच्छानुसार कोई बात कहना वचन मात्र है । जैसे- किसी स्थान पर कील गाड़ कर कहना कि यह लोक का मध्य भाग है ।
(२६) अर्थापत्ति दोप- श्रर्थापत्ति से सूत्र का अनिष्ट अर्थ निकलना अर्थापत्ति दोप है। जैसे ब्राह्मण की घात न करनी चाहिये। यहाँ अर्थापत्ति से ब्राह्मण के सिवाय दूसरे को घात निर्दोष सिद्ध होती है ।
(२७) समास दोप - जहाँ समास करना आवश्यक है वहाँ समास न करना अथवा विपरीत समास करना समास दोष है ।
२६
(२८) उपमा दोष- 'मेरु सरसों के समान है' या 'सरसों मेरु के समान है' इस प्रकार हीन अथवा अधिक से सदृशता बताना उपमा दोष है । अथवा 'मेरु समुद्र जैसा है' इस प्रकार सदृशता - रहित पदार्थ से उपमा देना उपमा दोष है ।
(२९) रूपक दोप- रूपक में श्रारोपित वस्तु के अवयवों का वर्णन न करना अथवा दूसरी (अनारोपित) वस्तु के अवयवों का वर्णन करना रूपक दोप है । जैसे- पर्वत के रूपक में उसके शिखर आदि अवयवों का वर्णन न करना अथवा पर्वत के रूपक में समुद्र के अवयवों का वर्णन करना ।
(३०) निर्देश दोप - निर्दिष्ट पदों का एक वाक्य न बनाना निर्देश दोप है। जैसे- 'देवदत्त थाली में पकाता है' न कह कर 'देवदत्त थाली में' इतना ही कहना ।
(३१) पदार्थ दोप - वस्तु की पर्याय को भिन्न पदार्थ रूप से कहना पदार्थ दोष है । जैसे वैशेषिकों का सत्ता को, वस्तु की पर्याय होते हुए भी, भिन्न पदार्थ मानना ।
बृहत्कल्प भाष्य में पदार्थ दोप के स्थान में पद दोप दिया गया है । शब्द के आगे धातु के प्रत्यय लगाना और धातु के आगे शब्द के प्रत्यय लगाना पद दोष है ।
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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, सातवां भाग २५ (३२) संधि दोप-संधि हो सकने पर भी संधि न करना संधि दोष है। अपवा दुष्ट संधि करना संधि दोप है । जैस विसर्ग का लोप करने के बाद पुनः संधि करना।
ये सूत्र के बत्तीस दोष हुए। गाथा में सूत्र के आठ गुण बतलाये हैं। प्रकरण संगत होने से उन्हें भी यहाँ दिया जाता है:
(१) निर्दोष-उपयुक्त तथा अन्य सभी दोपों से रहित हो ।
(२) सारवत्-जो बहुत पर्याय वाला हो । गो जैसे अनेक अर्थ वाले शब्दों का जिसमें प्रयोग हो ।
(३) हेतु युक्त-जो अन्धय व्यतिरेक रूप हेतु सहित हो अथवा जो हेतु यानी कारण सहित हो ।
(४) अलंकृत-जो उपमा उत्प्रेक्षादि अलंकारों से विभूषित हो। (५) उपनीत-जो उपसंहार सहित हो। (६) सोपचार-जिसमें ग्राम्योक्तियाँ न हो। (७) मित-जो उचित वर्णादि परिमाण वाला हो।
(क)मधुर-जो सुनने में मधुर हो एवं जिसका अर्थ भी मधुर हो। कई सर्वज्ञभापित सूत्रों के छः गुण बतलाते हैं । वे ये हैं:
(१) अल्पाक्षर-जिसमें बहुत अर्थ वाले परिमित अक्षर हों।
(२) असंदिग्ध-सैन्धव लायो' की तरह जो संशय पैदा करने चाला न हो । सैंधव शब्द के नमक, वस्त्र, घोड़ा आदि अनेक अर्थ हैं इसलिये यहाँ श्रोता को सन्देह हो जाता है।।
(३) सारवत्-जो नवनीत (मक्खन) की तरह साररूप हो । - (४) विश्वतोमुख-जो सब तरह से प्रकृत अर्थ का देने वाला हो अथवा अनन्त अर्थ वाला होने से जो विश्वतोमुख हो ।
(५) अस्तोम-च,वा, हि इत्यादि निरर्थक निपात जिसमें न हों।
(६)अनवद्य-जिसमें कामादि पाप व्यापार का उपदेश न हो। (अनुयोग द्वार सूत्र १५१ टीका) (विशपावश्यक भाष्य गाथा ६६६ टीका) (सनियुक्तिक भाप्य वृत्तिक वृहत्कल्प सूत्र पौटिका गाथा २७८-२८७ )
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६६८-बत्तीस अस्वाध्याय
सम्यक रीति से मर्यादा पूर्वक सिद्धान्त में कहे अनुसार शास्त्रों का पढ़ना स्वाध्याय है । जिस काल अथवा जिन परिस्थितियों में शास्त्र पढ़ना मना है वे अस्वाध्याय हैं ।
आत्मविकास के लिये की जाने वाली क्रियाओं में स्वाध्याय का स्थान बड़े महत्त्व का है । स्वाध्याय का असर सीधे आत्मा पर पड़ता है । यही कारण है कि इसे प्राभ्यन्तर तय के प्रकारों में गिना गया है । इसका आचरण करने से ज्ञान की आराधना के साथ परम्परा से दर्शन और चारित्र की आराधना होती है। उत्तराध्ययन २९वें अ० में स्वाध्याय का फल बतलाते हुए कहा है-'नाणावरणिज्ज कम्मं खवेह' अर्थात् स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है । आगे वाचनादि स्वाध्याय प्रकारों से महानिर्जरा का होना, पुनः पुनः असातावेदनीय कर्म का बंध न होना यावत् शीघ्र ही संसार . सागर के पार पहुंचना आदि महाफल बतलाये हैं। पर यह स्मरण रहे कि समुचित वेला में स्वाध्याय करने से ही ये महान् फल प्राप्त होते हैं । जो समय स्वाध्याय का नहीं है उस समय स्वाध्याय करने से लाभ के बदले हानि ही होती है । चौदह ज्ञान के अतिचारों में 'अकाले को सज्झाओ' अर्थात् अकाल में स्वाध्याय की हो, अतिचार माना है। व्यवहार सूत्र में अस्वाध्याय में स्वाध्याय का निषेध करते हुए कहा है
नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा असज्झाए सज्झाइयं करित्तए ____ अर्थात् साधु साध्वियों को अस्वाध्याय में स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है । निशीथ सूत्र के उन्नीसवें उद्देशे में अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने से प्रायश्चित्त बतलाया है। यह प्रश्न होता है कि अस्वाध्याय सूत्रागम के हैं या अर्थागम के ? और क्या अस्वाध्याय
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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, सातवां भाग २९ में स्वाध्याय के पाँचों ही प्रकारों का निषेध है ? स्थानांग सूत्र के चौथे स्थान की टीका में इसका कुछ स्पष्टीकरण मिलता है । वह इस प्रकार है-'स्वाध्यायो नन्वादिसूत्रविषयो वाचनादिः, अनुप्रेक्षा तु न निपिध्यते' अर्थात् यहाँ स्वाध्याय से नन्दी आदि सूत्र की वाचना वगैरह समझना, अनुप्रेक्षा की मना नहीं है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि अस्वाध्याय में सूत्रागम के पठन पाठनादि का निषेध है, उसके अर्थ के चिन्तन मनन के लिये मना नहीं है।
भगवती सूत्र में कहा है कि देवताओं की भापा अर्द्धमागधी है। सूत्रों की भी यही भाषा है। सूत्रों के देववाणी में होने तथा देवाधिष्ठित होने के कारण अस्वाध्याय को टालना चाहिये। अस्वाध्याय के प्रकारों में से कई एक व्यन्तर देव सम्बन्धी हैं। उनमें स्वाध्याय करने से उनके द्वारा उपसर्ग होने की संभावना रहती है । कई अस्वाध्याय ऐसे हैं जो देवकृत भी होते हैं
और स्वाभाविक भी होते हैं । स्वाभाविक होने पर वे अस्वाध्याय रूप नहीं होते । पर वे स्वाभाविक हैं यह मालूम होना कठिन है । इसलिये शास्त्रकारों ने उनका सामान्यतः परिहार करने के लिये कहा है। कुछ अस्वाध्याय संयम रक्षा के ख्याल से कहे गये हैं, जैसे धूवर, आँधी आदि । रक्क मांस या अशुचि के समीप स्वाध्याय करना लौकिक दृष्टि से घृणित है तथा देवभाषा की अवहेलना होने से देवता भी कष्ट दे सकते हैं। किसी बड़े आदमी की मृत्यु होने पर या आसपास किसी की मृत्यु होने पर स्वाध्याय करना व्यवहार में शोभा नहीं देता । लोग कहते हैं कि हम लोग दुःखी हैं पर इन्हें हमारे प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। राजविग्रह
आदि से अशान्ति होने पर मन के अस्थिर होने की सम्भावना रहती है, लोग दुःखी होते हैं इसलिये ऐसे समय स्वाध्याय करना भी लोक विरुद्ध है। उपरोक्त कारणों से तथा ऐसे ही अन्य.
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला कारणों को लक्ष्य में रख कर शास्त्रकारों ने आगे कही जाने वाली बातों को अस्वाध्याय ठहराया है।
आचार्यों ने अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने से होने वाले अपाय भी बतलाये हैं। वे इस प्रकार हैंएए सामण्णयरे ऽसज्झाए, जो करेइ सज्झायं । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तं चिराहणं पावे ॥ .
भावार्थ-अस्वाध्याय के इन प्रकारों में से जो किसी भी अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है वह तीर्थङ्कर की आज्ञा का भंग करता है और मिथ्यात्व तथा विराधना का भागी होता है । सुअणाणम्मि अभत्ती, लोअविरुद्ध पमत्त छलणा य । विज्जा साहण वइगुण्णं, धम्मया एवं मा कुणसु ॥
भावार्थ-अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने से श्रुतज्ञान की अभक्ति होती है, लोकविरुद्ध आचरण होता है। ऐसा करने वाला प्रमादी व्यक्ति देवता से भी छला जा सकता है। विद्या साधन में विपरीत आचरण करने से जैसे विद्या फलवती नहीं होती इसी प्रकार यहाँ भी स्वाध्याय का फल प्राप्त नहीं होता अर्थात् कर्मों की निर्जरा नहीं होती । इसलिये अस्वायाय में स्वाध्याय न करनी चाहिये। उम्मायं वा लभेजा, रोगायकं वा पाउणे दीहं । तित्थयरभासिआओ, भस्सइ सो संजमाओवा॥
भावार्थ-अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने से उन्माद हो जाता है, दीर्घकालस्थायी रोग आतंक हो जाते हैं और ऐसा करने वाला तीर्थङ्करोपदिष्ट संयम से गिर जाता है। इहलोए फलमेयं, परलोए फलं न दिति विज्जाओ। 'आसायणा सुयस्स उ, कुव्वइ दीहं च संसारं ॥
भावार्थ-यह तो अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने का इहलौकिक फल हुआ। इसका पारलौकिक फल यह है। इससे
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला पूर्णिमा और आसोज बदी प्रतिपदा इन दो अस्वाध्यायों को बत्तीस अस्वाध्यायों में मिलाकर चौतीस अस्वाध्याय भी गिनते हैं । किन्तु निशीथ और स्थानाङ्ग दोनों में ही चार महाप्रतिपदाएं वर्णित हैं । व्यवहार भाष्य, हरिभद्रीयावश्यक आदि में भी महाप्रतिपदाएं चार ही मानी हैं । पांच महाप्रतिपदाओं का उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता। इसीलिए यहाँ बत्तीस अस्वाध्याय दिये हैं।
(२६-३२) प्रातःकाल, दुपहर, सायंकाल और अर्द्धरात्रि ये चारों संध्याए हैं। इन संध्याओं में भी स्वाध्याय न करना चाहिये ।
स्थानांग सूत्र में उक्न प्रकार से बत्तीस प्रस्वाध्यायों का वर्णन है । व्यवहार भाष्य एवं हरिभद्रीयावश्यक में भी भस्वाध्यायों का वर्णन है पर वह और ढंग से दिया गया है। वहां प्रात्मसमुत्थ और परसमुत्थ के भेद से अखाध्याय के दो प्रकार कहे हैं। आत्मसमुत्थ (अात्मा से होने वाले) अखाध्याय एक या दो प्रकार के हैं। एक प्रकार का अर्थात् व्रण से होने वाला अस्वाध्याय साधु के होता है और दो प्रकार के अर्थात् व्रण एवं मासिकधर्म से होने वाले आत्मसमुत्थ अस्वाध्याय साध्वी के होते हैं। परसमुत्थ अर्थात् आत्मभिन्न कारणों से होने वाले अस्वाध्याय के पांच प्रकार दिये हैं-संयमपाती, औत्पातिक, देवताप्रयुक्त, व्युद्ग्रह जनित एवं शरीर से होने वाला अस्वाध्याय । अस्वाध्याय के इन पांच भेदों के प्रभेदों में उक्त बत्तीसों अस्वाध्यायों का तथा औरों का भी वर्णन दिया गया है। संयमघाती के अन्तर्गत महिका, वर्षा और सचित्त रज के अस्वाध्याय दिये है। औत्पातिक अस्वाध्याय में पांशुवृष्टि, मांसवृष्टि, रुधिरवृष्टि, केशवृष्टि, शिलावृष्टि (ोलों की वर्षा) तथा रज उद्घात-इन्हें अस्वाध्याय माना है। देवताप्रयुक्त अस्वाध्याय में गंधर्वनगर, दिग्दाह, विद्युत्, उल्का, यूपक, और यक्षादीप्त अस्वाध्यायों का वर्णन है। इनमें गंधर्व
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श्री जन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
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नगर देवता प्रयुक्त ही होता है । शेष को देवकृत या स्वाभाविक दोनों प्रकार का माना है । देवकृत होने पर ये अस्वाध्याय रूप होते हैं । स्वाभाविक होने पर नहीं । पर इनका यह भेद मालूम करना कठिन हैं इसलिए सामान्य रूप से इन्हें अस्वाध्याय माना जाता है । इनके सिवाय चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, निर्घात और गुञ्जित भी देवता प्रयुक्त अस्वाध्याय के अन्तर्गत दिये हैं । देवताप्रयुक्त
स्वाध्यायों का वर्णन करते हुए चार सन्ध्या, चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदाओं को भी अखाध्याय रूप बतलाया है । व्युद्ग्रह जनित अस्वाध्याय में राजा और सेनापतियों के बीच होने वाले संग्राम, प्रसिद्ध स्त्री पुरुषों की लड़ाई, मलयुद्ध तथा दो गांवों के तरुणों का पत्थर ढेले आदि से लड़ना, पारस्परिक कलह आदि को स्वाध्याय माना है । राजा, दखिडक, ग्राम के प्रधान, दुर्गपति, शय्यातर यादि की मृत्यु सम्बन्धी स्वाध्याय को भी व्युद्ग्रह के अन्तर्गत ही कहा है । उपाश्रय से सात घरों के अन्दर कोई व्यक्ति पर गया हो तो उसकी अस्खाध्याय रखने के लिए भी कहा है । यदि कोई अनाथ उपाश्रय से सौ हाथ के अन्दर भरा पड़ा हो तो भी स्वाध्याय के लिए निषेध किया है। शरीर सम्बन्धी यस्वाध्याय मनुष्य और तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के भेद से दो प्रकार के हैं । तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के रक्त, मांस, अस्थि और चर्म- ये चारों यदि साठ हाथ के अन्दर हों तो स्वाध्याय न करनी चाहिए | उपाश्रय से साठ हाथ के अन्दर बिल्ली वगैरह चूहे आदि को मार दें, अण्डा गिर जाय, जरायुज और पोतज का प्रसव हो तो भी अखाध्याय रखने के लिए कहा है। मनुष्य के भी रक्त मांस चर्म और अस्थि यदि सौ हाथ के अन्दर हो तो स्वाध्याय का परिहार करने के लिए कहा है। श्मशान में स्वाध्याय करने के लिए मना किया है । बालक बालिका के
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'श्री सेठिया जन ग्रन्थमाला
जन्म एवं मासिक धर्म होने पर भी अस्वाध्याय रखने के लिये कहा है । जिस गांव में अशिव-महामारी आदि बीमारी या भूखमरी के कारण बहुत से लोग मरे हों और निकाले न गये हों अथवा जहाँ संग्राम में बहुत से आदमी मरे हों ऐसे स्थानों में बारह वर्ष तक स्वाध्याय करने के लिये मना किया है । छोटे गांव में यदि कोई मर गया हो तो जब तक उसे गांव से बाहर न ले जावें तब तक अस्वाध्याय रखना चाहिये । शहरों में मोहल्ले से बाहर न निकालें तब तक अस्वाध्याय रखने को कहा है। उपाश्रय के पास मुर्दा ले जाते हो तो वह सौ हाथ से आगे न निकल जाय तब तक स्वाध्याय का परिहार करना चाहिये।
उक्त व्यवहार भाष्य एवं हरिभद्रीयाश्यक में इन अस्वाध्यायों के भेदों का वर्णन द्रव्य क्षेत्र काल भाव के भेद से विस्तार पूर्वक शंका समाधान के साथ दिया गया है। यहाँ अस्वाध्याय का काल स्थानाङ्ग सूत्र की टीका एवं इन्हीं ग्रन्थों से लिया गया है। विशेष जिज्ञासा चाले महाशयों को ये सूत्र देखना चाहिये । (स्थानाङ्ग सूत्र २८५,स्थानान १० मूत्र २७४'प्र० सा०२६८द्वारगाथा१४५०-७१) (व्यवहारभाष्य उद्देश७)(हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन अस्वाध्यायिक नियुक्ति) ६६६-वन्दना के बत्तीस दोष
आध्यात्मिक विकास में वन्दना को विशिष्ट स्थान प्राप्त है । साधु और श्रावक के दैनिक कर्तव्यों में इसीलिये इसका समावेश किया गया है। 'सो पावइ णिव्यगणं अचिरेण विमाणवासं वा' कह कर शास्त्रकारों ने निर्वाण एवं सुरलोक की प्राप्ति इसका फल बतलाया है । इसके आचरण से कर्मों की महानिर्जरा होती है। पर यह चन्दना विशुद्ध होनी चाहिये । विशुद्धि के लिये मुमुनु को वन्दना के बत्तीस दोपों का परिहार करना चाहिये। वत्तीस दोष क्रमशः नीचे दिये जाते हैं:
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श्री जन सिदान्त वोल संग्रह, सातवां भाग
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(१) अनाहत-सम्भ्रम, आदरभाव के बिना वन्दना करना ।
(२) स्तब्ध-जातिमद आदि से गर्वाचित होकर वन्दना करना स्तब्ध दोप है । इसके चार भंग हैं-द्रव्य से स्तब्ध हो परन्तु भाव से नहीं (२)भाव से स्तब्ध हो परन्तु द्रव्य से नहीं (३) द्रव्य भाव दोनों से स्तब्ध हो (४) द्रव्य भाव दोनों से स्तब्ध न हो । इसमें चौथा भंग शुद्ध है। शेष भंगों में भाव से स्तब्ध होना दूषित है । रोगादि कारणों से झुक न सकने के कारण द्रव्य से स्तब्ध होना अदूषित हो सकता है। अन्यथा वह भी दूपित ही है।
(३) प्रविद्ध-अनियन्त्रित यानी अस्थिर होकर वन्दना करना या वन्दना यधरी छोड़कर भाग जाना प्रविद्ध दोप है।
(४) परिपिरिडत-एक स्थान पर रहे हुए आचार्यादि को पृथक् पृथक् वन्दना न कर एक ही वन्दना से सभी को वन्दना करना परिपिण्डित दोप है । अथवा उरु पर हाथ रखकर हाथ पैर बांचे हुए अस्पष्ट उच्चारण पूर्वक बन्दना करना परिपिण्डित दोप है।
(५) टोलगति-टिड्डे की तरह आगे पीछे कूदकर वन्दना करना। (६) अंकुश-रजोहरण को अंकुश की तरह दोनों हाथों से पकड़ कर व दना करना अंकुश दोप है । अथवा जैसे अंकुश से हाथी बलात् बिठाया जाता है उसी प्रकार खड़े हुए, सोये हुए अथवा अन्य कार्य में लगे हुए आचार्यादि को अवज्ञापूर्वक उपकरण या हाथ पकड़ कर खींचना एवं वन्दना करने के निमित्त उन्हें आसन पर बिठलाना अंकुश दोप है।
(७) कच्छप सिंगित-नित्तिसनयराए' आदि पाठ कहते समय खड़े होकर अथवा 'अहो काय काय' इत्यादि पाठ बोलते समय बैठ कर कछुए की तरह रेंगते हुए अर्थात् आगे पीछे चलते हुए वन्दना करना कच्छप रिंगित दोष है।
(८) मत्स्योत्त-प्राचार्यादि को वन्दना कर, बैठे बैठे ही
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
मछली की तरह शीघ्र पार्श्व फेर कर पास में बैठे हुए रत्नाधिक साधुओं को वन्दना करना मत्स्योदवृत दोष है ।
(६) मनसा प्रद्विष्ट - चन्दनयोग्य रत्नाधिक साधु में गुण विशेष नहीं है, यह भाव मन में रख कर असूया पूर्वक चन्दना करना मनसा प्रद्विष्ट दोष है। अथवा शिष्य को या उसके सम्बन्धी, मित्र आदि को आचार्य महाराज ने कोई कठोर या अप्रिय वचन कह दिया हो, इससे अथवा और किसी कारण से मन में द्वेष भाव रखते हुए वन्दना करना मनसा प्रद्विष्ट दोष है ।
(१०) वेदिकावद्ध - दोनों घुटनों के ऊपर, नीचे पार्श्व में अथवा गोदी में हाथ रख कर या किसी एक घुटने को दोनों हाथों के बीच में करके चन्दना करना वैदिकाबद्ध दोप है ।
(११) भय - आचार्यादि कहीं गच्छ से बाहर न कर दें इस भय से उन्हें चन्दना करना भय दोप है ।
(१२) भजमान - ये हमें भजते हैं यानी हमारे अनुकूल चलते हैं अथवा भविष्य में हमारे अनुकूल रहेंगे इस ख्याल से आचार्यादि को' भो आचार्य ! हम आपको वन्दना करते हैं' इस प्रकार निहोरा देते हुए वन्दना करना भजमान वन्दनक दोष है ।
(१३) मैत्री - वन्दना करने से याचार्यादि के साथ मैत्री हो जायगी, इस प्रकार मैत्री निमित्त वन्दना करना मैत्री दोप है । (१४) गौरव - दूसरे साधु यह जान लें कि यह साधु वन्दन विपयक समाचारी में कुशल है इस प्रकार गौरव की इच्छा से विधि पूर्वक यथावत् वन्दना करना गौरव दोष है।
(१५) कारण - ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सिवाय अन्य ऐहिक वस्त्रादि वस्तुओं के लिए चन्दना करना कारण दोष है । 'मैं लोक में पूज्य हो जाऊँगा, अन्य श्रुतधर साधुओं से बढ़ जाऊँगा' इस प्रकार पूजा प्रतिष्ठा के खातिर ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से
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श्री जैन सिद्धान्त बाल संग्रह, सातवां भाग १ वन्दना करना भी कारण दोष से दूषित है क्योंकि इस वन्दना का मुख्य उद्देश्य ज्ञान नहीं किन्तुं पूजा प्रतिष्ठा है।
(१६) स्तैन्य-दूसरे साधु या श्रावक मुझे चन्दना करते हुए देख न लें, मेरी लघुता प्रगट न हो, इस भाव से चोर की तरह छिप कर या उनकी दृष्टि बचाते हुए वन्दना करना स्तैन्य दोप है।
(१७) प्रत्यनीक-गुरु महाराज आहारादि करते हों उस समय उन्हें वन्दना करना प्रत्यनीक दोष है।।
(१८) मट-क्रोध से जलते हुए वन्दना करना रुट दोष है।
(१३) तर्जित-'आप तो काष्ठमूर्ति की तरह हैं, वन्दना न करने से न नाराज होते हैं और वन्दना करने से न प्रसन्न ही होते है। इस प्रकार तर्जना देते हुए बन्दना करना तर्जित दोष है। अथवा 'यहाँ जनता के बीच मुझ से चन्दना करा रहे हो, पर अकेले में पता लगेगा, इस प्रकार वन्दना करते हुए मस्तक अथवा अंगुली से गुरु को धमकी देना तर्जित दोप है।
(२०)शठ-'विधिवत् वन्दना करने से श्रावक आदि का मुझ पर विश्वास बढ़ेगा इस अभिप्राय से भाव विना सिर्फ दिखावे के लिये चन्दना करना शट दोष है । अथवा बीमारी का झूटा बहाना कर सम्यक् प्रकार से वन्दना न करना शठ दोप है।
(२१) हीलिन-'आपको वन्दना करने से क्या लाभ ? इस प्रकार हँसी करते हुए अवहेलनापूर्वक वन्दना करना हीलित दोष है।
(२२) विपरिकुंचित-वन्दना को अधरी छोड़ कर देश आदि की कथा करने लगना विपरिकुंचित दोप है।
(२३) दृष्टादृष्ट बहुत से साधु चन्दना कर रहे हों उस समय किसी साधु की आड़ में वन्दना किये बिना खड़े रहना या अंधेरी जगह में वन्दना किये बिना ही चुपचाप जाकर बैठ जाना तथा प्राचार्यादि के देख लेने पर वन्दना करने लगना दृष्टादृष्ट दोप है।
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श्री सेठिया जन प्रन्थमाला
(२४) श्रृंग-वन्दना करते समय ललाट के बीच दोनों हाथ न लगा कर ललाट की वाँयीं या दाहिनी तरफ लगाना शृंगदोष है।
(२५) कर-वन्दना को निर्जरा का हेतु न मान कर उसे अरिहंत भगवान् का कर (महसूल) समझना कर दोष है।
(२६) मोचन-साधु व्रत लेकर हम लौकिक कर (महसूल) से छूट गये परन्तु वन्दना रूप अरिहन्त भगवान् के कर से मुक्ति न हुई-यह सोचते हुए वन्दना करना मोचन दोष है। अथवा वन्दना से ही मुक्ति संभव है, चन्दना विना मोक्ष न होगा, यह सोच कर विवशता के साथ वन्दना करना मोचन दोप है।
(२७) आश्लिट अनाश्लिष्ट-'होकायं काय' इत्यादि आवर्त देते समय दोनों हाथों से रजोहरण और मस्तक को छूना चाहिये। ऐसा न कर केवल रजोहरण को छूना और मस्तक को न छूना, या मस्तक को छूना और रजोहरण को न छूना अथवा दोनों को ही न छूना प्राश्लिष्ट अनाश्लिष्ट दोष है।
(२८)ऊन-पावश्यक वचन एवं नमनादि क्रियाओं की अपेक्षा अधूरी वन्दना करना अथवा उत्सुकता के करण थोड़े ही समय में वन्दना की क्रिया समाप्त कर देना ऊन दोप है।
(२६) उत्तर चूड़ा-वन्दना देकर पीछे ऊँचे स्वर से 'मत्थएण वंदामि' कहना उत्तरचूड़ा दोष है।
(३०)मूक-पाठ का उच्चारण न कर वन्दना करना मूक दोप है।
(३१) ढड्ढर-ऊँचे स्वर से वन्दनासूत्र का उच्चारण करते हुए • वन्दना करना ढड्ढर दोप है।
(३२) चुडुली-अर्द्धदग्ध काष्ठ की तरह रजोहरण को सिरे से पकड़ कर उसे घुमाते हुए वन्दना करना चुइली दोप है। (हरिभद्रीयावश्यक वन्दनान्ययन गाथा १२०७से १२११) (सनियुक्तिकलघुभाष्यवृत्तिक वृहत्कल्प सूत्र तीसरा उद्देशा गाथा ४४७१ से ४४६४ टीका) (प्रवचनसारोद्धार दूसरा वन्दनक द्वार गाथा १५० से १७३)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग ४३ ६७०-सामायिक के बत्तीस दोष
मन के दस, वचन के दस और काया के बारह, इस प्रकार सामायिक के बत्तीस दोप है । मन और वचन के दोष इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में बोल नं.७६४ और ७६५ में तथा काया के दोप इसी अन्य के चौथे भाग में बोलनं०७८६ में व्याख्यासहित दिये गये हैं। ६७१-बत्तीस विजय
जम्बूद्वीप में नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में और निपथ वर्षधर पर्वत के उत्तर में महाविदेह क्षेत्र है इसके पूर्व और पश्चिम में लवण समुद्र है। महाविदेह क्षेत्र के मनुष्यों के देह की महती अवगाहना होती है। देवकुरु और उत्तरकुरु के मनुष्यों की भवगाहना तीन कोश की एवं विजय क्षेत्रों के मनुष्यों की अवगाहना पाँच सौधनुप की होती है। इसलिये इस क्षेत्र को महाविदेह कहते हैं। अथवा यह क्षेत्र भरत आदि अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक विस्तार वाला है इसलिये अथवा महाविदेह नामक देव द्वारा अधिष्ठित होने से यह महाविदेह कहा जाता है । इस के मध्य में सुमेरु पर्वत है । मुमेरु के पूर्व में पूर्व विदेह, पश्चिम में अपर विदेह, उत्तर में उत्तरकुरु एवं दक्षिण में देवकुरु है । देवकुरु और उत्तरकुरु युगलियों के क्षेत्र हैं। पूर्वविदह एवं अपरविदेह कर्मभूमि हैं । यहाँ तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, बासुदेव जन्म लेते हैं। सदा भरतक्षेत्र के चौथे बारे जैसी स्थिति रहती है किन्तु यहाँ छह आरे नहीं होते।
पूर्वविदेह सीता महानदी से दो भागों में विभक्त हो गया है। सीता के उत्तर में और नीलवन्त पर्वत के दक्षिण में पर्वत और नदी इस क्रम से चार पर्वत और तीन नदियों से विभक्त आठ विजय क्षेत्र हैं। इनके पश्चिम में माल्यवान् पर्वत और पूर्व में जम्बूद्वीप की जगती से लगता हुआ उत्तर सीतामुख बन है। सीता
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श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला के दक्षिण में और निपध पर्वत के उत्तर में भी पर्वत और नदियों से विभक्त आठ विजय क्षेत्र हैं । इनके पश्चिम में सोमनम पर्वत
और पूर्व में दक्षिण सीतामुख वन है । अपरविदेह भी पूर्व विदेह की तरह सीतोदा महानदी द्वारा दो भागों में विभक्त है । सीतोदा महानदी के दक्षिण में और निपध पर्वत के उत्तर में चार पर्वत
और तीन नदियों से विभक्त आठ विजय क्षेत्र हैं । इनके पूर्व में विद्युत्प्रभ नामक पर्वत है और पश्चिम में दक्षिण सीतोदा मुखवन है। सीतोदा के उत्तर में और नीलवन्त.पर्वत के दक्षिण में भी क्रमशः पर्वत और नदियों से विभक्त आठ विजय क्षेत्र हैं। इनके पूर्व में गन्धमादन पर्वत और पश्चिम में उत्तर सीतोदा मुखवन है। इस प्रकार पूर्व और अपरविदेह में बत्तीस विजय क्षेत्र हैं। ये क्षेत्र उत्तर दक्षिण में लम्बे और पूर्व पश्चिम में चौड़े हैं । ये आयत चतुष्कोण है इसलिये पल्यं क संस्थान वाले हैं। प्रत्येक विजय वैतादय पर्वत एवं दो नदियों से विभाजित होकर छः खण्ड वाला है। सीता के उत्तर की तरफ तथा सीतोदा के दक्षिण की तरफ के विजयों में गंगा और सिन्धु नदियां हैं और सीता के दक्षिण की तरफ एवं सीतोदा के उत्तर की तरफ के विजयों में रक्का और रक्तवती नाम की नदियाँ हैं।
सीता महानदी के उत्तर की ओर के आठों विजय, मेरु पर्वत से ईशानकोन में स्थित गजदंत के आकार वाले माल्यावान पर्वत से पूर्व में हैं। ये आठों विजय और इनके विभाजक पर्वत और नदियाँ इस क्रम से हैं-कच्छविजय, चित्रकूट पर्वत,सुकच्छ विजय ग्राहावती नदी, महाकच्छ विजय, ब्रह्मकूट पर्वत, कच्छावती विजय, द्राहावती नदी, आपत विजय, नलिनीकूटपर्वत, मंगलावर्त्त विजय, पंकावती नदी, पुष्कलावत विजय, एक शैलकूट पर्वत, पुष्कलावती विजय । विजय क्षेत्रों की राजधानियों के नाम क्रमश: ये है
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग ४५. क्षेमा, क्षेमपुरा, अरिष्टा, अरिष्टापुरा, खड्गी, मंजूषा, औषधि और पुंडरिकिणी । पुष्कलावती विजय से पूर्व की ओर उत्तर सीता मुखवन है जो कि जम्बुद्वीप की जगती से लगा हुआ है।
सीता महानदी के दक्षिण की ओर नवें से सोलहवें तक आट विजय हैं। उक्त नदी के उत्तर के भाग में जैसे जगती से लगा हुआ उत्तरसीतामुख बन है उसी प्रकार इसके दक्षिण भाग में भी दक्षिण सीतामुख बन है। इस रन से पश्चिम में उत्तरोत्तर आठ विजय और उनके विभाजक पर्वत और नदियाँ हैं। ये सभी इस क्रम से स्थित हैं-वत्स विजय, त्रिकूट पर्वत, सुवत्स विजय, तप्तबला नदी, महा वत्स विजय, वैश्रमणकूट पर्वत, वत्सावती विजय, मत्तजला नदी, रम्य विजय, अंजन पर्वत. रम्यक् विजय, उन्मत्तजला नदी, रमणीय विजय, मातजन पर्वत, मंगलावती विजय । मंगलावती विजय से पश्चिम में गजदन्ताकार सौमनम पर्वत है। यह पर्वत मेरु पर्वत से
अग्निकोण में स्थित है। प्राठों विजयों की राजधानियों के नाम क्रमशः ये हैं-सुसीमा, अण्डला, अपराजिता, प्रभङ्करा, अङ्कायती, पक्ष्मावती, शुभा और रत्नसंचया ।
अपरविदेह में सीतोदा महानदी के दक्षिण तट पर सत्रहवें से चौबीसवें तक आठ विजय हैं। ये क्षेत्र मेरु पर्वत से नैऋत्य कोण में स्थित गजान्ताकृति वाले विद्युत्प्रभ पर्वत से क्रमशः पश्चिम की ओर हैं । उक्त क्षेत्र एवं उनके विभाजक पर्वत और नदियाँ उत्तरोत्तर पश्चिम की ओर इस क्रम से रहे हुए हैं:-पक्ष्म विजय, अंकावती पर्वत, सुपक्ष्म विजय, क्षीरोदा नदी, महापक्ष्म विजय, पच्मावती पर्वत, पक्ष्मावती विजय, शीतश्रोता नदी, शंख विजय, श्राशीविष पर्वत, कुमुद विजय, अन्तर्वाहिनी नदी, नलिन विजय, सुखावह पर्वत,नलिनावती विजय। आठों विजयों की राजधानियाँ क्रमशः ये है-अश्वपुरा, सिंहपुरा, महापुरा, विजयपुरा, अपराजिता,
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
रजा, अशोका, वीतशोका, । नलिनावती के आगे दक्षिण सीतोदामुखवन है । यह जम्बूद्वीप की पश्चिम की जगती से लगा हुआ है। सीतोदा महानदी के दक्षिण तट की तरह उत्तर तट पर भी पीस से बीस तक आठ विजय हैं। ये आठों विजय उत्तर सीतोदामुखवन से क्रमशः पूर्व में हैं। ये विजय क्षेत्र और उनके विभाजक पर्वत तथा नदियाँ इस क्रम से रहे हुए हैं- वप्र विजय, चन्द्र पर्वत, सुवन विजय, ऊर्मिमालिनी नदी, महावत्र विजय, सूर पर्वत, वप्रापती विजय, फेनमालिनी नदी, वल्गु विजय, नाग पर्वत, सुवल्गु विजय, गम्भीर मालिनी नदी, गंधिल विजय, देव पर्वत, गंधिलावती विजय । इसके आगे पूर्व में गजदन्त सरीखे आकार वाला गंधमादन पर्वत है । यह पर्वत मेरु से वायव्य कोण में स्थित हैं । इन क्षेत्रों की राजधानियाँ ये हैं - विजया, वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजिता, चक्रपुरा, खड्गपुरा, अवध्या और अयोध्या ।
इन बत्तीस विजयों में जघन्य चार एवं उत्कृष्ट वक्तीस तीर्थङ्कर एक साथ होते हैं। वर्तमान समय में पुष्कलावती विजय में श्री सीमंधर स्वामी, वत्स विजय में श्री बाहु स्वामी, नलिनावती विजय में श्री सुबाहु स्वामी और वप्र विजय में श्री युगमंधर स्वामी विराजते हैं । इन बत्तीसों विजयों में विजयों के नाम वाले ही चक्रवर्ती होते हैं । विजय क्षेत्रों में चक्रवर्ती, बलदेव वासुदेव जघन्य चार चार होते हैं एवं उत्कृष्ट अट्ठाईस होते हैं । चक्रवर्ती और वासुदेव एक साथ नहीं होते इसलिये उत्कृष्ट संख्या अट्ठाईस कही गई है । ( जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ४ वक्षस्कार (लोक प्रकाश दूसरा भाग पन्द्रहवां सर्ग)
६७२ - उत्तराध्ययन सूत्र के पाँचवें
काम
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मरणीय अध्ययन की बत्तीस गाथाएं
उत्तराध्ययन सूत्र के पाँचवें अध्ययन का नाम काम मरणीय है । इसमें मरण के सकाम और काम दो भेद बतलाये गये हैं ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग ४७ अशान्तिपूर्वक ध्येयशून्य जो मरण होता है वह अकाम मरण है। समाधि पूर्वक विशिष्ट ध्येय के लिये मरना सकाम मरण है। ये मरण किन्हें प्राप्त होते हैं और इनका क्या फल है ? इत्यादि बातों का इस अध्ययन में सविस्तर वर्णन दिया गया है। इसमें बत्तीस गाथाएं हैं। इनका भावार्थ क्रमशः नीचे दिया जाता है
(१) रागद्वेष का नाश करने वाले महात्मा दुस्तर और महाप्रवाह वाले इस संसार समुद्र को तिर जाते हैं । संसार सागर से पार पहुँचने के लिये प्रयत्नशील किसी जिज्ञासु के प्रश्न पूछने पर महाप्रज्ञाशाली तीर्थकर देव ने यह फरमाया था।
(२) मरण रूप अन्त समय के दो स्थान बतलाये गये हैंपहला सकाम मरण और दूसरा अकाम मरण ।
(३) अज्ञानी जीव बार बार अकाम मरण माते है । चारित्रशील ज्ञानी पुरुप सकाम मरण मरते हैं। उत्कर्ष प्राप्त सकाम मरण केवलज्ञानियों को एक ही बार होता है।
(४) इनमें से पहले स्थान अर्थात् अकाममरण के विषय में भगवान् महावीर ने फरमाया है कि इन्द्रिय विषयों में आसक्त अज्ञानी जीव किस प्रकार र कर्म करता है।
(५) जो काम अर्थात् शब्द और रूप में तथा भोग अर्थात् स्पर्श रस गन्ध में आसक्त है वह कट अर्थात् मिथ्या भाषण आदि का सेवन करता है। किसी से प्रेरणा किये जाने पर वह कहता है कि परलोक किसने देखा है ? शन्दादि विषय जनित आनन्द तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है।
(६) ये काम भोग तो प्रत्यक्ष हाथ में आये हुए हैं और जो अनागत अर्थात् आगामी जन्म सम्बन्धी हैं वेआगे होने वाले हैं और अनिश्चित है। कौन जानता है परलोक है भी या नहीं ? (७) कामभोगों में श्रासन अज्ञानी जीव धृष्टता पूर्वक कहता
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
है-संसार में बहुत से लोग कामभोगों का सेवन करते हैं, उनका जो हाल होगा वह मेरा भी होगा। कामभोगों में अनुरक्त रहने के. कारण वह आत्मा यहाँ और परलोक में क्लेश प्राप्त करता है। (८) भोगों में आसक्त वह अज्ञानी जीव बस स्थावर प्राणियों के विषय में दण्ड का प्रयोग करता है। अपने और दूसरों के प्रयोजन से तथा कभी निष्प्रयोजन ही वह प्राणियों की हिसा करता है।
(8) हिंसा करने वाला, झूठ बोलने वाला, छल कपट करने वाला, दूसरों के दोप प्रगट करने वाला यह अज्ञानी जीव मदिरा मांस का भोग करता है एवं उसे श्रेष्ठ मानता है।
(१०) मन वचन कापा से मदान्ध बना हुआ और धन तथा स्त्रियों में आसक्त हुआ वह अज्ञानी दोनों प्रकार से यानी रागद्वेषमयी वाह्य और श्राभ्यन्तर प्रवृत्ति द्वारा कर्म मल संचय करता है। जैसे अलसिया मिट्टी खाता है और उसे शरीर पर भी लगाता है।
(११) इसके पश्चात् रोगों से पीड़ित हुआ वह अज्ञानी जीव मन में ग्लानि का अनुभव करता है। स्वकृत दुष्कर्मों को याद कर परलोक से डरा हुआ वह उनके लिये पश्चात्ताप करता है।
(१२) मैंने उन नरक के स्थानों के विषय में सुना है जहाँ दुःशील पुरुष मर कर उत्पन्न होते हैं। कर कर्म करने वाले अज्ञानी जीवों को वहाँ असह्य वेदना होती है।
(१३) वहाँ नरक में वह पापी जीव उपपांत जन्म से जिस प्रकार उत्पन्न होता है वह मैंने सुना है । यहाँ की स्थिति पूर्ण होने पर स्वकृत दुष्कर्मों के फल स्वरूप वहाँ जाता हुआ वह अज्ञानी जीव बहुत ही पश्चात्ताप करता है।।
(१४)जैसे कोई गाड़ीवान् जानबूझ कर सीधे मार्ग को छोड़ विषम मार्ग में जाता है और वहाँ गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है। • . (१५) धर्म मार्ग को छोड़ अधर्म का आचरण करने वाला वह
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
MAMANGanARA
पापात्मा मृत्यु आने पर मारणान्तिक वेदना से विकल हुआ अपने दुष्कृत्यों के लिये ठीक उसी प्रकार पश्चात्ताप करता है जैसे गाड़ीवान् धुरी टूट जाने पर अपनी गलती के लिये पश्चात्ताप करता है। वह कहता है-हाय ! मैने जानते हुए ऐसा पापाचरण क्यों किया?
(१६) उसके बाद वह अज्ञानी मरण रूप अन्त समय में नरक के दुःखों का स्मरण कर भयभीत होता है । जुए के दाव में हारे हुए जुआरी की तरह दिव्यसुखों को हारा हुआ वह अज्ञानात्मा शोक करता हुआ अकाम मरण मरता है। (१७) यह अज्ञानी जीवों के अकाम मरण के विषय में कहा । अब चारित्रशील पण्डित पुरुषों के सकाम मरण के विषय में कहता हूँ। उसे ध्यानपूर्वक सुनो।
(१८)पवित्र जीवन बिताकर पुण्योपार्जन करने वाले ब्रह्मचारी संयमी पुरुषों का मरण भी प्रसन्न एवं व्यायात रहित होता है अर्थात् मरण समय भी शुभ भावनाओं से उनका चित्त प्रसन्न रहता है एवं यतनापूर्वक संलेखना की आराधना करने से मृत्यु समय उनसे किसी जीव की बात नहीं होती, ऐसा मैंने सुना है।
(१६) यह मरण न सब भिक्षुओं को प्राप्त होता है और न सव गृहस्थों को ही प्राप्त होता है । गृहस्थ भी अनेक प्रकार के शील वत बाले होते हैं और भिक्षु भी विरूप प्राचार वाले होते हैं। कठिन व्रत पालने वाले भिक्षुओं को और विविध सदाचार का सेवन करने वाले गृहस्थों को ही यह मरण प्राप्त होता है।।
(२०)कई (नामधारी) साधुओं से गृहस्थ अधिक संयमी होते हैं किन्तु सच्ची साधुता की दृष्टि से, तो सब गृहस्थों से साधु ही अधिक संयमी होते हैं। (२१) चीवर, मृगचर्म, नम्रता, जटा, संघाटी (उत्तरीय वस्त्र), मुंडन आदि साधुता के बाह्यचिह्न, प्रव्रज्या लेकर दुराचार का सेवन करने वाले वेशधारी साधु को, दुर्गति से नहीं बचा सकते ।
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श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला
(२२) भिक्षा से निर्वाह करने वाला साधु भी यदि दुराचारी हो तो वह नरक से नहीं छूट सकता । चाहे भितु हो या गृहस्थ, जो व्रतों का निरतिचार पालन करता है वही स्वर्ग में उत्पन्न होता है।
(२३) गृहस्थ को चाहिये कि वह सम्यक्त्व, श्रुत और देशविरति रूप सामायिक एवं उसके अंगों का पालन करे तथा कृष्ण
और शुक्ल दोनों पक्षों में अष्टमी चतुर्दशी आदि तिथियों के दिन पौपध करे। यदि इन तिथियों में कभी दिन का पोपध न कर सके तो रात्रि में तो अवश्य ही करे। (२४) इस तरह व्रत पालन रूप प्रासेवन शिक्षा से युक्त सुव्रती श्रावक गृहस्थावास में रहते हुए भी इस ओदारिक शरीर से मुक्त होकर देवलोक में उत्पन्न होता है।
(२५) समस्त आश्रयों को रोक देने वाले भावभिक्षु की दो में से एक गति होती है। या तो वह समस्त दुःखों का नाश कर सिद्धि गति में जाता है या देवगति में महामृद्धिशाली देव होता है।
(२६) जहाँ वह देव होता है वहाँ का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-देवों के ये आवास बहुत ऊपर है. प्रधान हैं, मोहरहित है तथा देवों से व्याप्त हैं। यहाँ रहने वाले देव महायशस्वी होते हैं।
(२७) ये देव दीर्घ स्थिति वाले, दीप्ति वाले, समृद्धिचन्त तथा इच्छानुसार रूप धारण करने वाले होते हैं। अनेक सूर्यों के समान ये तेजस्वी होते हैं। इनके शरीर के वर्ण धुति आदि सदा जन्म समय के समान ही रहते हैं।
(२८) चाहे साधु हों या गृहस्थ हों, जिन्होंने उपशम द्वारा कपायाग्नि को शान्त कर दिया है तथा संयम और तप का आचरण किया है वे पुण्यात्मा उपरोक्त स्थानों में उत्पन्न होते हैं।
(२६) सच्चे पूजनीय, जितेन्द्रिय और संयमी पुरुषों को ऊपर वतलाये हए स्थानों की प्राप्ति होती है यह जानकर चारित्रशील बहुश्रुत महात्मा मरणान्त समय उद्वेग नहीं पाते ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग (३०) सकाम और अकाम मरण की तुलना करके तथा सकाम मरण की विशिष्टता जानकर और इसी प्रकार शेष धर्मो से यतिधर्म की विशेषता समझ कर बुद्धिमान साधु कपायरहित हो और क्षमा द्वारा अपनी आत्मा को प्रसन्न रखे ।
१३१) कपायों को शान्त करने के बाद, जा योगों की शक्ति हीन हो जाय और मरणकाल निकट हो उस समय श्रद्धावान् साधु मौन के डर से होने वाला रोमाञ्च दूर करे एवं शरीर का नाश चाहे अर्थात् शरीर की ओर निरपेक्ष हो जाय ।
(३२) इसके बाद मरण समय प्राप्त होने पर साधक पुरुष शरीर का मपत्व त्याग कर संलेखनादि उपक्रमों द्वारा शरीर की घात करता हुआ मलप्रत्याख्यान, इगित और पादपोपगमन, इन तीन मरणों में से किसी एक द्वारा सकाम मरण मरता है।
(उत्तमध्ययन मत्र पाचवा अध्ययन ) ६७३-उत्तराध्ययन सूत्र के ग्यारहवें बहु
श्रुत पूजा अध्ययन की बत्तीस गाथाएं (१) में वाह्य प्रास्यन्तर संयोग से मुक्त हुए गृहत्यागी भिन्नु का प्राचार प्रगट करूंगा। उसे अनुक्रम से ध्यान पूर्वक सुनो।
(२) जो विद्या रहित है, अभिमानी है, रसादि में गृद्ध है, जिसने इन्द्रियों को वश नहीं किया है,जो असम्बद्धभापण करता है और अविनीत है वह अबहुश्रुत है।
(३) शिक्षा प्राप्त न होने के पाँच कारण हैं-अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य ।
(४-५) आठ स्थानों से यह प्रात्मा शिक्षाशील कहा जाता है अर्थात् आठ गुणों का धारक पुरुप शिक्षा प्राप्त करने योग्य होता है-(१) हास्य क्रीड़ा न करने वाला (२) सदा इन्द्रियों का दमन
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करने वाला (३) दूसरों के मर्म प्रगट न करने वाला (४) सदाचारी (५) व्रतों का निरतिचार पालन करने वाला (६) लोलुपता रहित (७) क्रोध न करने वाला तथा (८) सत्य का अनुरागी ।
(६) आगे कहे जाने वाले चौदह स्थानों में रहा हुआ संयती विनीत कहा जाता है । वह कभी मुक्ति का अधिकारी नहीं होता । ( ७-६ ) - ( १ ) बार बार क्रोध करने वाला (२) चिकथा करने वाला अथवा दीर्घकाल तक क्रोध रखने वाला (३) मित्रता करके उसका त्याग करने वाला अथवा कृतघ्न होकर मित्र का उपकार न मानने वाला ( ४ ) शास्त्र पढ़ कर अभिमान करने वाला (५) समिति आदि में स्खलना होने से आचार्यादि का तिरस्कार करने वाला (६) मित्रों पर भी क्रोध करने वाला (७) अतिशय प्रिय मित्र की भी पीठ पीछे बुराई करने वाला (८) सम्बद्ध भाषण करने वाला (8) द्वेप करने वाला (१०) अभिमानी (११) रसादि
गृद्ध रहने वाला (१२) इन्द्रियों का निग्रह न करने वाला (१३) आहारादि पाकर साथियों को नहीं देने वाला (१४) अपने व्यवहार द्वारा सभी में प्रीति उत्पन्न करने वाला । इन दोपों वाला व्यक्ति अविनीत कहा जाता है ।
(१० - १३) पन्द्रह गुणों को धारण करने वाला पुरुष विनीत कहलाता है - ( १ ) विनम्र वृत्ति वाला (२) अचपल - गति, स्थान, भाषा और भाव विषयक चपलता रहित (३) माया रहित (४) खेल तमाशा आदि देखने की उत्सुकता से रहित (५) किसी का तिरस्कार न करने वाला (६) विकथा का त्याग करने वाला (७) मित्रता करके उसे निभाने वाला, मित्र का उपकार करने वाला एवं उसके प्रति कृतज्ञ रहने वाला (८) शास्त्र पढ़ कर अभिमान न करने वाला (६) समिति आदि में स्खलना होने पर श्राचायदि का तिरस्कार न करने वाला (१०) मित्रों पर क्रोध न करने
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवाँ भाग ५३ वाला (११) अप्रिय मित्र की भी पीठ पीछे बुराई न कर उसके गुणों की प्रशंसा करने वाला (१२) कलह और डमर (प्राणीपात
आदि) का त्याग करने वाला (१३) कुलीन (१४) लज्जावान् (१५) प्रतिसंलीन-इन्द्रियों का गोपन करने वाला । इन गुणों से युक्त तच का जानकार मुनि विनीत कहलाता है।
(१४) जो शिष्य धार्मिक व्यापारों में दचचित्त रह कर गुरु कुल में रहता है, शास्त्र सीखते हुए यथायोग्य आयंबिल आदि उपधान तप करता है तथा दूसरों के अप्रिय बोलने एवं अप्रिय करने पर भी उनसे प्रिय बोलता है तथा उनका प्रिय करता है वह शिक्षा प्राप्त करने योग्य है। (१५) जिस प्रकार शंख में रहा हुआ दूध दोनों प्रकार से यानी अपने माधुर्यादि गुणों से तथा आधार पात्र के गुणों से शोभा पाता है उसी प्रकार बहुश्रुत भिक्षु में धर्म कीर्ति और श्रुत्रज्ञान भी दोनों प्रकार से शोभा पाते हैं।
(१६) जैसे कम्बोज देश के घोड़ों में आकीर्ण जाति का घोड़ा अतिशय वेग वाला होता है और वह उनमें प्रधान माना जाता हैं उसी तरह बहुश्रुत भी अन्य धार्मिक जनों की अपेक्षा श्रुत शील आदि गुणों से श्रेष्ठ अतएव उनमें प्रधान होते हैं। (१७) जैसे आकीर्ण जाति के उत्तम बोड़े पर आरूढ़ हुआ दृढ़ पराक्रमी शूरवीर दोनों ओर वाघध्वनि एवं जयघोप से शोभित होता है एवं वह तथा उसके आश्रित शत्रुओं से अभिभूत नहीं होते। इसी प्रकार बहुश्रुत भी दिन रात साध्याय ध्वनि एवं स्वपर पक्ष की जय नाद से शोभित होते हैं तथा वे और उनके आश्रित बाद में अन्यतीर्थियों द्वारा पराजित नहीं होते।
(१८) जैसे हथिनियों से घिरा हुआ, साठ वर्ष की उम्र का हाथी महाबलवान होता है एवं मदवाले भी दूसरे हाथी उसे हरा नहीं
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करता है। वह कलि (प्रथम स्थान) को कभी ग्रहण नहीं करता और इसी तरह दूसरे तीसरे स्थान को ग्रहण करके भी नहीं खेलता।
(२४) जैसे कुशल जुआरी के लिये चौथा स्थान सर्व श्रेष्ठ है वैसे ही लोक में विश्व रक्षक सर्वज्ञ भगवान् ने जो धर्म कहा है वह सर्वोत्तम है। इसको हितकारी और उत्तम समझकर पण्डित मुनि को इसे ठीक उसी प्रकार ग्रहण करना चाहिये जैसे कि जुआरी अन्य स्थानों को छोड़ कर चौथे स्थान को ही ग्रहण करता है।
(२५) इन्द्रियों के विषय शब्दादि मनुष्यों के लिये दुर्जेय है ऐसा मैंने सुना है । जो इनसे विपरीत है एवं संयम में सावधान है वे ही भगवान् ऋपभदेव एवं महावीर स्वामी के धर्मानुयायी हैं।
(२६) अतिशय ज्ञान वाले महर्षि ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी से कहे गये इस उपरोक्त (इन्द्रिय विपयों से निवृत्ति रूप) धर्म का जो आचरण करते हैं वे ही संयम में उस्थित एवं समुत्थित हैं एवं परस्पर एक दूसरे को धर्म में प्रवृत्त करते हैं। __(२७) साधु को चाहिये कि पूर्वमुक्त शब्दादि का स्मरण न करे तथा अष्टविध कर्मों का नाश करने के लिये योग्य अनुष्ठान करता रहे। मन को मलीन करने वाले शब्दादि विषयों की ओर जिनका झुकाव नहीं है वे ही अात्मस्थित समाधि का अनुभव करते हैं।
(२८) साधु को चाहिये कि वह स्त्री श्रादि सम्बन्धी विकथा न करे एवं प्रश्न का फल बता कर अपना निर्वाह न करे। उसे वर्पा, धनप्राप्ति आदि के उपाय भी न बताने चाहिये । श्रुतचारित्ररूप जिनभापित सर्वोत्तम धर्म को जान कर उसे संयम क्रियाओं का अभ्यास करना चाहिये एवं किसी भी वस्तु पर ममता न रखनी चाहिये।
(२६) मुनि को चाहिये कि वह क्रोध, मान, माया लोभ का सेवन न करे । जिन महापुरुषों ने इनका त्याग किया है एवं सम्यक् रूप से संयम का आचरण किया है वे ही धर्म की ओर उन्मुख हैं।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग ६१ (३०) आत्महित दुर्लभ है इसलिये साधु को स्नेह का त्याग कर, ज्ञानादि सहित होकर आश्रय का निरोध करते हुए विचरना । चाहिये । श्रुत चारित्र रूप धर्म ही उसका उद्देश्य होना चाहिये। जितेन्द्रिय होकर उसे तप में अपनी शक्ति लगा देनी चाहिये।
(३१) समस्त जगत् को जानने वाले ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो सामायिक आदि कास्वरूप वतलाया है उसे इस आत्मा ने निश्चय ही पहले नहीं सुना है, यदि सुना भी हो तो उसका सम्यक् प्रकार से आचरण नहीं किया है।
(३२) आत्महित अति दुर्लभ है, मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र आदि अनुकूल अवसर है यह जानकर और उत्तम जिनधर्म को जानकर ज्ञानादि सहित अनेक पुरुपगुरु की इच्छानुसार उनके बताये मार्ग पर चल कर पाप से विरत हुए हैं एवं संसार से तिर गये हैं ऐसा मैं कहता हूँ। (सूयगडांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध द्वितीय अध्ययन द्वितीय उद्देशा)
तेतीसवाँ बोल संग्रह ९७५-तेतीस आशातनाएं
'आय' का अर्थ है सम्यग्दर्शनादि का लाभ और 'शातना' का अर्थ है खण्डना । सम्यग्दर्शनादि का घात करने वाली अविनय की क्रियाओं को आशातना कहा जाता है। एवं धम्मस्स विणो मूलं' कह कर शास्त्रकारों ने विनय का महत्व बतलाते हुए उसकी अनिवार्य आवश्यकता भी बतलादी है।धर्म का प्रासाद विनय की नींव पर खड़ा होता है । इसलिए विनय रहित क्रियाओं को आशातना (सम्यग्दर्शनादि का नाश करने वाली) कहना ठीक ही है। ये आशातनाएं तेतीस प्रकार की हैं। छोटी दीक्षा वाले साधु (शैक्ष) को रत्नाधिक (दीक्षा में पड़े) के साथ रहते हुए इनका
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला परिहार करना चाहिये । यह याद रखना चाहिये कि उत्सर्ग मार्ग के अनुसार ये क्रियाएं वर्जनीय हैं परन्तु विशेष परिस्थितियों में अपवाद रूप से इनमें से किसी का सेवन करना भी आवश्यक हो सकता है । उस समय द्रव्य क्षेत्र काल भाव को देख कर रत्नाधिक की आज्ञा से उनका सेवन करना सदोष नहीं कहा जा सकता। द्रव्य रूप से इनका सेवन करते हुए भी हृदय में रताधिक के प्रति बहुमान रहना ही चाहिये, उसमें किसी प्रकार कमी न होनी चाहिये। हृदय में विनय बहुमान न रखते हुए इन आशातनाओं का परिहार करना केवल द्रव्य विनय है। व्यवहार शुद्धि के सिवाय उसकी विशेष सार्थकता नहीं है । रत्नाधिक के प्रति विनय बहुमान रखकर इन आशातनाओं का परिहार करने से विनय और धर्म की यथार्थ आराधना होती है और सुमुनु अपने ध्येय के अधिकाधिक समीप पहुँचता है । तेतीस पाशातनाओं में यतना करने अर्थात् उनका परिहार करने का फल उत्तराध्ययन सूत्र के ३१वें अध्ययन में 'सेन अच्छइ मण्डले' (अर्थात् वह संसार में भ्रमण नहीं करता, मुक्त हो जाता है) बतलाया है । रताधिक के लिये हृदय में विनय बहुमान रखते हुए इन आशातनाओं का परिहार करने वाला ही इस फल को प्राप्त करता है । तेतीस पाशातनाएं इस प्रकार हैं:
(१) मार्ग में रत्नाधिक के आगे चलने से अाशातना होती है। (२) मार्ग में रत्नाधिक के बराबर चलने से आशातना होती है।
(३) मार्ग में रत्नाधिक के पीछे भी बहुत पास पास चलने से आशातना होती है।
(४-६) रत्नाधिक के आगे, वरावरी में तथा पीछे अति समीप खड़े होने से आशातना होती है।
(७-९) रत्नाधिक के धागे, परावरी में तथा पीछे प्रति समीप बैठने से अाशातना होती है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग ६३ (१०) रत्नाधिक और शिष्य विचार भूमि (जंगल)गये हों वहाँ रताधिक से पूर्व शिष्य आचमन-शौच करे तो आशातना होती है।
(११) वाहर से उपाश्रय में लौटने पर शिष्प रत्नाधिक से पहले ईर्यापथ सम्बन्धी आलोचना करे तो आशातना होती है।
(१२) रात्रि में रत्नाधिक के "कौन जागता है ?" पूछने पर शिष्य जागते हुए भी उसका उत्तर न दे और उनके वचन सुने अनसुने कर दे तो आशातना होती है।
(१३) जिस व्यक्ति से रत्नाधिक को पहले बातचीत करनी चाहिये उससे शिष्य पहले बातचीत करले तो आशानता होती है।
(१४) अशनादि की आलोचना पहले दूसरे के आगे करके बाद में रताधिक के प्रागे करे तो आशातना होती है।
(१५) अशनादि पहले दूसरे छोटे साधुओं को दिखला कर बाद में रत्नाधिक को दिखलावे तो आशातना होती है।
(१६) अशनादि के लिये पहले दूसरे साधुओं को निमन्त्रित कर पीछे रताधिक को निमन्त्रित करे तो अाशातना होती है।
(१७) रत्नाधिक को बिना पूछे दूसरे साधु को उसकी इच्छानुसार प्रचुर आहार देने से आशातना होती है।
(१८) रताधिक के साथ आहार करते समय यदि शिष्य इच्छानुकूल वर्ण गन्धादि युक्त, सरस, मनोज, स्निग्ध या रूखा आहार जल्दी जल्दी प्रचुर परिमाण में खाता है तो आशातना होती है।
(१६) प्रयोजन विशेष से ग्लाधिक द्वारा बुलाये जाने पर यदि शिष्य उनके वचन सुने अनसुने कर देता है तो आशातना होती है।
(२०) रताधिक के प्रति या उनके समक्ष कठोर या मर्यादा से अधिक बोलने से आशातना होती है।
(२१) रत्नाधिक से बुलाये जाने पर शिष्य को उत्तर में मत्थएणं वंदामि' कहना चाहिये । ऐसा न कह कर 'क्या कहते हो
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श्री सेठिया जैन अन्यमाला शब्दों में उत्तर देने से अाशातना होती है।
(२२) रत्नाधिक के बुलाने पर शिष्य को उनके समीप ांकर उनकी बात सुननी चाहिये और विनय पूर्वक उत्तर देना चाहिये, ऐसा न कर अपने स्थान से ही उनकी बात सुनने और वहीं से उत्तर देने से श्राशातना होती है।
(२३) यदि शिष्य रत्नाधिक के लिये तू कारे का प्रयोग करे, उनके प्रेरणा करने पर 'तू प्रेरणा करने वाला कौन है ? ऐसे असभ्यतापूर्ण वचन कहे तो आशातना होती है। .
(२४) रत्नाधिक यदि शिष्य को किसी कार्य के लिये प्रेरणा करें तो शिष्य को उनके वचन शिरोधार्य करना चाहिये । ऐसा न करते हुए यदि शिष्य उन वचनों को उन्हीं के प्रति दोहराते हुए उनकी अवहेलना करता है तो आशातना होती है । जैसे-'हे
आर्य ! ग्लान साधुओं की सेवा क्यों नहीं करते ? तुम आलसी हो' रत्नाधिक के यह कहने पर शिष्य इन्हीं शब्दों को दोहराते हुए उन्हें कहता है-तुम स्वयं ग्लान साधुओं की सेवा क्यों नहीं करते ? तुम खुद आलसी हो।'
(२५) रत्नाधिक धर्मकथा कह रहे हों उस समय यदि शिष्य दूसरे संकल्प विकल्प करता रहे, कथा में अन्यमनस्क रहे और कथा की सराहना न करे तो आशातना होती है।
(२६) रत्राधिक धर्म कथा कह रहे हों उस समय शिष्य के, 'आप भूल रहे हैं, आपको याद नहीं, यह बात इस तरह नहीं है। इस प्रकार कहने से अाशातना होती है।
(२७) रत्नाधिक धर्मकथा कह रहे हों उस समय शिष्य किसी उपाय से कथाभंग करे और स्वयं कथा कहे तो अाशातना होती है। - (२८) रत्नाधिक महाराज धर्मकथा कह रहे हों उस समय यदि शिष्य 'श्रय मिक्षा का समय हो गया है, कथा समाप्त होनी चाहिये
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अन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
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इत्यादि कह कर परिपद् का भेदन करे तो आशातना होती है।
(२६) सभा उठी न हो, लोग गये न हों, जनता विखरी न हो कि शिष्य रताधिक की लघुता और अपना गौरव दिखाने के लिये उसी सभा के आगे रत्नाधिक की कथा को दो, तीन या चार बार कहता है और कहता है कि इस सूत्र के व्याख्यान के ये भी प्रकार हैं। ऐसा करने से आशातना होती है।
(३०) रत्नाधिक के शय्या संस्तारक को पैर से छूकर उनसे क्षमा माँगे बिना ही यदि शिष्य चला जाय तो आशातना होती है।
(३१) यदि शिष्य रत्नाधिक के शय्या संस्तारक पर खड़ा रहे, ठे या शयन करे तो आशातना होती है।
(३२) शिष्य के रत्नाधिक के आसन से ऊँचे आसन पर खड़े होने, बैठने और सोने से अाशातना होती है।
(३३) शिष्य के रत्नाधिक के वरावर श्रासन पर खड़े होने, बैठने और सोने से प्राशातना होती है
हरिभद्रीयावश्यक में तेतीस माशातनाएं संग्रहणीकार ने तीन गाथाओं में दी हैं । वे गाथाएं इस प्रकार हैं
पुरओ पक्खासण्णे गंता चिहणनिसीयणायमणे । ११ १२
१३
१४ आलोयणपडिसुणणा पुव्वालवणे य आलोए ।
१५ १६ १७ १८ तह उवदंस णिमतण खद्धाईयाण तह अपडिसुणणे। २१ २२ २३ २४
२५ खद्धतिय तत्थगए किं तुम तज्जाइ णो मुमणे॥
२६ २७ २८ णो सरसि कहं छेत्ता परिसंभित्ता अणुहियाइ कहे।
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श्री सेठिया जैन अन्यमाला '
संथार पायघट्टण चिट्टे उच्चासणाईसु ॥
नोट-उक्त गाथाओं में जिस क्रम से श्राशातनाएं दी गई हैं वही क्रम यहाँ भी रखा गया है । समवायांग सूत्र में एक से बीस तक की आशातनाएं इसी क्रम से हैं । इक्कीसवीं आशाना अन्त में दी गई है और शेष आशातनाओं का क्रम यही है । फलतः बाईस से तेतीस तक की आशातनाएं वहाँ क्रमशः इकोस से बत्तीस तक दी गई हैं और इक्कीसवीं आशातना वहाँ तेतीसवीं अाशातना है। दशाश्रुतस्कन्धदशा में भी तेतीस अाशातनाएं हैं। वहाँ बत्तीसवीं और तेतीसवीं आशातना एक गिनी है और इसलिये वहाँ एक आशातना अधिक है । वह यह है-रत्नाधिक के कथा कहते हुए शिष्य यह कहे कि 'अमुक पदार्थ का स्वरूप इस प्रकार है। तो आशातना होती है । इसके सिवाय दो चार अाशातनाएं आगे पीछे हैं, इसलिये क्रम में भी अन्तर हो गया है। (समवायांग ३३) (दशाश्रुतस्कन्ध तीसरी दशा) (हरिभद्रीयावश्यकप्रतिक्रमणाध्ययन) ६७६-अनन्तरागत सिद्धों के अल्पबहुत्व
के तेतीस बोल चरम भव से पूर्ववर्ती जिस भव में से आकर जीव सिद्ध होते हैं वे वहाँ से आने के कारण उस भव के अनन्तरागत सिद्ध कहलाते हैं। इस अल्पबहुत्व में चरम भव के अव्यवहित पूर्ववर्ती कौन से भवों से मनुष्यभव में आकर किस प्रकार कम ज्यादा संख्या में जीव सिद्ध होते हैं यह बतलाया गया है । अल्पबहुत्व इस प्रकार है
(१) चौथी नरक के अनन्तरागत सिद्ध सब से थोड़े हैं (२) इससे तीसरी नरक के अनन्तरागत सिद्ध संख्यात गुणा अधिक हैं (३) दूसरी नरक के अनन्तरागत सिद्ध इन से भी संख्यात
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग ६७ गुणा अधिक है। (४) पर्याप्त वादर प्रत्येक वनस्पतिकाय के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (५) पर्याप्त चादर पृथ्वीकाय के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (६)पर्याप्त वादर अप्काय के अनन्तरागत सिद्ध इन से भी संख्यात गुणा अधिक हैं (७) भवनपति की देवियों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक है (८) भवनपति देवों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे मी संख्यात गुणा अधिक है (8) व्यन्तर देवियों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक है। (१०) व्यन्तरदेवों में के मनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक है (११)ज्योतिषी देवियों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (१२) ज्योतिपी देवों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (१३) मनुष्य स्त्रियों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक है (१५) मनुष्यों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (१५) पहली नरक के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (१६) तिर्यश्च योनि की स्त्रियों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (१७) तिर्यश्च योनि वालों में के अनन्तरागत सिद्ध इनमे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (१८) अनुत्तरोपपातिक देवों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (१३) अवेयक देवों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (२०) अच्युत देवलोक के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (२१) आरण देवलोक के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (२२) प्राणत देवलोक में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक है (२३) याणत देवलोक में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक है (२४) सहस्रार देवलोक में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (२५) महाशुक्र
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला देवलोक में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (२६) लान्तक देवलोक में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (२७) ब्रह्मदेवलोक में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक है (२८) माहेन्द्र देवलोक में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (२६) सनत्कुमार देवलोक में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (३०) ईशान देवलोक की देवियों में के अनन्तरागत सिद्ध उनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (३१) सौधर्म देवलोक की देवियों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं (३२) ईशान देवलोक की देवियों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक है (३३) सौधर्म देवलोक के देवों में के अनन्तरागत सिद्ध इनसे भी संख्यात गुणा अधिक हैं।
(नन्दी सूत्र टीका परम्परासिद्ध केवलज्ञानाधिकार) चौतीसवाँ बोल संग्रह ६७७-तीर्थंकर देव के चौतीस अतिशय (१) तीर्थङ्कर देव के मस्तक और दाढ़ी मूंछ के बाल बढ़ते नहीं हैं। उनके शरीर के रोम और नख सदा अवस्थित रहते हैं। (२) उनका शरीर स्वस्थ एवं निर्मल रहता है। (३) शरीर में रक्त मांस गाय के दूध की तरह श्वेत होते हैं। (४) उनके श्वासोच्छ्वास में पन एवं नीलकमल की अथवा पद्मक तथा उत्पलकुष्ट (गन्धद्रव्यविशेष) की सुगन्ध आती है। (५) उनका आहार और निहार (शौच क्रिया) प्रच्छन होता है। चर्मचक्षु वालों को दिखाई नहीं देता। (६) तीर्थकर देव के आगे आकाश में धर्मचक्र रहता है। (७) उनके ऊपर तीन छत्र रहते हैं।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग ६६ (6) उनके दोनों ओर तेजोमय (प्रकाशमय) श्रेष्ठ चवर रहते हैं। (8) भगवान के लिये आकाश के समान स्वच्छ, स्फटिक मणि का बना हुआ पादपीठ वाला सिंहासन होता है। (१०) तीर्थङ्कर देव के आगे आकाश में बहुत ऊँचा हजारों छोटी छोटी पताकाओं से परिमण्डित इन्द्रध्वज चलता है।
(११) जहाँ भगवान ठहरते हैं अथवा बैठते है वहां पर उसी समय पत्र पुष्प और पल्लव से शोभित, छत्र, वज, घंटा और पताका सहित अशोक वृक्ष प्रगट होता है।
(१२) भगवान् के कुछ पीछे मस्तक के पास अतिभास्वर (देदीप्यमान) भामण्डल रहता है।
(१३) भगवान् जहाँ विचरते है वहाँ का भूभाग बहुत समतल एवं रमणीय हो जाता है। (१४) भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ काँटे अधोमुख हो जाते हैं। (१५) भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ ऋतुएं सुखस्पर्श वाली यानी अनुकूल हो जाती हैं।
(१६) भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ संवर्तक वायु द्वारा एक योजन पर्यन्त क्षेत्र चारों ओर से शुद्ध साफ हो जाता है।
(१७) भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ मेघ आवश्यकतानुसार परस कर आकाश एवं पृथ्वी में रही हुई रज को शान्त कर देते हैं।
(१८) भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ जानुप्रमाण देवकृत पुष्पवृष्टि होती है । फूलों के डंठल सदा नीचे की ओर रहते हैं।
(१३) भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श,रस, रूप और गंध नहीं रहते।
(२०) भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध प्रगट होते हैं। (२१) देशना देते समय भगवान का स्वर अतिशय हृदयस्पशी
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और गरीबों का भला कर सकता है एवं सुपात्र को दान दे सकता है । उसकी बुद्धि सदा शुद्ध रहती है और वह धर्म की सम्पग् आराधना कर सकता है । इसलिये धार्मिक गृहस्थ को सदा नीति पूर्वक धन उपार्जन करना चाहिये ।
(२) शिष्टाचार प्रशंसक उत्तम क्रिया वाले ज्ञानवृद्ध पुरुषों की सेवा कर उनसे विशुद्ध शिक्षा पाने वाले पुरुष शिष्ट कहलाते हैं। शिष्ट पुरुष जिसका आचरण करते हैं वही शिष्टाचार कहलाता है । लोकापवाद से डरना, दीन दुखी का उद्धार करना, उपकारी - का कृतज्ञ रहना, दाक्षिण्य भाव रखना, निन्दा न करना, सज्जनों की प्रशंसा करना, आपत्ति में न घबराना, संपत्ति में विनम्र बने रहना, मौके पर परिमित भापण करना, विवाद न करना, कुलाचार का पालन करना, अपव्यय न करना, श्रेष्ठ कार्य का आग्रह रखना, 1. प्रमाद का परिहार करना इत्यादि गुणों का शिष्ट पुरुष सेवन करते हैं । गृहस्थ को उक्त शिष्टाचार की प्रशंसा करनी चाहिये । (३) समान कुल शील वाले अन्य गोत्रीय के साथ विवाह-गृहस्थ को अपनी जाति में समान चार वाले भिन्न गोत्रीय व्यक्ति के साथ आयु, स्वास्थ्य, स्वभाव, शिक्षा, धार्मिक विचार प्रतिष्ठा, आर्थिक स्थिति आदि का विचार कर विवाह सम्वन्ध करना चाहिये | हेमचन्द्राचार्य ने विवाह का फल सन्तान प्राप्ति, मानसिक शान्ति, घर की सुव्यवस्था, कुलीनता, आचार विशुद्ध. और देवता अतिथि तथा बन्धु का सत्कार बतलाया है। उन्होंने वधू रक्षा के चार उपाय कहे हैं-घर के काम काज में लगाये रखना, उसके पास परिमित पैसा रखना, अधिक स्वतन्त्रता न देना तथा माता के उम्र की सदाचारिणी वयोवृद्ध खियों के बीच रखना ।
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(४) पाप भीरु - कई पाप कर्म ऐसे हैं जिनका बुरा नतीजा आत्मा को यहीं पर भोगना पड़ता है जैसे जुआ, परस्त्रीगमन,
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चोरी आदि । मद्यपान, मांसभक्षण आदि पाप ऐसे हैं जिनका कुपरिणाम यहाँ नजर नहीं आता । किन्तु सभी पाप कर्मों का फल शास्त्रकारों ने नरकादि की यातना बतलाया है । अतएव गृहस्थ को सभी पाप कर्मों से डरना चाहिये ।
(५) प्रसिद्ध देशाचार का पालन- देश के विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा मान्य होकर जो खानपान, वेप आदि का आचार सारे देश में बहुत काल से रूढ़ हो गया है वही प्रसिद्ध देशाचार कहलाता है । गृहस्थ को प्रसिद्ध देशाचार के अनुसार ही अपना व्यवहार रखना चाहिये । उसका अतिक्रमण करने से देशवासियों के साथ विरोध की संभावना रहती है और उससे अकल्याण हो सकता है।
(६) श्रवर्णवाद त्याग - किसी को नीचा दिखाने के लिय उस के अवगुण कहना या उसकी निन्दा बुराई करना अवर्णवाद है । छोटे बड़े किसी प्राणी के अवर्णवाद का शास्त्रकारों ने निषेध किया है। अववाद करने वाले यहीं पर अनेक अपायों के भागी होते हैं । राजा, अमात्य आदि अधिकारी व्यक्तियों का तथा बहुमान्य पुरुषों का अवर्णवाद करने से धन का नाश होता है एवं प्राण भी खतरे में पड़ जाते हैं । परलोक में ऐसा करने वाला नीच गोत्र बाँचता है । स्थानांग सूत्र के पांचवें ठाणे में अरिहन्त, धर्म, संघ आदि के अवर्णवाद का फल दुर्लभवोधि कहा है । अतएव गृहस्थ को अववाद का त्याग करना चाहिये ।
(७) घर कहाँ और कैसा हो ? - रहने के लिए घर बनाने या किराये आदि पर लेने में गृहस्थ को इन बातों का ध्यान रखना "चाहिये । घर अधिक द्वार वाला न हो, घर की जगह शुभ हो, शल्यादि दोषों से रहित हो, घर न अधिक खुला हो न गुप्त ही हो और आसपास का पड़ोस अच्छा हो ।
: घर में अधिक द्वार होने से और घर के चारों ओर से एक दम
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वह महापुण्य का भागी होता है और स्वयं गुणों को प्राप्त करता है। (२२) प्रतिषिद्ध देश काल में न जाना - जिस देश और जिसकाल में जाने के लिये मना है उस देश और उस काल में गृहस्थको न जाना चाहिये । जाने से धर्म में बाधा हो सकती है, अनेक. तरह के कष्ट और चोर आदि के उपद्रव हो सकते हैं ।
(२३) बलाबल का ज्ञान - गृहस्थ को अपनी और पराये की शक्ति तथा द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा अपना पराया सामर्थ्य देखना चाहिये | इसी तरह उसे शक्ति और सामर्थ्य की न्यूनता. पर भी विचार कर लेना चाहिये । उक्त प्रकार से शक्ति, सामर्थ्य पर विचार कर जो कार्य किया जाता है उसमें सफलता मिलती है औरकर्त्ता का उत्तरोत्तर उत्साह बढ़ता है। इसका विचार किये बिना कार्य करने से सफलता नहीं मिलती । कर्त्ता का परिश्रम व्यर्थ जाता' है, उसे दुःख होता है और लोग भी उसका उपहास करते हैं ।
(२४) वृत्तस्थ ज्ञानवृद्धों की पूजा-अनाचार का त्याग करने वाले और आचार का सम्यक् रूप से पालन करने वाले महात्मा वृत्तस्य कहलाते हैं । गृहस्थ को वृत्तस्थ, ज्ञानी और अनुभवी पुरुषोंकी विनय भक्ति और सेवा करनी चाहिये । इनके सदुपदेश से आत्मा का सुधार होता है एवं ज्ञान और क्रिया की वृद्धि होती है ।
(२५) पोप्य पोषक - जिनका भरण पोषण करना गृहस्थ के लिये आवश्यक है वे पोप्य कहलाते हैं जैसे - माता, पिता, स्त्री, संतान, श्राश्रितजन (सगे सम्बन्धी, नौकर चाकर आदि) । गृहस्थ कोइनका पोषण करना चाहिये । उसे चाहिये कि वह उन्हें यथासम्भव इष्ट वस्तु की प्राप्ति करावे और हर तरह उनकी रक्षा करे ।
(२६) दीर्घदर्शी - दीर्घ काल में होने वाले अर्थ और अनर्थ का पहले से ही विचार कर कार्य करने वाला पुरुष दीर्घदर्शी, कहलाता है । बिना विचारे काम करने से अनेक दोष होते हैं ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग ८५ गृहस्थ को परिणाम (नतीजे) का विचार कर कार्य करना चाहिये।
(२७) विशेषज्ञ-गृहस्थ को सदा वस्तु अवस्तु, कार्य अकार्य और स्व पर का विवेक रखना चाहिये । उसे आत्मा में क्या गुण दोष हैं इनका भी विचार रखना चाहिये और गुणों की वृद्धि करने
और दोपों को दूर करने में निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिये । जो उक्त प्रकार का विवेक रखता है वही विशेषज्ञ कहलाता है। विशेषज्ञ मनुष्य ही जीवन में सफलता पाता है । अविशेषज्ञ का जीवन पशु जीवन से बढ़कर नहीं कहा जा सकता।
(२८) कृतज्ञ-गृहस्थ को सदा कृतज्ञ होना चाहिये। दूसरे लोग उसके साथ जो भलाई करें वह उसे सदा याद रखनी चाहिये और सदा उसका एहसानमन्द रहना चाहिये । समय आने पर उपकार का बदला भी देना चाहिये । कृतज्ञ व्यक्ति उत्तरोत्तर कल्याण प्राप्त करता है और लोगों में उसकी प्रशंसा होती है । उसकी सहायता के लिये सभी तैयार रहते हैं और उसका जीवन सुखी होता है।
(२६) लोक वल्लभ-विनय आदि गुणों द्वारा सभी लोगों का प्रिय हो जाना लोकवल्लभता है । यह साधारण गुण नहीं है। अनेक गुणों का अभ्यास करने के बाद इस गुण की प्राप्ति होती है। गुणवान् से सभी प्रसन्न होते हैं, निगुण से कोई नहीं । गृहस्थ को भी आत्म गुणों का विकास कर लोकवल्लभ वनना चाहिये । लोकवल्लभ व्यक्ति अपने कल्याण के साथ साथ दूसरों का कल्याण भी सहज ही साध सकता है।
(३०) सलज्ज-लज्जा दूसरे अनेक गुणों को जन्म देने वाली है। लज्जावान व्यक्ति चुरे कार्यों में कभी प्रवृत्ति नहीं करता। प्राण त्याग कर भी वह लिये हुए व्रत नियमों का निर्वाह करता है । गृहस्थ को सदा हृदय से लज्जा धारण करनी चाहिये।
(३१) सदय-दुःखी प्राणियों के दुःख दूर करने की इच्छाही
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दया है। दया धर्म का मूल है । विश्व के सभी धर्म इसी आधार पर स्थित हैं। सृष्टि का व्यवहार भी इसी के आश्रित है। गृहस्थ को सदा सभी प्राणियों के प्रति दया भाव रखना चाहिये । उनका दुःख दूर कर उन्हें सुख पहुंचाने का प्रयत्न करना चाहिये।
(३२) सौम्य-गृहस्थ को सदा सौम्य-शान्त स्वभाव रखना चाहिये । क्रूरता को अपने पाम फटकने भी न देना चाहिये । करता लोगों में उद्वेग-भय उत्पन्न करती है । सौग्य प्रकृति वाला सभी को प्रिय लगता है।
(३३) परोपकार कर्मठ-गृहस्थ को यथाशक्ति परोपकार, दूसरे का भला करना चाहिये । परोपकार के लिये गृहस्थ को धार्मिक
और व्यावहारिक शिक्षण संस्थाएं, पुस्तकालय, अनाथालय, अपंगाश्रम, विधवाश्रम, औषधालय, दानशाला, पशुपक्षियों का दवाखाना, पिंजरापोल आदि संस्थाएं खोलनी और चलानी चाहिये अथवा उनमें धन से सहायता देनी चाहिये तथा उनकी तन मन से सेवा करनी चाहिये । परोपकार महान् धर्म है । इससे बड़ी शान्ति, मिलती है और महापुण्य का वन्ध होता है। एक बार जिसका भला हो गया कि वह सदा के लिये उपकारी के हाथ बिक जाता है। गृहस्थ को उपकार का अवसर कभी न चूकना चाहिये । 'परोपकार जैसा पुण्य नहीं है और दूसरे को दुःख देने जैसा पाप नहीं है, यह अठारह पुराणों का सार है ऐसा महर्षि व्यास ने कहा है।
(३४) छःअन्तरंग शत्रुओं का त्याग करना-काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष छ; अन्तरंग अरि कहे गये हैं। गृहस्थ इनसे सर्वथा बच सकता है यह तो सम्भव नहीं है फिर भी अयुक्तिपूर्वक इनका प्रयोग करने से ये गृहस्थ के लिये अकल्याणकारी सिद्ध होते हैं । यथासंभव गृहस्थ को इनका त्याग करना चाहिये। । (३५)इन्द्रिय जय-यद्यपि सर्वथारूप से इन्द्रियनिग्रह करना गृहस्थ
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के लिये संभव नहीं है फिर भी उसे अपनी इन्द्रियों को स्वच्छन्द न छोड़ देना चाहिये । इन्द्रियों की स्वच्छन्दता और उनके विषय में अत्यन्त श्रासक्ति रखना अनेक अनर्थों का मूल है। इसलिये गृहस्थ को इन्द्रियों की स्वच्छन्दता का निरोध करना चाहिये एवं शब्द यादि विषयों के उपभोग में संयम रखना चाहिये ।
इन पैंतीस गुणों से युक्त गृहस्थ धर्म पालन के योग्य होता है।
(योगशास्त्र प्रथम प्रकाश ४७ से ५६ श्लोक )
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छत्तीसवाँ बोल संग्रह
६८१ - सूयगडांग सूत्र के नवें धर्माध्ययन की छत्तीस गाथाएं
सूयगडांग सूत्र के नवम अध्ययन का नाम धर्माध्ययन है । इसमें लोकोत्तर धर्म का वर्णन है । इस अध्ययन में ३६ गाथाएं हैं । भावार्थ क्रमशः नीचे दिया जाता है
(१) जीव हिंमा न करने का उपदेश देने वाले केवलज्ञानी भगवान् महावीरस्वामी ने कौन सा धर्म कहा है ? शिष्य के इस प्रश्न के उत्तर में गुरु कहते हैं - राग द्वेष के विजेताओं का मायाप्रपंचरहित सरल धर्म जैसा है पैसा मैं तुम्हें कहता हूँ । ध्यान पूर्वक सुनो !
(२ - ३) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल, बोक्कस (वर्णशंकर)ऐपिक (जीविका के लिये मृग हस्ती आदि तथा कन्द मूल फल आदि की और अन्य विपयसाधनों की गवेपणा करने वाले ), वैशिक (मायाप्रधान कला से निर्वाह करने वाले बनिये), शूद्र तथा अन्य नीच वर्ण के लोग, जो विविध प्रकार की विशेष हिंसकक्रियाओं से आजीविका करते हैं- ये सभी परिग्रह में गृद्ध हो रहे हैं और दूसरे जीवों के साथ वैर भाव बढ़ाते हैं । शब्द रूप आदि
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विषयों में प्रवृत्त होकर ये लोग जीव हिंसा के अनेक कार्य करते हैं। इसलिए ये दुःख से, कर्म से छुटकारा नहीं पाते ।
(४) मृत सम्बन्धी के दाह संस्कार आदि क्रियाकर्म करके विषयलोलुप स्वजन तथा अन्य जाति के लोग उसके दुःख से कमाये हुए धन के स्वामी बन कर मौज करते हैं । किन्तु पाप कर्मों से धन संचय करने वाला वह व्यक्ति अपने अशुभ कर्मों के फलस्वरूप अनेक दुःख भोगता है ।
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(५) माता, पिता, भाई, स्त्री, पुत्र, पुत्रवधू तथा अन्य स्वजन सम्बन्धी - कोई भी अपने अशुभ कर्मों का फल भोगते हुए प्राणी की दुःख से रक्षा नहीं कर सकते ।
(६) स्वजन सम्बन्धी स्वार्थी हैं, ये प्राणी को दुःख से छुड़ाने में समर्थ हैं। इसके विपरीत सम्यग्दर्शन आदि जीव को सदा के लिये दुःख से मुक्त कर मोक्ष प्राप्त कराने वाले हैं। यह जान कर साधु को ममता एवं भाव का त्याग करते हुए जिनोक्त संयम मार्ग का आचरण करना चाहिये ।
(७) संसार की वास्तविकता जानने वाले आत्मा को चाहिये कि वह धन, पुत्र, ज्ञाति और परिग्रह को छोड़ दे । कर्म बन्ध के आन्तरिक कारण मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कपाय आदि का भी उसे त्याग कर देना चाहिये और धन धान्य पुत्र आदि की अपेक्षा न करते हुए उसे संयमानुष्ठान का पालन करना चाहिये ।
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(८) पृथ्वीकाय, अष्काय, निकाय, वायुकाय, वृण वृक्ष बीज रूप वनस्पतिकाय और त्रसकाय ये छः काय हैं । अण्डज, पोतम, जरायुज, रसज, संस्वेदज और उद्भिज-ये सकाय के भेद हैं ।
(६) विद्वान् पुरुष को छः काय के इन जीवों का स्वरूप जान कर मन वचन काया से इनकी हिंसा छोड़ देनी चाहिये । आरम्भ परिग्रह में हिंसा होती है, इसलिये इनका भी त्याग करना चाहिये ।
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(१०) मृपावाद, मैथुन परिग्रह और अदत्तादान - ये प्राणियों को सन्ताप-कष्ट देने वाले हैं अतएव शस्त्र रूप हैं तथा कर्म-बन्ध के कारण हैं । विद्वान् पुरुष को इनका स्वरूप जान कर इन्हें हेय समझ कर छोड़ देना चाहिये ।
(११) माया, लोभ, क्रोध और मान ये चारों कपाय लोक में कर्मबन्ध के कारण हैं । इनके दुष्परिणाम को जानकर समझदार पुरुष को इनका त्याग करना चाहिए ।
(१२) हाथ, पैर, वस्त्र आदि को धोना और रंगना, वस्तिकर्म यानी एनिमा लेना, जुलाब लेना, श्रपधि द्वारा चमन करना, आँखों में अंजन लगाना ये तथा शरीर संस्कार के ऐसे ही अन्य साधन संयम की घात करने वाले हैं । इनके दुर्विपाक को जान कर विद्वान् साधु को इनका सेवन न करना चाहिए ।
(१३) गन्ध, फूलमाला, स्नान, दंतधावन, सचिचादि का परिग्रह, स्त्री, हस्तकर्म या सावधानुष्ठान-इन्हें मंयम का घातक एवं पापकर्म का कारण जानकर विद्वान मुनि को छोड़ देना चाहिए ।
(१४) जो आहार गृहस्थ द्वारा साधु आदि के उद्देश से बनाया गया हो, साधु के निमित्त खरीदा या उधार लिया गया हो, साधु के लिए सामने लाया गया हो तथा जिसमें श्रधाकर्मी का अंश मिला हो या अन्य दोषों से दूषित होने के कारण अनेपणीय हो विद्वान मुनि को उसे, संसार का कारण जान कर, न लेना चाहिए ।
(१५) हृष्ट पुष्ट और बलवान बनने के लिए रसायन आदि का सेवन करना, शोभा के लिए आँखों में अञ्जन लगाना, शब्दादि विषयों में गृद्ध रहना तथा जीव हिंसाकारी कार्य करना, जैसे हाथ पैर धोना, उबटन करना आदि इन सभी को कर्म बन्ध का कारण जान कर पण्डित मुनि को इनका त्याग करना चाहिए ।
(१६) असंयति के साथ सांपारिक वार्तालाप करना, असंयम के
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श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला कार्यों की प्रशंसा करना,संसार व्यवहार एवं मिथ्याशास्त्र सम्बन्धी प्रश्नों का तदनुसार यथावस्थित निर्णय देना अथवा आदर्शप्रश्न (दर्पण में देवता का आहान कर प्रश्न का उत्तर देना) आदि का कथन करना, शय्यातर का आहार लेना-इन्हें ज्ञपरिज्ञा से हेय जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से विद्वान् मुनि इनका त्याग करे । __ (१७) मुनि को चाहिये कि वह अर्थशास्त्र तथा अन्य हिंसकशास्त्र न सीखे और अधर्मप्रधान वचन न कहे । कलह तथा शुष्कचाद को संसारभ्रमण का कारण जान कर विद्वान् मुनि को उनका त्याग करना चाहिये । __(१८) जूते पहनना, छाता लगाना, जुआ खेलना, मयूरपिच्छादि के पंखों से हवा करना तथा आपस में कर्मवन्ध कराने वाली एक दूसरे की क्रिया करना-इन सभी को कर्मोपादान का कारण जान कर विद्वान मुनि को छोड़ देना चाहिये ।
(१६) मुनि को हरी वनस्पति वीज पर तथा शास्त्रोक्त स्थण्डिल के सिवाय अन्य स्थान पर टट्टी पेशाब न करना चाहिये । चीज हरित हटाकर अचित्त जल से भी उसे आचमन (शौच) न करना चाहिये।
(२०) साधु को गहस्थ के पात्र में न भोजन करना चाहिये और न पानी ही पीना चाहिये । इसी प्रकार वस्त्र न रहने पर भी उसे गृहस्थ के वस्त्र न पहनना चाहिये । गृहस्थ के पात्र एवं वस्त्र का उपयोग करने से पुरस्कर्म पश्चात्कर्म आदि अनेक दोषों की संमावना रहती है । अतएव इन्हें संसारपरिभ्रमण का कारण जान कर विद्वान् मुनि को इनका त्याग करना चाहिये । . (२१) अासन एवं पलंग पर बैठना, सोना, गृहस्थ के घर में अथवा दो घरों के बीच बैठना, गृह-थ से कुशल प्रश्न पूछना तथा पूर्व क्रीड़ा को याद करना ये सभी संयम की विराधना करने वाले एवं अनर्थकारी हैं। विद्वान् मुनि को इन्हें संसार बढ़ाने वाला
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जानकर इनका त्याग करना चाहिये ।
(२२) यश, कीर्ति, श्लाघा, वंदन पूजन तथा सकल लोक में इच्छा मदन रूप जो काम भोग हैं- ये सभी आत्मा का अपकार करने वाले हैं। विद्वान मुनि को इनसे अपनी आत्मा की रक्षा करनी चाहिये ।
(२३) जिस आहार पानी को लेने से संयम यात्रा का निर्वाह होता है ऐसा द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा शुद्ध आहार पानी साधु को लेना चाहिये तथा उसे दूसरे साधुओं को देना चाहिये । अथवा उसे संयम को असार बनाने वाला आहार पानी न लेना चाहिये न वैसा दूसरा ही कार्य करना चाहिये साधु को गृहस्थ, अन्यतीर्थी अथवा स्वयूधिक को संयमोपघातक आहार पानी आदि का दान न करना चाहिये । संयमघातक दोपों को संसार का कारण जान कर विद्वान् मुनि को उनका त्याग करना चाहिये ।
(२४) अनन्त ज्ञान दर्शन सम्पन्न निर्ग्रन्थ महामुनि श्री महावीर देव ने इस प्रकार फरमाया है। उन्हीं भगवान् ने श्रुत चारित्र रूप धर्म का उपदेश दिया है ।
(२५) रत्नाधिक (दीक्षा में बड़े) बातचीत करते हों तो साधु को बीच में न बोलना चाहिये । उसे मर्मकारी- दूसरे को दुःख पहुँचाने वाला वचन न कहना चाहिये । कपटभरी बात भी साधु को न कहनी चाहिये । किन्तु उसे पहले से ही खूब सोच विचार कर भाषासमिति का ध्यान रखते हुए बोलना चाहिये ।
(२६) मापा चार प्रकार की है- सत्य भाषा, असत्य भाषा, मिश्र भाषा और व्यवहार भाषा । इनमें से तीसरी मिश्र भाषा-असत्य मिश्रित सत्यभाषा साधु को न कहनी चाहिये, असत्य भाषा का तो कहना ही क्या ? वक्ता को ऐसी भाषा बोलने के बाद पीछे से दुःख एवं पश्चात्ताप होता है और जन्मान्तर में भी उसे कष्ट उठाना पड़ता है । सत्य या व्यवहार भाषा भी हिंसाप्रधान हो
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला या लोग उसे छिपाते हों तो साधु को न कहनी चाहिये। निर्ग्रन्थ भगवान महावीर देव की यही आज्ञा है ।
(२७) साधु को होला (निष्ठुर अपमान सूचक शब्द), सखा एवं गोत्र के नाम से किसा को न बुलाना चाहिए। तिरस्कार प्रधान कारे के शब्द भी उसके मुंह से कभी न निकलने चाहिये। अप्रियकारी और भी कोई वचन साधु को कतई न कहना चाहिये।
(२८) साधु को कुशील अर्थात् कुत्सित आचार वाला न होना चाहिये । कुशील पुरुषों के संसर्ग में भी उसे न रहना चाहिये। कुशील संसर्ग से संयम का नाश करने वाले सुखरूप अनुकूल उपसर्ग उत्पन्न होते हैं । विद्वान् मुनि कोइमसे होने वाली हानियों पर विचार कर इसका परित्याग करना चाहिये ।
(२६) वृद्धावस्था या रोगादिजनित आशक्ति के सिवाय साधु को गृहस्थ के घर न बैठना चाहिये। उसे गाँव के लड़कों का खेल न खेलना चाहिये एव साधुमर्यादा से बाहर हसना भी न चाहिये।
(३०) सुन्दर,मनोहर एवं प्रधान शब्दादि विषयों को देख कर या सुनकर साधु को उत्सुक न होना चाहिये । उसे भूल एवं उत्तरगुणों में यत्नशील रहते हुए संयम मार्ग में विचरना चाहिये । भिक्षाचर्या आदि में उसे सावधान रहना चाहिये एवं माहागदि सम्बन्धी गृद्धिभाव को दूर करना चाहिये । परीषह उपसर्गों के समुपस्थित होने पर वीरतापूर्वक उन्हें सहन करना चाहिये।
(३१) साधु को यदि कोई लाठी आदि से मारे तो उसे कुपित न होना चाहिये । दुर्वचन एव गाली सुन कर भी उसे प्रतिकूल वचन न कहना चाहिये । उसे अपना मन विकृत न करते हुए समभावपूर्वक बिना शोरगुल किये उपस्थित परीषहों को सहन करना चाहिये।
(३२) साधु को चाहिए कि वह प्राप्त कामभोगों को ग्रहण न करे और न तपोविशेष से प्राप्त लब्धियों का ही उपयोग करे । ऐसा,
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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, सातवा भाग
करने से उसके भावविवेक प्रगट होता है। उसे अनार्य कर्तव्यों का शग कर प्राचार्य महाराज के समीप रहते हुए ज्ञान दर्शन चारित्र का अभ्यास काना चाहिये।
(३३) जो स्व-पर-सिद्धान्त के जानकार हैं, वाह्य प्राभ्यन्तर तप का सम्यक् रूप से सेवन करते हैं ऐसे ज्ञानी एवं चारित्रशील गुरु महाराज की सेवा शुश्रूषा करते हुए उनकी उपासना करनी चाहिये । जो वीर अर्थात् कर्मों का विदारण करने में समर्थ हैं, आत्महित के अन्वेषक हैं एवं धैर्यशाली और जितेन्द्रिय हैं वे महापुरुष ही उक्त क्रिया का.पालन करते हैं।
(३४) गृहवास में श्रुत एवं चारित्र की प्राप्ति पूर्णरूप से नहीं होती ऐसा जान कर जो प्रवज्या धारण करते हैं एवं उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करते हैं वे पुरुष मुमुक्षुजनों के आश्रय योग्य होते हैं । बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त हुए वे वीर पुरुष असंयत जीवन की कभी इच्छा नहीं करते।
(३५) मुमुक्षु को मनोज्ञ शब्द रूप रस गन्ध और स्पर्श में आसक्त न होना चाहिये और न अमनोज्ञ शब्दादि से उसे द्वेष ही करना चाहिये । सावधानुष्ठानों में भी उम प्रवृत्ति न करनी चाहिये । इस अध्ययन में जिन बातों का निषेध किया गया है तथा अन्यतीर्थियों के दर्शनों में जो बहुत से अनुष्ठान कहे गये हैं वे सभी जैनदर्शन से विरुद्ध हैं। मुमुक्षु को उनका आचरण न करना चाहिये। __३६) विद्वान् मुनि को अतिमान और माया एवं उनके सहचारी क्रोध और लोभ का त्याग करना चाहिये।ऋद्धि, रस और साता गारव को संसार के कारण जान कर मुनि को उन्हें छोड़ देना चाहिये । कपाय और गारव का त्याग कर उसे मोक्ष की प्रार्थना करनी चाहिये।
(सूयगडांग प्रथम श्रुतस्कन्ध नवम अध्ययन).
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१ ।। श्री सेठिया जैन अन्यमाला में अरिहन्त ही सभी अर्थ बतलाने वाले हैं। इस प्रकार नमस्कार सत्र में जो सर्व प्रथम अरिहन्त को नमस्कार किया गया है वह सभी के लिये युक्त ही है। आचार्य तो अरिहन्त की सभा के सभ्य रूप हैं उन्हें अरिहन्त से पहले नमस्कार कैसे किया जा सकता है। (भगवती मंगलाचरण टीका) (विशेषावश्यक भाष्य गाथा ३२१०-३२२१) । (३) प्रश्न-नमस्कार उत्पन्न है या अनुत्पन्न ? यदि उत्पन्न होता है तो उसके उत्पादक निमित्त क्या हैं ? , उत्तर-नमस्कार की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सभी नय एकमत नहीं हैं। कोई नमस्कार को अनुत्पन्न (शाश्वत) और कोई उसे उत्पन्न मानते हैं । सर्वसंग्राही नैगम नय का विषय सामान्य है और वह उत्पाद और विनाश से रहित है इस नय के अनुसार सभी वस्तुएं सदा से हैं। न कोई वस्तु नई उत्पन्न होती है और न नष्ट ही होती है। इसलिये इस नय की अपेक्षा नमस्कार अनुत्पन्न है। मिथ्यादृष्टि अवस्था में भी यह नय द्रव्यरूप से नमस्कार का अस्तित्व मानता है। यदि ऐसा न माना जाय तो नमस्कार फिर उत्पन्न ही न होगा क्योंकि सर्वथा असत् वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती ।
शेष विशेषवादी नयों का विषय विशेष है और वह उत्पाद विनाश धर्म वाला है। इन नयों की अपेक्षा उत्पाद और विनाश रहित वस्तु वन्ध्यापुत्र की तरह असद्रूप है । इसलिये ये नय नमस्कार को उत्पन्न मानते हैं।
जो वस्तु उत्पन्न होती है उसके उत्पादक निमिच भी होते हैं। नमस्कार के तीन निमित्त हैं-समुत्थान (शरीर), वाचना और लब्धि । अविशुद्ध नैगम, संग्रह और व्यवहार-इन तीन नयों की अपेक्षा नमस्कार के ये तीन निमित्त हैं। ऋजुसूत्र नय वाचना और लन्धि दो ही निमित्त मानता है क्योंकि देह के होते हुए भी वाचना और लब्धि के अभाव में नमस्कार रूप कार्य की उत्पति
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नहीं होती। शब्द, समभिरुढ और एवंभूत नय केवल आवरण क्षयोपशम रूप लन्धि को ही नमस्कार का कारण मानते हैं क्योंकि लब्धिरहित अभव्य जीवों में वाचना का निमित्त मिल जाने पर भी नमस्कार रूप कार्य की उत्पत्ति नहीं होती।
उक्त नयों के मन्तव्यों के समर्थन और विरोध में विशेषावश्यक भाष्य में भनेक युक्तियाँ दी गई है। विशेष जिज्ञासा के लिये यह विषय वहाँ देखना चाहिये।
(विशेपावश्यक भाष्य गाथा २८०६ से २८३६) (४) प्रश्न-नमस्कार का खामी नमस्कारकर्ता है या पूज्य है ?
उत्तर--नमस्कार के स्वामित्व के सम्बन्ध में नयों के अभिप्राय जुदे जुदे हैं। नैगम और व्यवहार नय के अनुसार नमस्कार का खामी पूख्य आत्मा है । जैसे माधु को दी गई मिक्षा साधु की होती है पर दाता की नहीं होती। इसी प्रकार पूज्य को किया गया नमस्कार पूज्य का होता है परन्तु नमस्कार करने वाले का नहीं होता। जैसे रूपादि धर्म घट का स्वरूप बनलाने के कारण घट की पर्याय हैं इसी प्रकार नमस्कार भी पूज्य की पूज्यता बतलाता है इस लिये वह पूज्य की पर्याय है। कि पूज्य नमस्कार का हेतु है उसे देख कर भक्त में नमस्कार करने की भावना प्रगट होती है इस कारण भी नमस्कार पूज्य का ही है। नमस्कार करने वाला पूज्य का दामत्व स्वीकार करता है। इस दृष्टि से भी वह और उससे किया गया नमस्कार पूज्य ही के हैं।
संग्रह नय सामान्य मात्र को विपय करता है इस कारण वह जीव का नमस्कार, पूज्य का नमस्कार इत्यादि विशेषण रहित केवल सत्ता रूप नमस्कार को स्वीकार करता है। इसलिये यह नय स्वामित्व का विचार ही नहीं करता। 'ऋजुसूत्र के अनुसार नमस्कार उपयोगात्मकमान रूपमा
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'अरिहन्त को नमस्कार हो' इस प्रकार शब्द रूप अथवा मातक काने आदि क्रिया रूप है । ये ज्ञान शब्द और क्रिया नमस्कारकर्त्ता के गुण हैं इसलिये नमस्कार भी उभी का है । नमस्कार करना कर्त्ता के अधीन हैं, इस कारण भी वह उसी का है । नमस्कार का स्वर्गाद फल नमस्कार करने वाले को प्राप्त नमस्कार कारक कर्मों का क्षयोपशम भी उसी के इसलिए नमस्कार का स्वामी भी वही है ।
होता है, होता है
शब्द सममिरूद और एबंधूत नय के अनुसार उपयोग रूप ज्ञान ही नमस्कार है किन्तु वे शब्द और क्रिया रूप नमस्कार नहीं मानते । ज्ञान रूप उपयोग का स्वामी नमस्कार कर्त्ता है इसलिये इन नयों के अनुसार नमस्कार का स्वामी भी वही है ।
(विशेषावश्यक भाष्य २८०० से २८१२) (५) प्रश्न - तीर्थङ्कर दीक्षा लेते समय किसे नमस्कार करते हैं ? उत्तर - तीर्थङ्कर देव दीक्षा लेते समय सिद्ध भगवान् को नमस्कार करते हैं । श्राचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावनाध्ययन में भगवान् महावीर की दीक्षा के सम्बन्ध में यह पाठ है
तओ णंसमणे जाव लोयं करिता सिद्धाणं णमुक्कारं करेह, करिता सव्वं मे अकरणिज्जं पार्व कम्मं ति कट्टु सामाइयं चरितं पडिवज्जइ ।
भावार्थ - इसके पश्चात् श्रमण भगवान् यावत् लोच करके मिद्ध भगवान् को नमस्कार करते हैं और सभी पाप कर्मों का त्याग कर सामायिक चारित्र अंगीकार करते हैं ।
इसी प्रकरण में हरिभद्रीयावश्यक में यह गाया हैकाऊण णमुक्कारं सिद्धाणमभिग्गहं तु से गिण्हे । सव्वं मे अकरणिज्ज पावं ति चरितमारूढो ॥ भावार्थ सिद्धों को नमस्कार कर वे श्रभिग्रह लेते हैं कि सभी
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग १०३ पापों का मुझे त्याग है इस प्रकार भगान् ने चारित्र स्वीकार किया।
(६) प्रश्न- क्या परमावधिज्ञानी चरमशरीरी होते हैं ? उत्तर-भगवती सूत्र के सातवें शतक के सात, उद्देशे में परमावधिज्ञानी को चरमशरीरी बतलाया है। परमावधिज्ञानी के लिये सूत्रकार ने 'तेणेव भवग्गहणेण सिभित्तए जाव अंतं करेत्तए' कहा है अर्थात् वह उसी भव में सिद्ध होता है यावत् कर्मों का अन्त करता है। भगवती सूत्र के अटारहवें शतक के आठवें उद्देशे में टीका में कहा है कि परमावधिज्ञानी अवश्य ही अन्तर्मुहत में केवलज्ञान प्राप्त करता है।
(७) प्रश्न-किसी विषय की शंका होने पर अनुत्तर विमानवासी देव किस को पूछते हैं और कहाँ से ?
उत्तर-अनुत्तरविमानवासी देव शंका उत्पन्न होने पर अपने विमान से ही यहाँ रहे हुए केवनी से पूछते हैं और केवली जो समाधान देते हैं उसे वे वहीं से जान लेते हैं। भगवती सूत्र के पाँचवें शतक चौधे उद्देशे में इस विषय में प्रश्नोत्तर हैं। भावार्थ इस प्रकार है:
प्रश्न हे भगवन् ! क्या अनुत्तरोपपातिक देव वहीं रहते हुए यहाँ रहे हुए केवली के साथ मानसिक) आलाप संलाप कर सकते हैं ? उ० हाँ, कर सकते हैं। प्र० हे भगवन् ! यह किस तरह ? उ० हे गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देव अपने स्थान पर रहे हुए ही अर्थ, हेतु. प्रश्न, कारण अथवा व्याकरण पूछते हैं और यहाँ रहे हुए केवली उनका उत्तर देन हैं इस प्रकार वे देवता आलाप संलाप कर सकते हैं। प्र. हे भगवन् ! केवली जो उत्तर देते हैं उसे अनुत्तरविमानवासी देव क्या वहीं रहते हुए जानते देखते हैं ? उ० हां, जानते देखते हैं। प्र० हे भगवन् ! अनुत्तरविमान के देव अपने विमान से ही केवली द्वारा दिये गये उत्तर कैसे जानते और देखते हैं १3० हे गौतम । अनन्त मनोद्रव्यवगणाएं उन देवताओं के अधिज्ञान का विषय होती हैं और सामान्य ता विशेष रूप
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.१.४ , श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला से ज्ञात होती हैं । इस कारण वे अपने विमान से ही, केवली जो उत्तर देते हैं उसे जानते और देखते हैं। ___टीकाकार ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि अनुत्तरविमानवासी देवों का अवधिज्ञान सकल लोकनाड़ी को विषय करता है और इसलिये उससे मनोद्रव्य वर्गणाएं भी जानी जा सकती हैं । लोक के संख्यात भाग को विषय करने वाला अवधि भी मनोद्रव्यग्राही माना गया है तो सकल लोकनाड़ी को जानने वाला अवधिज्ञान मनोद्रव्य वर्गणाएं ग्रहण करे, इसमें क्या विशेषता है ? . इस प्रकार अनुत्तरविमानवासी देव मनोद्रव्य को ग्रहण करने वाले अवधिज्ञान द्वारा अपने विमान से ही केवली के उत्तर जानते हैं।
(c) प्रश्न-मनःपर्ययज्ञान का विषय क्या है ? - उत्तर-मनःपर्ययज्ञान का विषय द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से चार प्रकार का कहा गया है । द्रव्य की अपेक्षा मनापर्ययज्ञानी संज्ञी जीवों के, काययोग से ग्रहण कर मनोयोग द्वारा मन रूप में परिणत हुए मनोद्रव्य को जानता है । क्षेत्र की अपेक्षा वह मनुष्य क्षेत्र के अन्दर रहे हुए संज्ञी जीवों के उक्त मनोद्रव्य जानता है। काल की अपेक्षा वह मनोद्रव्य की पर्यायों को भूत और भविष्य काल में पन्योपम के असंख्यात भाग तक जानता है। भाव की अपेक्षा मनःपर्ययज्ञानी द्रव्यमन की चिन्तनपरिणत रूपादि अनन्त पर्यायों को जानता है। परन्तु भावमन की पर्याय मनःपर्ययज्ञान का विषय नहीं है । भावमन ज्ञानरूप है और ज्ञान अमूर्त है इसलिए वह छमस्थ के ज्ञान का विषय नहीं है । मनःपर्ययज्ञानी चिन्तन परिणत द्रव्यमन की पर्यायों को साक्षात् जानता है किन्तु चिन्तन की विषयभूत घटादि वस्तुओं को वह मनःपर्ययज्ञान द्वारा साक्षात् नहीं जान सकता। मनोद्रव्य की पर्याय को जानकर वह अनुमान करता है-चूँ कि मनोद्रव्य इस प्रकार विशिष्ट रूप से
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१०५ परिणत हुए हैं इसलिए इनकी चिन्तनीय वस्तु यह होनी चाहिए। इस प्रकार अनुमान द्वारा वह चिन्तनीय घटादि वस्तुएं जानता है। ( विशेषावश्यक भाष्य गाथा ८१० से ८१४ )
(E) प्रश्न - शास्त्रों में मन:पर्ययदर्शन नहीं कहा गया है, फिर नन्दी सूत्र में मन:पर्ययज्ञान के वर्णन में सूत्रकार ने 'अनन्तप्रदेशी स्कन्ध जानता है और देखता है' यह कैसे कहा ?
उत्तर - मन:पर्ययज्ञान विशिष्ट क्षयोपशम से होने के कारण वस्तु को विशेष रूप से ही ग्रहण करता है पर सामान्य रूप से ग्रहण नहीं करता। यही कारण है कि मनःपर्ययदर्शन नहीं माना गया है।' नन्दी सूत्र की टीका में टीकाकार ने सूत्रकार के 'देखता है' शब्दों का स्पष्टीकरण इस प्रकार किश है --
मन:पर्ययज्ञानी मनोद्रयों द्वारा चिन्तित घटादि साचात् नहीं जानता किन्तु यदि ये पदार्थ चिन्तन के विषय न होते तो मनोद्रव्यों की इस प्रकार विशिष्ट परिणति नहीं होती' इस प्रकार अनुमान द्वारा जानता है और वहाँ मनःकारणक चनुदर्शन होता. है । इस यचदर्शन की अपेक्षा सूत्रकार ने 'मन:पर्ययज्ञानी देखता है' इस प्रकार कहा है । यही बात चूर्णिकार ने भी कही है
मुणियत्वं पुण पञ्चखओ न पेक्खड़, जेण मणोदव्वालेवणं मुत्तममुत्तं वा, सो य छउमत्थो तं अणुमाणओ पेक्खड़, अओ पासणिया भणिया ।
भावार्थ - मन:पर्ययज्ञानी चिन्तित अर्थ को प्रत्यक्ष से नहीं देखता है क्योंकि मोद्रव्य का विषय मूर्त अथवा अमूर्त होता है । मनः पर्यज्ञान है इसलिये वह उसे अनुमान से देखता है इसीलिये मन:पर्ययज्ञानी के लिये देखना कहा गया है ।
विशेषावस्यक भाष्य में भी इसका स्पीकरण इसी प्रकार किया गया है | जैसे कई याचायों के मत से श्रुतज्ञानी अत्रदर्शन'
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श्री सेठिया जन ग्रन्थमाला से देखता है उमी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी भी अचनुदर्शन द्वारा देवता है। मनःपर्ययज्ञानी घटादि अथ का चिन्तन करते हुए व्यक्ति के मनोद्रव्य मनःपर्ययज्ञान द्वारा साक्ष त् जानता है और उसके बाद उसके मानस अचतुदर्शन उत्पन्न होता है और उसके द्वाग वह उन्हीं का विकल्प करता है । इस श्रचनुदर्शन की अपेक्षा ही यह कहा जाता है कि मनःपर्ययज्ञानी देखता है। , नन्दी सूत्र के टीकाकार ने इसका दूसरी तरह से भी स्पष्ट करण किया है। सामान्य रूप से क्षयोपशम के एकरूप होने पर भी बोच में द्रव्यों की अपेक्षा क्षयोपशम के विशेप होने का सम्भव है। इसनिये अनेक तरह का उपयोग हो सकता है। जैसे इसी मनःपर्ययज्ञान में ऋजुमति विपुलमति रूप दो तरह का उपयोग है । यही कारण है कि मनोद्रव्य के विशिष्टतर आकार के ज्ञान की अपेक्षा मनःपर्ययज्ञानी के लिये 'जानता है' यह कहा जाता है और मनोद्रव्य के सामान्य आकर को जानने की अपेक्षा 'वह देवता है। इस प्रकार कहा जाता है । इस प्रकार मनोद्रव्य के विशिष्टतर ग्राकारज्ञान की अपेक्षा मनोद्रव्य का मामान्य श्राकार का ज्ञान व्यवहार से दर्शन कहा गया है. वास्ता में तो यह भी ज्ञान ही है। यही कारण है कि सूत्र में चार ही प्रकार का दर्शन कहा गया है. पाँव प्रकार का नहीं । वास्तव में मनःपयं यदशन सम्भव नहीं है।
नोट-विशेपावश्यक माष्य में इस सम्बन्ध में और भी मन्तव्य दिये हैं जैसे मनःपर्ययज्ञानी अवधिःशन से दखता है. विभंगदर्शन जैसे अवधिदर्शन में अतर्भूत है वैसे मनःपर्ययदर्शन भी अबाधदर्शन में अन्तर्भूत है यादि । पर ये मन्तव्य सिद्धान्त सम्मत नहीं हैं। (नन्दी सूत्र टीका मनायज्ञ नाधिकार) (विशेरावश्यक भाप्प गाथा ८१५)
(१०) प्रश्न यदि इन्द्रिय और मनःकारण सामान्य अर्थ को विषय करने वाला ज्ञान दर्शन है, तो फिर चक्षुदर्शन और
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चतुदर्शन ये दो ही भेद कैसे किये हैं ? चक्षु की तग्ध श्रोत्र यदि इन्द्रियाँ भी दर्शन में कारण हैं और इस प्रकार पाँच इन्द्रिय और मन से होने वाले छः दर्शन होते हैं न कि दो ही ।
उत्तर- वस्तु मामान्य विशेष रूप होती है। कहीं उसका मामान्य रूप से कथन होता है और कहीं विशेष रूप से । यहाँ चक्षुदर्शन विशेष रूप से और अक्षुदर्शन सामान्य रूप से कहा गया है । इन्द्रिय के प्राप्यकारी और श्रापकारी दो भेद मान कर, इनसे होने वाले दर्शन के भी ये दो भेद किये गये हैं और इसलिये अन्य प्रकार से कहना सम्भव नहीं है । यद्यपि मन अप्राप्यकारी है किन्तु मन का अनुसरण करने वानी प्राप्यकारी इद्रियाँ बहुत हैं इसलिये मन विषयक दर्शन भी अनुदर्शन शब्द से ग्रहण किया गया है । (भगवनी सूत्र पहला शक तीसरा उद्देशा टीका)
(११) प्रश्न- सामायिक से ही सभी गुण प्राप्त हो जाते हैं फिर सर्वविरतिरूप सामायिक वाले को पोरिसा आदि के प्रत्याख्यानों की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर - सर्वाविरतिरूप सामायिक वाले को भी अप्रमाद की वृद्धि के लिये पोरिसी आदि प्रत्याख्यान करना चाहिये। कहा भी है- सामाइए विहु सावज्जचागरूवे उ गुणकरे एवं । अप्पमायवुढि जणगत्तणेण आणाओ विष्णेयं ॥
भावार्थ - सावद्यत्याग रूप सामायिक होने पर भी ये पोरिसी यादि के प्रत्याख्यान गुणकारी हैं क्योंकि ये अप्रमाद को बढ़ाने वाले हैं | ऐसा भगवान् की आज्ञा से समझना चाहिए ।
भगवती सूत्र पहला शतक तीसरा उद्देशा टीका)
(१२) प्रश्न- क्या साधु के सत्यवचन में विवेक होना चाहिये ? उत्तर - सूत्रकृताङ्ग सूत्र के वीरस्तुति नामक छठे अध्ययन में कहा गया है - 'सच्चे वा अवज्जं वयंति' अर्थात् सत्य वचन
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१० . श्री सैठिया जैन अन्धमाला' में भी दूसरों को दुःख न पहुंचाने वाला निरवध वचन प्रधान है। साधु को सावध सत्य का त्याग कर निरवध सत्य कहना चाहिये। प्रश्नव्याकरण सूत्र के दूसरे संवर द्वार में सत्य की महिमा कह कर आगे यह बतलाया है कि ऐसा सत्य न कहना चाहिये जो संयम में थोड़ा सा भी बाधक हो । जिन वचनों से प्राणी की हिंसा होती हो ऐसे वचन साधु को न कहना चाहिये । काणे को काणा, चोर को चोर. कहने से सामने वाले को दुःख होता है इसलिये ऐसा पापकारी सावध सत्य भी न कहना चाहिये । चारित्र का विनाश क ने वानी स्त्री आदि की विकथाएं भी उसे न करनी चाहिये । व्यर्थ का वाद और क तह तथा अनार्य वचनों का प्रयोग भी उसे न करना चाहिये । अपवाद (दूसरे के दूपण प्रगट करना) और विवाद करना साधु के लिये मना है। दूसरे की विडम्बना करने चाले तथा बल एवं दिठाई प्रधान वचन साधु को टालना चाहिये एवं निर्लज्ज तथा निन्दनीय शब्दों का व्यवहार न करना चाहिये। जो बात अच्छी तरह से देखी सुनी और जानी न हो वह भी साधु को न कहनी चाहिये । अपनी प्रशंसा और दूसरे की निन्दा भी न करनी चाहिये । जाति, कुल, बल, रूप, श्रुत, दान, धर्म आदि की अपेक्षा दूसरे की हीनता प्रगट हो ऐसे दुःखकारी शब्द मी साधु को न करना चाहिये ।
(१३) प्रश्न-क्या साधु के लिये ग्लान साधु की सेवा करना आवश्यक है या उसकी इच्छा पर निर्भर है ? उचर-चैयावृत्त्य आभ्यन्तर तप है। भगवती सूत्र के पचीसवें शतक के सातवें उद्देशे में वैयावृत्त्य के दस प्रकार दिये हैं उनमें एक प्रकार ग्लान की चैयावृत्त्य का है । ओपनियुक्ति में ग्लान द्वार में कहा है कि 'कुज्जा गिलाणगस्स उ पढमालिस जाव वहिगमणं' अर्थात् ज्यों ही साधु प्रथम मिना लाने यावत् बाहर जाने में समर्थ हो जाय
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कि ग्लान साधु की सेवा करे । इसी ग्रन्थ में आगे कहा है कि साधु को सभी प्रयत्नों से ग्लान साधु की सेवा करनी चाहिये । जइतापासत्यो सणकु सीलनिहवगाणंवि देसिअं करणं । चरणकरणालसाणं सम्भाव परंमुहाणं च ॥ ४८ ॥ किं पुग जगणाकाणुज्ञयाण दंनिंदिआण गुन्ताणं । संविग्गविहारीणं सव्वपयतेण कायव्वं ॥ ४९ ॥
भावार्थ - जब चरण करण में प्रसादाचरण करने वाले सद्भावविमुख पार्श्वस्य, अवसन्न. कुशील और निह्नयों की वैयावृत्य करने के लिये भी कहा गया है तो फिर यतना में सावधान, जिनेन्द्रिय, मन वचन काया का गोपन करने वाले उद्यतविहारी मोक्षामिलापी साधु की वैयावृत्य तो सभी प्रपत्त करके करना ही चाहिये ।
इससे यह स्पष्ट है कि ग्लान साधु की सेवा करना मुनि के लिये आवश्यक है पर जब हम देखते हैं कि शास्त्रकारों ने वैयानुच्य न करने या उसकी उपेक्षा करने से अनेक दोष एवं प्रायश्चित्त बतलाये हैं तो यह सिद्ध होता है कि यह आवश्यक कर्त्तव्य है और शास्त्रकारों ने उसे मुनि की इच्छा पर नहीं छोड़ा है ।
बृहत्कल्पसूत्र के नियुक्ति भाष्य में जान की बात सुन उसकी वैयावृत्य न कर उसे टालने की इच्छा वाले साधु के लिये यह कहा हैसोऊण उ मिला उमगं गच्छ पडिवहं वावि । मरगाओ वा मर्ग संक्रमइ आणमाईणि ।। १८७१ ॥
भावार्थ - जो साधु खगच्छ या परगच्छ में किसी साधु की ग्लानावस्था का हाल सुन कर (वैयावृत्य से बचने के ख्याल से ) व की ओर जाने वाला रास्ता ग्रहण करता है
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रास्ते से आया उसी तरफ वापिस लौट जाता है अथवा एक रास्ता छोड़ कर दूसरे मार्ग से जाने लगता है उसे अज्ञा, अनवस्था, fornia और विराधना दोप लगते हैं ।
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भी सैठिया जैन ग्रन्थमाली - इतना ही नहीं बल्कि सेवा न होने से ग्लान साधु को जो परिताप आदि होते है उनके लिये भी वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। सोऊग ऊ गिलाणं पंथे गामे य भिरखवेलाए । जइ तुरियं नागच्छा लग्गइ गरुए स चउम्मासे॥१८७२॥
भावार्थ-रास्ते में ज ते हुए, गाँव में प्रवेश करते हुए अथवा गोचरी में फिरते हुए माधु को यदि किसी मुनि की ग्लानावस्था की सूचना मिले और वह तुरन्त ही उसके पास न पहुँचे तो उसे गुरु चौमासी प्रायाश्चत्त अाता है।
सधु की ग्लानावस्था की खबर पाकर जो साधु उसकी उपेक्षा करता है उसे भी प्रायश्चित्त बतलाया है।। जो उ उवेह कुज्जा लग्गइ गुरुए सवित्थारे ॥१८७५॥ __ जो साधु की ग्लानता सुन कर भी उसकी उपेक्षा करता है उसे सविस्तः गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। __उत्तगध्ययन सूत्र के छब्बीसवें समाचारी अध्ययन में साधु की दिनचर्या वतलाई है। उसमें वैयावृत्त्य विषयक जो गाथाएं दा हैं उनस भी यहा मालूम होता है कि वैधावृत्य साधु के लिये आवश्यक वत्तव्य है और स्वाध्याय से भी प्रधान है । गाथाएं इस प्रकार हैंपुश्विल्लभि चउत्भएर, आइचम्मि समहिए । भंडयं पडिलेहित्ता, बंदित्ता य तओ गुरुं ।। पुच्छिजा पंजडिओ, किं कायव्वं मए इहं । इच निओइड भैते, वेयावच्चे व सज्झाए । वेयावचे निउत्तणं, कायब्वमगिलायओ ॥ ___ भावार्थ सूर्योदय होने पर पहली पहर के चौथे भाग में वस्त्रपात्रादि की प्रतिलेखा करे और गुरु यो वन्दना करके हाथ जोड़ कर यह पूछे कि भगवन् ! मुझे क्या करना चाहिये ? आप चाहे वो मुझे वैयावृत्य में लगा दीजिये अथवा स्वाध्याय में गुरुदेव.
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श्री जैन सिद्धान्त गोल संग्रह, सातवां भाग द्वारा वैयावृत्त्य में नियुक्त किये जाने पर साधु को ग्लानिभाव का त्याग कर वैयावृत्त्य करनी चाहिये ।
वैयावृत्त्य करना साधु के लिये जितना आवश्यक है उसका उतना ही अधिक माहात्म्य भी है। उत्तराध्ययन मा के उनत सवें अध्ययन में यावृत्य का फल बतलाते हुए कहा हैवेयावचेण भंते ! जीवे कि जणयइ ? तित्थयरनामगोतं कम्मं निवन्धइ ।
हे भगवन् ! यावृत्य से जी को क्या फल होता है ? वैगवृत्त्य से जीव तङ्का गांत्र बाँधता है ।
श्रेघानयुक्ति के टीकाकार ने गाश ६२ की टीका में ग्लान साधु की सेवा की महत्ता दिख ने के लिये यह गाथा उद्धृत की हैजो गिलाणं पडियरइ, सो ममं पडियरइ । जो ममं पडियग्इ, सो गिलाणं पडियरई ॥
अर्थ- भगवान् कहते हैं जो ग्ल'न माधु की सेवा करता है बह मेग सेवा करता है और जो मेरी सवा करना है व: ग्लान साध की सेवा करता है।
सा युकिक लघु भाष्य वृत्तिक वृहत्कल्प सूत्र में ग्लान की सेवा के सम्बन्ध में बहा हैतित्थाणुसजणा खलु भत्ती य कया हवड एवं ॥१८७८॥
भावार्थ-इम प्रकार ग्लान और उमकी वैयावृत्त करने वाले साधुओं की वैयावृत्य करने से तीर्थ की अनुवर्तना होत है और तीर्थक देव की भक्ति होत है । वृतिका ने ग्लानसेवा की महिमा दिखाने के लिये यह उद्धरण दिया है--
जो गिलाणं पडियरइ से मनं णाणेण सणेणं चरित्तेण पडिवज्जइ ।
अर्थ-जो ग्लान की सेवा करता है वह मुझे ज्ञान दर्शन चारित्र
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थी से डिश जैन मन्थमाला
द्वारा प्राप्त करता है। • इससे स्पष्ट है कि ग्लान साधु की सेवा परिचर्या तीर्थङ्कर देव की भक्ति के बराबर है और इससे ज्ञान दर्शन चारित्र की धाराधना होकर भगवान् की आज्ञा की आराधना होती है।
वैयावृत्य की महत्ता दिखाने के लिये श्रोधनियुक्तिकार की दो गाथाएं उद्धृत की जाती हैं-- वेयावचं निययं करेह, उत्तर गुणे धरिताणं । सव्वं किल पडिवाई, यावच्च अपडिवाई ॥५३२॥ पडिभग्गस्स मयस्स वा, नासइ चरण सुर्य अगुणाए । न हु वेयावञ्चचिअं, सुहोदयं नासए कस्म ॥५३३ ।।
भावार्थ-उत्तम गुण धारण करने वाले साधुओं की निन्तर वैयावृत्य करो । सभी प्रतिपाती हैं किन्तु वैयावृत्त्य अप्रति गाती है। संयम से गिर जाने एवं मृत्यु होने पर चारित्र नष्ट हो जाता है। नहीं फेरने से शास्त्र ज्ञान विस्मृत हो जाता है किन्तु चैयावृत्त्य से अर्जित शुभ फल देने वाले कर्मों का कभी विनाश नहीं होता। ' (१४) प्रश्न-विजय आदि चार अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हुआ जीव क्या नरक तिर्यश्च के भव करता है ? • उत्तर-प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें पद के दूसरे उद्देशे की टीका में कहा है कि विजय वैजयन्त जयन्त और अपराजित विमानों में उत्पन्न हुआ जीव वहाँ से निकल कर कभी भी नरक तिर्यश्च में तथा व्यन्तरं एवं ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न नहीं होता। केवल मनुष्य और सौधर्म आदि वैमानिक देवों में ही जाता है। टीका यह है-- - इह विजयादिषु चतुएं गतो जीवो नियमात् तत उवृत्तो न जातुचिदपि लैरयिकादि पञ्चेन्द्रियतिर्यक् पर्यवसानेषु तथा व्यन्तरेषु ज्योतिष्लेषु च मध्ये समागमिष्यति तथाखाभाव्यात, मनुष्येषु सौधर्मादिधुं चागमिष्यति ।
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श्री.जन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग ११३ __भावार्थ-विजयादि चार अनुत्तरविमानों में गये हुए जीव के लिये यह नियम है कि वह वहाँ से निकलकर स्वभाव से ही नरक से लेकर तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय तक तथा व्यन्तर ज्योतिषी देवों में कभी नहीं आवेगा पर मनुष्य तथा सौधर्मादि विमानों में आवेगा ।
(१५) प्रश्न-अभव्य जीव ऊपर कहाँ तक उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर-अमन्य जीव ऊपर नवग्रेवेयक तक उत्पन्न होते हैं । प्रवचनसारोद्धार १६० द्वार में कहा है कि मिथ्यादृष्टि भव्य एवं अभव्य जीव जिनोक व्रत, अष्टमादि उत्कृष्ट तप तथा प्रतिलेखनादि दैनिक क्रियाओं का आचरण कर उत्कृष्ट ग्रैवैयक तथा जघन्य भानपति देवों में उत्पन्न होते हैं। चारित्र परिणाम से रहित होने के कारण उक्त अनुष्ठान करते हुए भी ये जीव असंयती ही हैं। भगवती सूत्र के पहले शतक के दूसरे उद्देशे में देवत्व योग्य असंयती जीवों की उत्पत्ति जघन्य भवनपति उत्कृष्ट ऊपर के ग्रैवेयक में कही है। टीकाकारने व्याख्या करते हुए कहा है कि यहाँअसंयती से श्रमणगुणधारी साधु की समाचारी और उसके अनुष्ठानों का पालन करने वाले द्रव्यलिंगधारी मिथ्यादृष्टि भव्य अथवा अभव्य जीव समझने चाहिये। ये जीव साधु की पूर्ण क्रिया पालने के कारण ही ऊपर के अवेयक में उत्पन्न होते हैं। चारित्र परिणाम से शून्य होने के कारण साधुयोग्य अनुष्ठान करते हुए भी उन्हें असंयत कहा है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि ऐसे जीच किस प्रकार श्रमणगुणों के धारक हो सकते हैं? समाधान में टीकाकार ने कहा है कि यद्यपि उनके महामिथ्यादर्शन रूप मोह की प्रबलता है फिर भी राजा महाराजा चक्रवर्ती आदि से साधु महात्माओं का प्रवर पूजा सत्कार होते देख कर उन्हें प्रवज्या एवं साधु के क्रिया अनुष्ठानों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है और उक्त पूजा सत्कार आदि पाने के लिये ये श्रमण गुणधारी होकर उक्त क्रियानुष्ठानों का पालन करते हैं।
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भी सेठिया जेन अन्यमाला (१६) प्रश्न-ग्राम पाकर यावत् सनिवेशों में कई मनुष्य अल्प श्रारम्भ वाले, अल्प परिग्रह वाले, धार्मिक, धर्म का अनुगमन करने वाले, धर्मप्रिय , धर्म के उपदेशक, धर्म को उपादेय समझने वाले, धर्म में अनुराग रखने वाले, हर्पित होकर धर्म का आचरणकरने वाले,धर्मानुकूल कार्यों द्वारा आजीविका कमाने वाले, शोभन मनोवृत्ति वाले और साधु का दर्शन कर आनन्दित होने वाले होते हैं। वे प्राणातिपात आदि पापस्थानों से जीवनपर्यन्त देशतः विरत होते हैं और देशतः अविरत होते हैं। राजाभियोग आदि कारणों से अन्यतीर्थियों को वन्दनादि करने का आगार रखकर वे जीवन भर के लिये मिथ्यादर्शन शल्य से विरत होते हैं । आरंभ समारंभ, करना कराना, पचन, पाचन, कूटना, पीटना, तर्जना ताड़ना देना तथा वध,बन्ध और क्लेश का वे यावज्जीवन देशतः त्याग किये होते हैं और देशतः इनसे अनिवृत्त होते हैं । स्नान, मालिश, वर्णक (सुगन्धित चूर्ण), विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप गन्ध, मान्य और अलंकार से भी वे जीवनपर्यन्त देशतः विरत होते हैं और देशतः अविरत होते हैं । इस प्रकार कपायकारणक सावध योग वाले, दूसरों को परिताप देने वाले व्यापारों से वे जीवन भर के लिये एक देश से निवृत्त होते हैं और एक देश से अनिवृन होते हैं । ये श्रमणोपासक श्रावक जीव, अजीव और पुण्य पाप के जानकार, श्राश्रय, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण वन्ध और मोक्ष के हेयोपादेय स्वरूप के ज्ञाता होते हैं। कर्मवाद पर दृढ़ श्रद्धा होने से वे आपत्ति में भी दूसरे की सहायता नहीं चाहते। भवनपति व्यन्तर आदि देव भी उन्हें निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलित नहीं कर सकते । निर्ग्रन्थ प्रवचन में वे शंका काँक्षा और विचिकित्सा रहित होते है । सिद्धान्त का अर्थ उनका जाना हुआ एवं धारा हुआ होता है । संदिग्ध विषय उनके पूछे हुए एवं निर्णीत
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवाँ भाग
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होते हैं और शास्त्रों का रहस्य उन्हें अवगत होता है । निर्ग्रन्थ प्रवचन के अनुराग में उनके अस्थि एवं मज्जा तक रंगे होते हैं। इसी उत्कृष्ट अनुराग से प्रेरित हो वे निर्ग्रन्थ प्रवचन को ही अर्थ एवं परमार्थ बतलाते हैं और शेष सभी उनके लिये अनर्थ रूप हैं । वे इतने उदार होते हैं कि याचकजनों के खातिर वे किवाड़ों में भोगल नहीं लगाते बल्कि दरवाजे खुले रखते हैं। उनका किसी के घर एवं अन्तःपुर में प्रवेश करना उस घर के लोगों के लिये प्रीतिकारी होता है । अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या तथा पूर्णिमा को वे प्रतिपूर्ण पौषध व्रत की आराधना करते हैं । श्रमण निर्ग्रन्थों का संयोग मिलने पर वे उन्हें अशन पान खादिम स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्मल, रजोहरण, औषध, भेषज तथा पडिहारी पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक-ये चौदह प्रकार की वस्तुओं का दान देते हैं । उपरोक्त गुणों से विशिष्ट ये श्रावक अन्त समय में आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक . संथारा कर समाधि सहित काल कर के कहाँ उत्पन्न होते हैं !
उत्तर- उपरोक्त गुण वाले श्रावक काल प्राप्त कर उत्कृष्ट बार
अच्युत देवलोक में उत्पन्न होते हैं । वहाँ उनकी बाईस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होती है। उन देवताओं के ऋद्धि (पारिचारिक सम्पत्ति), युति, यश, बल, वीर्य एवं पुरुषाकार पराक्रम होते हैं । ये देवता परलोक के आराधक हैं अर्थात् देव भव की स्थिति पूर्ण होने के बाद वे दूसरा जन्म मोक्ष साधनों के अनु( श्रपपातिक सूत्र ४१ ) कूल प्राप्त करते हैं ।
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(१७) प्रश्न- ग्राम आाकर यावत् सन्निवेशों में कई मनुष्य ऐसे होते हैं जो आरम्भ परिग्रह से रहित, धार्मिक, सुशील, सुत्रत चाले एवं साधुजन को देखकर प्रमुदित होने वाले होते हैं। वे प्राणा. तिपात यावत् मिथ्यादर्शन शन्य रूप अठारह पापस्थानों से सर्वथा विरत होते हैं। सभी आरम्भ समारम्भ, कृत कारित, पचन पाचन,
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला कूटना, पीटना, तर्जना, ताड़ना और वध, बन्ध तथा क्लेश से वे निवृत्त होते हैं। स्नान, मईन,वर्णक,विलेपन, शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं गन्ध माल्य तथा अलंकार का उन्हें सर्वथा त्याग होतो है। इस प्रकार कपायकारणक, सावध योग पाले, परपरितापकारी व्यापारों से सर्वथा विरत हुए ये अनामार ईर्यासमिति भाषासमिति आदि से युक्त यावत् इसी निर्ग्रन्थ प्रवचन की आराधना को ही अपना उद्देश्य बना कर और सदा इसी को सन्मुख रख कर विचरते हैं । उक्त गुणों वाले ये अनगार महात्मा इस भव की स्थिति पूरी कर कहाँ उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर-उक्त गुण विशिष्ट अनगार महात्माओं में से कुछेक को अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण,प्रतिपूर्ण केवलज्ञान केवलदर्शन प्रगट होते हैं । वे अनेक वर्षों तक केवलीपर्याय का पालन कर अनशन द्वारा बहुत से भक्त (आहार) का छेदन करते हैं
और जिस उद्देश्य से मुनिदीक्षा धारण की थी उसे पूर्ण कर सभी कर्मों का नाश कर मुक्त हो जाते हैं।
जिनमुनि महात्माओं को केवलज्ञान केवलदर्शनप्रगट नहीं होते। वे अनेक वर्षों तक छस्थपर्याय का पालन करते हैं। अन्त में रोगादि होने से अथवा यों ही भक्त का त्याग करते हैं । अनशन द्वारा बहुत से भक्तों का छेदन कर एवं जिस प्रयोजन से प्रवज्या धारण की थी उसकी आराधना कर वे चरम श्वासोच्छ्वास में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण केवल ज्ञान केवलदर्शन प्राप्त करते हैं एवं सिद्ध, बुद्ध,यावत् मुक्त होते हैं। __कई मुनि जिनके पूर्व कर्म शेष रह जाते हैं वे संलेखना संथारा पूर्वक काल के अवसर काल कर उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव होकर उत्पन्न होते हैं । वहाँ उनके तेतीस सागरोपम की स्थिति होती है। ये परलोक के आराधक होते हैं । (औरपातिक सूत्र ४१)
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११७.
(१८) प्रश्न- ग्राम आकर यावत् सन्निवेशों में कई मनुष्य ऐसे होते हैं जो सभी शब्दादि कामों से विरत होते हैं एवं सभी प्रकार के रागभाव से निवृत्त होते हैं । माता पितादि सम्बन्ध एवं तन्निमित्तक स्नेह से वे परे होते हैं । क्रोधादि कपायों को वे विफल एवं क्षीण कर देते हैं एवं क्रमशः आठ कर्मों का क्षय करते हैं । ये महात्मा पुरुष यहाँ की स्थिति पूरी कर कहाँ जाते हैं ?
उत्तर—उक्त गुण सम्पन्न महात्मा सभी कर्मों का क्षय कर ऊपर लोकाग्रस्थित सिद्धस्थान में विराजते हैं । (पपातिक सूत्र ४१) (१६) प्रश्न- जलचर, स्थलचर, खेचर आदि पर्याप्त संज्ञी तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय जीवों में से कई जीवों को शुभ परिणाम एवं अध्यव साय और लेश्या की विशुद्धि से तथा ज्ञानावरणीय कर्म का चयोरशम होने से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेपणा करते हुए जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो जाता है जिससे वे अपने संज्ञी अवस्था में किये हुए पूर्वभव देखने लगते हैं । वे स्वयमेव पाँच अणुव्रत अङ्गीकार करते हैं और त्याग प्रत्याख्यान शीलत्रत गुणत्रत तथा पौधोपवास का आचरण करते हुए अपना जीवन बिताते हैं । अन्तिम समय में आलोचना और प्रतिक्रमण करके अनशन द्वारा भक्त का छेदन कर समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त होते हैं। वे कहाँ उत्पन्न होते हैं ?
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उत्तर - उपरोक्त तिर्यञ्च काल करके आठवें सहस्रार देवलोक मैं उत्पन्न होते हैं। वहाँ उनकी अठारह सागरोपम की स्थिति होती है । वे पारिवारिक सम्पत्ति, यश आदि से सम्पन्न होते हैं। वे परलोक के आराधक होते हैं । (औपपातिक सूत्र ४१)
(२०) प्रश्न- 'मिच्छत्तं जमुदिएणं तं खीणं अणुदियं च उवसंत' अर्थात् उदय में आये हुए मिध्यात्व का क्षय होना एवं अनुदीर्ण मिथ्यात्व का शान्त होना चायोपशमिक सम्यक्त्व का स्वरूप
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११. . . . श्री सेठिया जन अन्यमाला है। औपमिक सम्यक्त्व का भी यही स्वरूप है । जैसे किखीणम्मि उइण्णम्मि अणुदिज्जते य सेस मिच्छते।
अतोमुहुत्तमेत उवसमसम्म लहइ जीवो ॥ • भावार्थ-उदय प्राप्त मिथ्यात्व के क्षीण होने और शेष मिथ्यात्व के शान्त होने पर जीव अन्तर्जुहूर्त के लिये उपशम सम्यक्त्व पाता है।
इस प्रकार दोनों सम्यक्त्व का एकसा स्वरूप है फिर दोनों को अलग मानने का क्या कारण है ?
उत्तर-क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में उदय आये हुए मिथ्यात्व का क्षय होता है, अनुदीर्ण मिथ्यात्व का . विपाकानुभव की अपेक्षा उपशम होता है एवं प्रदेशानुभव की अपेक्षा उसका उदय रहता है। किन्तु उपशम सम्यक्त्व में तो अनुदीर्ण मिथ्यात्व का उपशम ही होता है । इस सम्यक्त्व में प्रदेशानुभव कतई नहीं होता । यही दोनों में अन्तर है। कहा भी हैवेए संतकम्म खओवसमिएसु णाणुभावं सो। उवसंत कसाओ पुण रेएइ ण संतकम्म ॥
भावार्थ-क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में जीव सत्कर्म का वेदन करता है। वह विपाक का अनुभव नहीं करता । उपशान्त कपाय वाला तो सत्कर्म को भी नहीं वेदता है । (भगवती सूत्र श० १ उ. ३ टीका)
(२१) प्रश्न-सामायिक का स्वरूप सर्व सावध का त्याग है और छेदोपस्थापनीय का स्वरूप भी यही है क्योंकि महाबत सापद्यविरति रूप होते हैं। फिर ये भिन्न क्यों कहे गये हैं ?
उत्तर-प्रथम एवं चरम तीर्थङ्कर के साधु क्रमशः ऋजु (सरल) एवं चक्रजड़ होते हैं। उनके आश्वासन के लिये चारित्र के ये दो भेद कहे गये हैं। यदि चारित्र के ये दो भेद न होते और केवल 'सामायिक चारित्र का ही विधान होता तो इन साधुओं को कोई • अाश्वासन न रहता. । सामायिक चारित्रे स्वीकार करने के बाद
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श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, सातवां भाग ११६ उसमें थोड़ा सा दोष लगने से वे सोचते कि हमारा चारित्र ही नष्ट हो गया, हम भ्रष्ट हो गये और इस प्रकार वे व्याकुल हो उठते। छेदोपस्थापनीय चारित्र का विधान होने से इन साधुओं के आगे ऐसा मौका आने की सम्भावना नहीं है। व्रतों के आरोपण के बाद सामायिक के अशुद्ध हो जाने पर भी व्रतों के अखण्डित रहने से वे अपने को चारित्रवान समझते हैं क्योंकि चारित्र प्रवरूप भी होता है। कहा भी है-- रिउ वक्कजडा पुरिमेयराण सामाइए वयारहणं । मणयमसुद्धेऽवि जओ सामाइए हुति हु बयाइ ।
भावार्थ-प्रथम और चरम तीर्थङ्करों के साधु क्रमशः ऋजु और वक्रजड़ होते हैं। उनके लिये सामायिक के बाद व्रतों का प्रारोपण कहा है। सामायिक में थोड़ा दोप लग जाने पर भी उनके व्रत बने रहते हैं, उनमें कोई बाधा नहीं आती। (भगवती श० १ उ० ३ टीका)
नोट--सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र का स्वरूप इसी ग्रन्थ के पहले भाग में बोल नम्बर ३१५ में दिया गया है।
(२२) प्रश्न-प्रथम एवं अन्तिम तीर्थङ्करों के प्रवचन में पाँच महावत रूप धर्म बतलाया है एवं वीच के बाईस तीर्थङ्करों के प्रवचन में चार महाव्रत रूप धर्म कहा गया है। परस्पर विरोध रहित सर्वज्ञ के वचनों में यह विरोध क्यों हैं ?
उत्तर-पहले तीर्थङ्कर के साधु ऋजु जड़ होते हैं और चरम तीर्थङ्कर के साधु वक्रजड़ होते हैं जबकि मध्यम तीर्थङ्कगें के साधु ऋजुम्राज्ञ होते हैं। ऋजुप्राज्ञ साधु सरल एवं बुद्धिशाली होते हैं। वे वक्ता के आशय को ठीक समझ वर सरल होने से तदनुसार प्रवृत्ति करते हैं । चार महावत रूप धर्म में पॉच महावत का भी समावेश है यह समझ कर वे उसका भी पालन करते हैं । इसके विपरीत ऋजुजड़ शिष्य पूरा स्पष्टीकरण न होने से पूरी तौर
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भी सेठिया जैन अन्यमाला
से समझते नहीं है और इसलिये उसका पालन करना भी उनके लिये कठिन है । वक्रजड़ शिष्य पूरा स्पष्टीकरण न होने से अपनी वक्रता के कारण कुतर्क करते हैं और वक्ता के आशय के अनुसार यथावत् कार्य नहीं करते । यही कारण है कि उनके लिये पांच महाव्रत रूप धर्म का विधान किया गया है । इस प्रकार विचित्र प्रज्ञा वाले शिष्यों के अनुग्रह के लिये धर्म दो प्रकार का कहा गया है, वैसे वस्तु स्वरूप में कोई भेद नहीं है। चार महानत रूप धर्म भी पाँच महाव्रत रूप ही है। ब्रह्मचर्य रूप चौथे महावत का यहाँ परिग्रहविरमण में समावेश किया गया है। परिगृहीत स्त्री का ही भोग होता हैं, अपरिगृहीत का नहीं । स्त्री भी परिग्रह रूप है और परिग्रह के त्याग से स्त्री का भी त्याग हो ही जाता है। (भगवती पहला शतक तीसरा उद्देशा टीका) (उत्तराध्ययन २३ अध्ययन)
(२३) प्रश्न-मोहनीय कर्म वेदता हुआ जीव क्या मोहनीय फर्म बाँधता है या वेदनीय कर्म बाँधता है ?
उत्तर-मोहनीय कर्म वेदता हुआ जीच मोहनीय कर्म पाँधत्ता और वेदनीय कर्म भी बाँधता है । सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में लोभ का सूक्ष्म अंश वेदता हुआ जीव वेदनीय कर्म पाँधता है, मोहनीय कर्म नहीं पाँधता क्योंकि सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवी जीव के मोहनीय और आयु इन दो कर्मों को छोड़ कर शेष छ: कर्मों का ही वन्ध होता है। (औपपातिक सूत्र ३८) (२४) प्रश्न-जीव हल्का और भारी किस प्रकार होता है ?
उत्तर-भगवती सत्र के प्रथम शतक के नवें उद्देशे में ऐसे ही प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि अठारह पापस्थानों का आचरण फरने से जीव अशुभ कर्म का उपार्जन कर भारी होता है और फलतः नीच गति में जाता है । अठारह पापस्थानों का त्याग करने से जीव हल्का होता है एवं वह ऊर्च गति प्राप्त काता है।
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श्री जन सिदान्त बोज पह, साता भाग १२१ नोट-अठारह पापस्थानों का स्वरूप इसी ग्रन्थ के पाचवें माग में बोल नं. ८९५ में दिया गया है।
(२५) प्रश्न-ईर्यासमिति पूर्वक यतना से जाते हुए साधु से चींटी आदिका मर जानाद्रव्य हिंसा कही है। पर यह भाव हिंसा नहीं है क्योंकि प्रमत्त योग से होने वाले प्राणीवध को हिंसा कहा गया है।
जो उ पमत्तो पुरिसो तस्स उ जोगं पडुच्च जे सत्ता। वावज्जंति नियमा तेसिं सो हिंसओ होइ ॥
भावार्थ-जो प्रमादी पुरुष है उसके व्यापार से जिन जीवों की हिंसा होती हैं। उनका हिंसक नियमतः वह प्रमादी ही है।
इस प्रकार द्रव्य हिंसा में हिंसा का लक्षण घटित न होते हुए भी वह हिंसा कैसे कही गई? ___ उत्तर-ऊपर जो हिंसा की व्याख्या की गई है वह द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की हिंसा की है वैसे द्रव्य हिंसा तो मरण मात्र में रूद्ध है और इस अपेक्षा उक्त हिंसा को द्रव्य हिंसा कहना असंगत नहीं है। (भगवती पहला शतक तीसरा उद्देशा टीका) (२६) प्रश्न-क्या सभी मनुष्य एक सी क्रिया वाले होते हैं ?
उत्तर-सभी मनुष्य एक सी क्रिया वाले नहीं होते । भगवती सूत्र प्रथम शतक के दूसरे उद्देशे में इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है। संयत, संयतासंयत और असंयत के भेद से मनुष्य तीन प्रकार के हैं। संयत के दो भेद है-सराग संयत और वीतराग संयत । उपशान्त एवं क्षीण कपाय पाले महात्मा वीतराग संयत होते है। राग रहित होने के कारण वे पारम्मादि नहीं करते। अतएव वे क्रिया रहित होते हैं । सरागसंयत के भी दो भेद हैं-प्रमत्त संयत और अप्रमत्संयत । कपायक्षीण या उपशांत न होने के कारण अप्रमत्त संयत के केवल मायाप्रत्यया क्रिया होती है। प्रमच संयत के कपाय भी वीण नहीं होते तथा प्रमादपूर्वक प्रवृत्ति भी होती है
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
यतएव उनके मायाप्रत्यया और आरम्भिकी ये दो क्रियाएं होती हैं । संयतासंयत परिग्रह धारी होता है अतएव उनके उक्तः दो तथा पारिग्रहिकी ये तीन क्रियाएं होती हैं। असंयत के तीन भेद हैं- सम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि | असंयत सम्यग्दृष्टि के प्रत्याख्यान नहीं होते इसलिये उसके चार क्रियाएं होती हैं- श्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्या ख्यान प्रत्यया । मिध्यादृष्टि एवं सम्यग्मिध्यादृष्टि के उक्त चार एवं मिथ्या दर्शन प्रत्यया ये पाँच क्रियाएं होती हैं ।
(२७) प्रश्न- क्या पृथ्वी के जीव अठारह पाप का सेवन करते हैं ? उत्तर- भगवती उन्नीसवें शतक के तीसरे उद्देशे में श्री गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है - हे भगवन् ! क्या पृथ्वी काय के जीव प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशम्य रूप अठारह पापस्थान सेवन करने वाले कहे जाते हैं ? उत्तर में भगवान् ने फरमाया हैहे गौतम! पृथ्वीकाय के जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य रूप अठारह पापस्थानों के सेवन करने वाले कहे जाते हैं। वचन भादि के अभाव में पृथ्वीकाय के जीवों को मृषावादादि पाप कैसे लग सकते हैं ? इसका समाधान करते हुए टीकाकार ने कहा है - यश्चेह वचनाद्यभावेऽपि पृथ्वी कायिकानां मृपावादादिभि रूपाख्यानं तन्मृपावादाद्यविरति मात्रित्योच्यते । श्रर्थात् वचनादि के न होते हुए यहाँ जो पृथ्वीकाय के जीवों को मृपावादादि से युक्त कहा है वह मृषावादादि अविरति की अपेक्षा जानना चाहिये । चूँकि उन्होंने मृषावादादि पापस्थानों का त्याग नहीं किया है इसलिये उन्हें ये पाप लगते रहते हैं ।
(२८) प्रश्न- द्रव्यमन और भावमन का क्या स्वरूप १ क्या द्रव्य और भावमन एक दूसरे के बिना भी होते हैं !
• उत्तर - प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें इन्द्रिय पद में टीकाकार ने
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां माग द्रव्य मन और भाव मन की व्याख्या इस प्रकार दी है। मनयोग्य पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण कर जीव उन्हें जो मन रूप से परिणत करता है वही द्रव्यमन है । द्रव्यमन के आधार से जीव का जो मनन व्यापार होता है वह भाव मन कहा जाता है। टीकाकार ने इसकी पुष्टि में नन्दी अध्ययन की चूणि उद्धृत की है। वह इस प्रकार है
भणपज्जत्ति नामकम्मोदयओ जोग्गे मणोदव्वे घित्तुं मणतण परिणामिया दवा दब्चमणो भन्नइ । जीवो पुण मणपरिणामकिरियावंतो भावमणो, किं भणिय होइ मणदवालवणो जीवस्स मणवावारो भावमणो भण्णइ।
भावार्थ-मनःपयोति नामकर्म के उदय से जीव मनयोग्य द्रव्य ग्रहण कर उन्हें मन रूप से परिणत करता है । मनरूप से परिणत इन द्रव्यों को ही द्रव्यमन कहा जाता है। मन परिणाम क्रियावाला अर्थात् मनन रूप मानसिक व्यापार वाला जीव ही भावमन है। श्राशय यह है कि द्रव्यमन के आधार से होने वाला जीव का मनन व्यापार ही भावमन कहा जाता है। __भारमन के होने पर अवश्य द्रव्यमन होता हैं और द्रव्यमन होने पर भावमन होता है और नहीं भी होता है। द्रव्यमन के न होने पर भावमन नहीं होता किन्तु भावमन के न होने पर भी द्रव्यमन हो सकता है । जैसे भवस्थ केवली । लोकप्रकाश में भी कहा है--
द्रव्यचित्तं विना भावचित्तं न स्यादसंज्ञिवत् ।
विनाऽपि भावचित् तु द्रव्यतो जिनवद्भवेत् ॥ . अर्थ-द्रव्यचित्त विना भाव चित्त नहीं होता जैसे असंज्ञी जीव
किन्तु भावचित्त विना भी द्रव्य चित्त होता है। जैसे जिनदेव । . भावमन का अर्थ चैतन्य भी किया जाता है और इस अपेक्षा
से भावमन द्रव्य मन रहित असंझी जीवों के भी होता है । भगवती । तेरहवें शतक प्रथम उद्देशे में 'नोइ दियोवउत्ता उववज्जति' की
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श्री सेठिया जैन प्रथमाला
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टीका करते हुए टीकाकार ने कहा है-
नोइन्द्रियं मनस्तत्र च यद्यपि मनःपर्याप्त्यभावे द्रव्य मनो नास्ति तथाऽपि भावमनसश्चैतन्यरूपस्य सदा भावान्तेनोपयुक्तानामुत्पत्तेनइन्द्रियोपयुक्ता उत्पयन्त
इत्युच्यते ।
भावार्थ- नोइन्द्रिय का अर्थ मन है । यद्यपि वहाँ मनःपर्याप्ति नहीं है और इस कारण द्रव्य मन नहीं है तो भी चैतन्य रूप भावमन सदा रहता है और उस उपयोग वाले जीवों की उत्पत्ति होती है । श्रतः नोइन्द्रिय उपयोग वाले उत्पन्न होते हैं ऐसा कहा जाता है।
(२६) प्रश्न- द्रव्य क्षेत्र काल भाव- इनमें कौन किससे सूक्ष्म है ? उत्तर-- समय रूप काल सूक्ष्म माना जाता है । शतपत्र भेद में प्रत्येक पत्र के भेदन में असंख्यात समय का होना माना गया है । काल की अपेक्षा क्षेत्र अधिक सूक्ष्म हैं क्योंकि अङ्गुलश्रेणी प्रमाण क्षेत्र में असंख्यात श्रवसर्पिणी के समयों के बराबर आकाश प्रदेश कहे गये हैं। क्षेत्र की अपेक्षा द्रव्य और भी अधिक सूक्ष्म है क्योंकी एक आकाशप्रदेश में अनन्तानन्त परमाणु आदि पुद्गल द्रव्य रहे हुए हैं । द्रव्य की अपेक्षा भाव अर्थात् पर्याय सूक्ष्म है क्योंकि एक परमाणु की अनन्तानन्त पर्यायें होती हैं । हरिभद्रीयावश्यक में काल से क्षेत्र की सूक्ष्मता बतलाते हुए कहा है
सुमो य होइ कालो तओ सुहुमयरं हवइ खितं । अंगुल सेढी मित्ते ओसप्पिणीओ असंखेज्जा ॥ भावार्थ- काल सूक्ष्म है और क्षेत्र उससे भी अधिक सूक्ष्म है । श्रङ्गुल श्रेणी प्रमाण क्षेत्र में असंख्यात अवसर्पिणियाँ होती हैं।
अवधिज्ञान का aिys aतलाते हुए हरिभद्रीयावश्यक में बतलाया है कि. काल, क्षेत्र, द्रव्य और पर्याय (भाव) क्रमशः सूक्ष्म सूक्ष्मतर हैं । इसलिये पहले विषय की वृद्धि होने पर नियमपूर्वक
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श्री जैन सिमान्त बोल संग्रह, सातो भाग १२५ उत्तर की वृद्धि होती है और उत्तर की वृद्धि होने पर पहले की वृद्धि हो भी सकती है और नहीं भी । गाथा यह है --~-- काले चउण्ह वुड्ढी, कालो भइयाव्वु खित्तबुड्ढीए । बुढीइ दञ्च पजव, भइयव्वा खित्तकाला उ ॥
भावार्थ-जन अवधिज्ञान का विषय काल की अपेक्षा बढ़ता है तो चारों द्रव्य, क्षेत्र, काल और पर्याय की वृद्धि होती है। क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञान के विषय की वृद्धि होने पर द्रव्य पर्याय के विषय की वृद्धि होती है पर काल की भजना है । कारण यह है कि क्षेत्र सूक्ष्म है और काल क्षेत्र की अपेक्षा स्थूल है । द्रव्य की अपेक्षा अवधिज्ञान के विषय की वृद्धि होने पर पर्याय विषयक अवधिज्ञान की वृद्धि होती है तथा काल और क्षेत्रं चिपयक वृद्धि की भजना है क्योंकि काल और क्षेत्र, द्रव्य पर्याय से स्थूल हैं। पर्याय विषयक अवधिज्ञान की वृद्धि होने पर द्रव्य विषयक वृद्धि की भनना है । पर्याय सूक्ष्म हैं और द्रव्य उनकी अपेक्षा स्थूल है।
इस प्रकार इन चारों में काल क्षेत्र द्रव्य और भाव (पर्याय)क्रमश: एक दूसरे से सूक्ष्म सूक्ष्मतर हैं। (हरिभद्रीयावश्यफनियुक्ति गाथा ३६-३७) (३०) प्रश्न-देवता कौन सी भाषा बोलते हैं ?
उत्तर-भगवती सूत्र के पाँचवें शतक के चौथे उद्देशे में गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से यही प्रश्न किया है । उत्तर में कहा गया है कि देवता अर्द्धमागधी भापा बोलते हैं और बोली जाने वाली भाषाओं में अर्द्धमागधी भाषा विशिष्ट है । टीकाकार ने प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी और अपभ्रंश ये छ भाषाएं दी हैं और अर्द्धमागधी का स्वरूप बतलाते हुए कहा हैजिस भाषा में आधे लक्षण मागधी भाषा के हो और आधेप्राकृत भाषा के हों वह अर्द्धमागधी भाषा है।
भाषा आर्य की व्याख्या करते हुए प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में
जिस भाषा वह अर्द्धमाशा करते हुए प्रभाव
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१३२ भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला क्या यही अभयदान का अर्थ है या इससे विशेष ___ उत्तर-नहीं, अभयदान का इससे कहीं अधिक भर्थ है। सभी प्राणी सुख चाहते हैं और दुःख से भयभीत होते हैं। भयभीत प्राणियों को भय से मुक्त कर अभय देना, निर्भय करना अभयदान शब्द का अर्थ है । गच्छाचारपयना दूसरे अधिकार में भमयदान का अर्थ करते हुए कहा है--
यः स्वभावात् सुखैषिभ्यो भूतेभ्यो दीयते सदा । अभयं दुःखभीतेभ्योऽभयदानं तदुच्यते ॥
भावार्थ-स्वभावतः सुख चाहने वाले और दुःख से डरे हुए प्राणियों को जो अभय दिया जाता है अर्थात् भय से मुक्त किया जाता है उसी को अभयदान कहा है।
पर वैसे यह शब्द मृत्यु के महाभय से डरे हुए प्राणी को मौत के भय से मुक्त करने में आता है। शास्त्रों में जगह जगह इसकी व्याख्या इसी प्रकार मिलती है। सूयगडांगसूत्र के छठे अध्ययन में 'दाणाण सेट्ट अभयप्पयाणं' कहा है,अर्थात् सभी दानों में अभयदान श्रेष्ठ है। टीकाकार इसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं
स्वपरानुग्रहार्थ मर्थिने दीयते इति दान मनेकपा तेषां मध्ये जीवानां जीवितार्थिनां त्राणकारित्वादभयदानं श्रेष्ठम् । तदुक्तं
दीयते म्रियमाणस्य, कोर्टि जीवितमेव वा । धनकोटिं न गृणाति,सर्वो जीवितुमिच्छति ।। भावार्थ-अपने और दूसरे पर अनुग्रह करने के लिये प्रीयाचक को जो दिया जाता है वह दान है। यह अनेक प्रकार का है । दान के सभी प्रकारों में अभयदान श्रेष्ठ हैं क्योंकि जीना चाहने वाले प्राणियों की यह रक्षा करने वाला है। कहा भी है
मरते हुए प्राणी को यदि एक ओर करोड़ों रुपया दिया जाय
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अध्ययन गई है। मका त्याग का भावार्थ दि कारणों का पता
श्री जैन सिद्धान्त चौल संग्रह, सातवां माग और दूसरी ओर जीवन दिया जाय तो वह करोड़ों का धन नहीं लेगा क्योंकि सभी जीना चाहते हैं।
सैंतीसवाँ बोल . ६८४-उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें द्रुमपत्रक
अध्ययन की सैंतीस गाथाएं उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्ययन का नाम द्रुमपत्रक है। इस अध्ययन में वृक्ष के पत्ते आदि दृष्टान्तों से मनुष्य भव की अस्थिरता वतलाई गई है। मनुष्य जन्म श्रादि की दुर्लभतो का वर्णन कर शास्त्रकार ने प्रमाद का त्याग कर धर्माचरण करने का उपदेश दिया है । इसमें सैंतीस गाथाएं हैं। भावार्थ इस प्रकार है- .
(१) वृक्ष का पवा अवस्था अथवा रोगादि कारणों से विवर्ण एवं जीर्ण हुआ कुछ दिन निकाल कर वृन्त से शिथिल हो गिर पड़ता है। मनुष्य जीवन की स्थिति भी पत्र जैसी ही है। यौवन और श्रायु अस्थिर हैं। इसलिये हे गौतम ! समयमात्र भी प्रमाद न करो।
(२) जैसे घास पर रही हुई ओस की बूद थोड़े समय तक अस्थिर रह कर गिर पड़ती है। मानव जीवन भी श्रोस वू'द की तरह अस्थिर है, न मालूम कर यह समाप्त हो जाय १ अतएव हे गौतम ! क्षण भर भी प्रमाद न करो।
(३) मनुष्य की जिन्दगी बहुत छोटी है विस पर भी अनेक विघ्न बाधाएं बनी रहती हैं। इनके कारण जीवन का कोई भी निश्चय नहीं। जीवन की अस्थिरता और अनियतता को जानकर पूर्वकृत कर्मों का नाश करने के लिये प्रयत्न करो और हे गौतम ! तुम जरा भी प्रमाद न करो।
(४) यह मनुष्यभव सभी प्राणियों के के लिये दुर्लभ है। बड़े
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श्री सेठिया जैन मन्थमाला
इन जीवों के पृथक् पृथक् शरीर हैं। तृण, वृक्ष और बीज रूप वनस्पति भी जीव रूप है। प्रत्येक वनस्पति के जीवों के पृथक् पृथक् शरीर होते हैं और साधारण वनस्पति में अनन्त जीवों के एक ही साधारण शरीर होता है ।
(८) उक्त पाँच के सिवाय दुसरे त्रस प्राणी हैं। इस प्रकार कुल मिल कर छः काय कहे गये हैं । इतने ही जीव निकाय हैं इनके सिवाय दूसरा कोई संसारी जीव नहीं है ।
(E) बुद्धिमान् पुरुष को अनुकूल युक्तियों द्वारा इन छः काय को जीव रूप जानना चाहिये । ये सभी दुःख के द्वेषी और सुख चाहने वाले हैं ऐसा जानकर किसी जीव की हिंसा न करनी चाहिये ।
(१०) ज्ञानी के ज्ञान का यही सार है कि वह वह किसी जीव की हिंसा न करे | तीर्थङ्कर का उपदेश अहिंसा प्रधान है केवल इतना ही जानकर मुमुक्षु को किसी की हिंसा न करनी चाहिये ।
(११) ऊपर, नीचे और तिछें जो भी त्रस स्थावर प्राणी हैं उनकी हिंसा से निवृत्त होना चाहिये । हिंसा से निवृत्ति यानी अहिंसा ही अपने पराये सभी आत्माओं के लिये शान्ति रूप है एवं निर्वाण प्राप्ति में प्रधान कारण होने से निर्वाण रूप कही गई है।
(१२) मोक्षमार्ग का आचरण करने में समर्थ जितेन्द्रिय व्यक्तिको मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और अशुभ योग रूप दोष दूर कर मन वचन काया से कभी किसी से विरोध न करना चाहिये । (१३) संवर वाले, बुद्धिशील एवं क्षुधा पिपासा आदि परीषहों से क्षुब्ध न होने वाले धीर साधु को स्वामी या उसकी आज्ञा से दिये हुए आहार की एपणा करनी चाहिये । सदा एषणा समिति में उपयोग रखते हुए उसे अनेषणीय आहार का त्याग करना चाहिये ।
(१४) साधु के निमित्त संरंभ, समारंभ और आरंभ के कार्यों द्वारा प्राणियों को दुःख पहुँचा कर जो आहार पानी तैयार किया
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.......भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां माग .... १४१ गया हो,साधु को आधाकर्म दोष वाला वह आहार न लेना चाहिये।
(१५) आधाकर्मी आहार का एक कण भी जिसमें मिला हों वह आहार पूतिकर्म दोष वाला है। साधु को ऐसे दूषित आहार का सेवन न करना चाहिये यह उसका कन्प है । जिसके शुद्ध.या अशुद्ध होने में शंका हो वह आहार भी साधु को नहीं कन्पता।
(१६) ग्राम अथवा नगरों में श्रद्धालु धार्मिक गृहस्थों के स्थान होते हैं वहाँ रहा हुआ कोई गृहस्थ धर्मबुद्धि से ऐसे कार्य,जिनमें जीवों की हिंसा होती है, करता है। आत्मा का गोपन करने वाला जितेन्द्रिय साधु उनके धर्माधर्म के सम्बन्ध में कथन कर जीवहिसा का अनुमोदनन करे।
(१७) इस प्रकार के उपरोक्त वचन सुन कर साधु उनसे पुएर होता है ऐसा न कहे । उन कार्यों से पुण्य नहीं होता यह भी उसे नहीं कहना चाहिये क्योंकि ऐसा कहना महाभयदायक है। . — (१८) दान के निमित्त जिन स और स्थावर प्राणियों की हिंसा होती है उन जीवों की रक्षा के लिये साधु को 'पुण्य होता है। ऐसा न कहना चाहिये। ' (१९) जिन प्राणियों को दान देने के लिये अन्न जल आदि तैयार किये जाते हैं, पुण्य का निषेध करने से चूकि उन प्राणियों के अन्तराय पड़ती है इसलिये उन कार्यों में 'पुण्य नहीं होता' ऐसा भी साध को न कहना चाहिये।
(२०) जो दान की प्रशंसा करते हैं वे प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं और जो दान का निषेध करते हैं वे प्राणियों की दृषि का छेदन करते हैं। - (२१) उक्त कारणों से दान में पुण्य होता है अथवा पुण्य नहीं होता इस प्रकार दोनों ही बात साधु नहीं कहते। ऐसा करने वाले साधु कर्म का आगमन रोक कर निर्वाण को प्राप्त करते हैं।
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(२२) निर्वाण ही को प्रधान मानने वाला मुमुक्षु तत्वंत्र साधु" नक्षत्रों में चन्द्रमा की तरह, सभी पुरुषों में श्रेष्ठ है । इसलिये यतनाखान एवं जितेन्द्रिय मुनि सदा मोत के लिये ही सभी क्रियाएं करे। ..(२३) मिथ्यात्व कषाय प्रमाद आदि के प्रवाह में रहते हुए एवं अपने कर्मों से दुःखित हुए शरणरहित प्राणियों को संसार परिभ्रमण से विश्राम देने के लिये तीर्थङ्कर एवं गणधरों ने सम्यग दर्शन आदि का कथन किया है । सम्यग्दर्शनादि से संसार भ्रमण रुक जाता है एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसा तत्वज्ञों का कथन है।
(२४) मन वचन काया द्वारा आत्मा को पाप से रक्षा करने वाला जितेन्द्रिय, मिथ्यात्वादि रूप संसार प्रवाह का छेदन करने वाला, आश्रव रहित महात्मा समस्त दोपों से रहित शुद्ध एवं प्रतिपूर्ण अनुपम धर्म का उपदेश करता है ।
(२५) उक्त शुद्ध धर्म को न जानने वाले, विवेकशुन्य,पण्डिताभिमानी अन्य तीर्थी लोग समझते हैं कि हम ही धर्म तत्व के जानकार हैं किन्तु वास्तव में वे भाव समाधि से बहुत दूर हैं। " (२६) जीव अजीव विषयक ज्ञान रहित अन्यतीर्थी लोग बीज, को पानी तथा उनके निमित्त बनाये हुए आहार का उपभोग करते हैं। साता, ऋद्धि और रम में श्रामक्त होकर उनकी प्राप्ति के लिये वे आध्यान करते हैं । इस प्रकार वे धर्म अधर्म के विवेक में अकुशल हैं एवं सम्यग्दर्शनादि रूप भावसमाधि से हीन हैं। : (२७)जमे ढंक, कंक, कुलल, जलकाक और सिधी नामक जलचर पक्षी मछली की गवेषणा का कलुषित अधम ध्यान करते हैं।
(२८) इसी प्रकार कई एक मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण नामधारी . व्यक्ति विषय प्राप्ति के ध्यान में लीन रहते हैं। ये लोग भी शादि पक्षियों की तरह ही कलुपित परिणाम वाले और अधम हैं।" ,
(२६) कई दुवुद्धि लोग कुमार्ग की प्ररूपणा कर सम्यग्दर्शन :
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आदि रूप शुद्ध मोक्षमार्ग की विराधना करते हैं एवं संमार दाने पाले उन्मागे का आचरण करते हैं। ऐमा करने वाले ये लोग वस्तुतः दुःख एवं मृत्यु की ही प्रार्थना करते हैं। ... ' (३०) जैसे जन्मान्ध पुरुष छिद्र वाली नाव पर सवार होकर नदी के पार जाना चाहता है किन्तु वह बीच ही में डूब जाता है।
(३.) इसी तरह कई एके मिथटि अनार्य कर्म करने वाले अमण पूर्णरूप से कर्माश्रय रूप प्रवाह में वह रहे हैं। ये लोग प्रवाह को पार करने के बदले यही महाभयावह दुःख प्राप्त करेंगे। ..
(३२, काश्यपंगोत्रीय भगवं न् महावीर से कहे हुएं ईम 'श्रुत चारित्ररुप धर्म को स्वीकार कर बुद्धिमान् पुरुर को संसार पर्यटन रूप भीषण भावस्रोत को पार करनाचाहिये तथा पाप कर्मों से प्रान्मा की रक्षा करने के लिये संगम का पालन करना चाहिये।
(३३) शब्दादि इन्द्रिय विपयों में रागद्वप का त्याग करने वाले आत्मार्थी माधु को. संमार के प्राणियों को अपनी ही तरह सुख वाहने वाले और दुःख के द्वेषी जान कर उनकी रक्षा में पराक्रम करते हुए संगम का पालन करना चाहिये।
(३४) विवेकशील मुनि को अति मान और मायाँ तथा कोष और लोम रूप कंपायं को संसार बढ़ाने वाली एवं संयम का नाश करने वाली जान कर इन सभी का त्याग करना चाहिये तथा मोरे ही को अनुसन्धान करना चाहिये। . (३५) साधु क्षमा श्रादि दर्शविध यति धर्म की वृद्धि करे और पापमय हिंसात्मक धर्म का त्याग करे । तप में अधिकाधिक शाह
गाने हुए उसे क्रोध और मान की प्रार्थना न करनी चाहिये। - (३६) जैसे तीने लोक सभी प्राणियों के लिये आधारभूत है उसी तरह भूत, भविष्य एवं वर्तमानकालीनं तीर्थङ्करों के तीर्थ परस्त्र का प्राधार शान्ति अर्थात् .मामार्ग है । इसका मानव
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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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लिये बिना वे तीर्थङ्कर ही नहीं हो सकते ।
(३७) भावमार्ग को अङ्गीकार कर व्रत धारण करने वाले साधु को यदि छोटे बड़े अनुकूल प्रतिकूल परीषद उपसर्ग सताने लगें तो साधु को उनके वश होकर संयम से विचलित न होना चाहिये। आँधी और तूफान में जैसे पहाड़ अडिग रहता है उसी प्रकार, उसे भी संयम में स्थिर रहना चाहिये ।
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. . (३८) आश्रव द्वारों का निरोध करने वाले, महा बुद्धिशील, वीर साधु को दूसरे से दिया हुआ शुद्ध एषणीय आहार ग्रहण करना चाहिये । कषायाग्नि को शान्त कर उसे जीवन पर्यन्त सर्वश देव द्वारा प्रतिपादित इस मार्ग की अभिलाषा रखनी चाहिये ।
(सूयगडांग सूत्र ११ वां श्रध्ययन)
उनचालीसवाँ बोल
६८६ - समय क्षेत्र के उनचालीस कुलपर्वत. ६. जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और पुष्करार्द्ध ये ढाई द्वीप हैं। इनमें तथा इनके विभाजक समुद्रों में मनुष्य रहते हैं इसलिये इन्हें मनुष्य क्षेत्र कहा जाता है । सूर्य की गति से होने वाले घड़ी, घण्टा, दिन, पक्ष, मास, वर्ष, युग आदि समय की कल्पना भी इन्हीं क्षेत्रों में की जाती है इसलिये इन्हें सययक्षेत्र भी कहा जाता है । क्षेत्रों की मर्यादा करने वाले पर्वत कुलपर्वत कहे जाते हैं । ढाई द्वीप में उनचालीस कुलपर्वत हैं। जम्बूद्वीप में चुल्लहिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह वर्षधर पर्वत हैं । धातकीखण्ड और पुष्करार्द्ध में बारह बारह वर्षधर पर्वत हैं । वहाँ उक्त छहों पर्वत दो दो क़ी संख्या में हैं । इस प्रकार ३० वर्षधर पर्वत हुए । ढाई द्वीप में पाँच समेरु पर्वत हैं । एक जम्बुद्वीप में, दो धातकीखण्ड में और दो पुष्करार्द्ध में । धातकीखण्ड द्वीप के मध्य भाग में दक्षिण और उचर
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग १४५ में एक एक पुकार पर्वत है। इन इषुकार पर्वतों द्वारा यह द्वीप पूर्वार्द और पश्चिमाई इन दो भागों में विभक्त हो गया है। धातकीखएड की तरह पुष्करार्द्ध द्वीप में भी दो इपुकार पर्वत हैं। इस प्रकार समय क्षेत्र में तीस वर्षधर, पाँच सुमेरु और चार पुकार ये उनचालीस कुल पर्वत हैं।
(समवागि ३६) चालीसवां बोल संग्रह ९८७-खर बादर पृथ्वीकाय के चालीस भेद
पृथ्वीकाय के दो भेद हैं-सूक्ष्म पृथ्वीकाय और बादर पृथ्वीकाय। बादर पृथ्वीकाय, श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकाय और खर बादर पृथ्वीकाय के भेद से दो प्रकार की है। खरवादर पृथ्वीकाय के पों वो अनेक भेद है पर मुख्य रूप से चालीस कहे गये हैं। वे ये हैंपुढवी य सक्करा वालुया य उवले सिला य लोणूसे । अय तंय तउयसीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य॥७३॥ हरियाले. हिंगुलए मणोसिला सासगंजण पवाले । अन्भपडलम्भ वालय वायरकाय मणि विहाणा ॥४॥ गोमेजए य रुयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगय मसारगल्ले भुजमोयग इंदणीले य ॥७२॥ चंदण गेरुय हंसगन्न पुलए सोगंधिए य बोद्धव्वे । चंदप्पम वेरुलिए जलकते सुरकते य ॥ ७६ ॥
. (उत्तराध्ययन अध्ययन ३६) अर्थ-(१) शुद्ध पृथ्वी (२) शर्करा (३) वालुका (8) पत्थर (५) शिला (६) लवण (७) ऊप (८) लोहा (8) ताँगा (१०) अपु-कधीर (११) मीसा (१२) चांदी (१३) सोना (१४)वज-हीरा (१५) हरताल (१६) हिंगलु (१७) मनःशिला (१८) सासग-पारा (18)अंजन(२०)प्रवाल-गा(२१) अनपटल-अमरख(मोडल).
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श्री सेठिया जैन गन्धमाला (२२) अभ्रवालुका-अभरख से मिली हुई चालू (२३) गोमेजक (२४) रुचक (२५) अंक (२६ स्फटिक (२८ लोहिताच ( ८) मरकत (२६) मसारगल्ल (३०) भुजमोचक (३१) इन्द्रनील ३२) चन्दन (३३ गैरिक ३४)हँस गर्भ (३५'पुलक (३६) सौगन्धिक (३७) चन्द्रप्रेम (३८ वैडूर्य (३६) जलकान्त (४०) सूर्य कान्त। तेईस से चालीस तक के अठारह भेद मणियों के नाम हैं।
(प्रज्ञापना प्रथम पद सूत्र १५) ९८८-दायक दोष से दूषित चालीस दाता
एषणा ग्रहणैषणा) केशंकितादि दस दोष हैं। उनमें छठादायक दोष है। जिन व्यक्तियों से दान ग्रहण करने में साधु के प्राचार. में. दोष लगने की सम्भावना रहती है उनसे आहारादि ग्रहण करना दायक दोष है । पिण्डनियुक्तिकार ने साधु को चालीस व्यक्तियों से दान लेने के लिये मना किया है और उनसे दान लेने में होने वाले दोष दिखलाये हैं । इमनिये ग्रहणेपणा की शुद्धि के लिये साधु को उनसे दान न लेना चाहिये । चालीस व्यक्तियों के नाम इसी ग्रन्थ. के तीसरे भाग में बोल नं. ६६३ पृष्ठ २४३ में दिये गये हैं ।
इकतालीसवां बोल १८६-उदीरणा बिना उदय में आने वाली
. इकतालीस प्रकृतियाँ काल प्राप्त कर्म परमाणुओं का अनुभव करना उदय है जिन कर्म परमाणुओं के फल भोग का समय नहीं हुआ है और जो उदयावलिका के बाहर रहे हुए हैं उन्हें कषाय सहित अथवा कपाय: रहित योग नामवाले वीर्य विशेष से खींच कर, उदयप्राप्त कर्म परमाणुमों के साथ भोगना उदीरणा कहलाता है। उदय और
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श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, सातवां भाग १४७ उदीरणा के स्वामित्व में कोई विशेष नहीं है। जो जीव ज्ञानावरण श्रादि कर्मों के उदय का स्वामी है वही उन कर्मों की उदीरखा का भी स्वामी है । कहा भी है-'जस्थ उदो तस्थ उदीरणा जत्य उदीरणा तत्थ उदओ' अर्थात् जहाँ उदय है वहाँ उदीरणा है और जहाँ उदीरणा है यहाँ उदय है। किन्तु ४१ प्रकृतियाँ इस नियम की अपवाद रूप हैं । इनका उदीरणा के बिना ही उदय होता है।
इकतालीस प्रकृतियाँ ये हैं-ज्ञानावरण की पाँच प्रतियाँ, अन्तराय की पाँच प्रकृतियाँ, दर्शनावरण की नौ प्रकृतियाँ, वेदनीय की दो प्रकृतियाँ, मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, संज्वलन लोभ, तीन वेद, चार पाय, नामकर्म की नो प्रकृतियाँ, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, स, वादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, तीर्थकर नाम तथा उच्चगोत्र ।
ज्ञानावरण की पाँच, अन्तराय की पाँच और दर्शनावरण की चार-चक्षुदर्शनावरगा, अचतुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण
और केवलदर्शनावरण-इन चौदह प्रकृतियों के उदय और उदीरणा, वारहवें गुणस्थान में एक प्रालिका शेप रहे तब तक, सभी जीवों के एक साथ होते हैं। प्रापलिका शेप रहने पर उदय ही होता है क्योंकि यावलिका के अन्तर्गत प्रतियाँ उदीग्णा योग्य नहीं होती।
शरीरपर्याप्ति की समाप्ति के बाद जीवों के जब तक इन्द्रियपर्याप्ति की समाप्ति नहीं होती तब तक उन्हें निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि का उदय ही होता है, इनकी उदीरणा नहीं होती। शेप काल इनके उदय उदीरणा एक साथ प्रवृत्त होते हैं और साथ ही निवृत्त होते हैं।
वेदनीय की दोनों प्रकृतियों के उदय उदीरणा प्रमत्तगुणस्थान तक साथ होते हैं। आगे इनका उदय ही होता है,उदीरणा नहीं होती।
प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय अन्तरफरण कर लेने पर
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति में एक प्रावलिका शेष रहने पर जीव के मिथ्यात्व का उदय ही होता है उदारणा नहीं होती। • क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करता हुआ वेदकसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय का क्षय कर सम्यक्त्व मोहनीय का, सर्व अपवर्तना द्वारा अपवर्तना कर उसे अन्तर्मुहूर्त की स्थितिमात्र रख देता है । इसके बाद उदय और उदीरणा द्वारा भोगते भोगते जव सम्यक्त्व मोहनीय की स्थिति प्रावलिका मात्र रह जाती है तब सम्यक्त्व मोहनीय का उदय होता है उसकी उदीरणा नहीं होती । अथवा उपशप श्रेणी पर चढ़ते हुए जीव के सम्यक्त्व मोहनीय के अन्तरकरण कर लेने के बाद प्रथम स्थिति में जब आवलिका मात्र शेष रह जाती है तब उसके सम्यक्त्व मोहनीय का उदय ही रहता है उदीरणा नहीं होती। . सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान की आवलिका शेष रहने तक संन्वलन लोभ के उदय उदीरणा साथ प्रवृत्त होते हैं । आवलिका शेष रहने पर संज्वलन लोभ का उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। __ तीनों वेदों में से किसी भी वेद वाला जीव श्रेणी चदता हुआ अन्तरकरण करके अपने वेद की पहली स्थिति में से एक प्रावलिका शेष रख देता है उस समय उस जीव के उस वेद का उदय ही होता है , उदीरणा नहीं होती। ___अपने अपने भव की स्थिति में अन्तिम प्रावलिका शेष रहने पर श्रायु कर्म की चारों प्रकृतियों का उदय ही होता है। उदीरणा नहीं होती। मनुष्य आयु की प्रमत्त गुणस्थान के आगे उदीरणा नहीं होती किन्तु सिर्फ उदय ही होता है। . .. नामकर्म की नौ प्रकृतियाँ और उच्चगोत्र इन दसों प्रकृतियों के, .सयोगी केवली गुणस्थान तक एक साथ उदय उदीरणा होते हैं।
अयोगी अवस्था में इनका केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती।
(सप्ततिका नामक छठा कर्ममन्य गाथा ५४.५)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातयाँ भाग १४
बयालीसवाँ बोल संग्रह ६६०-आहारादि के बयालीस दोष
एपणा समिति के तीन भेद हैं-गवेपणेपणा, प्रह]षणा परिभोगपणा। गवेषणेपणा की शुद्धि के लिये १६ उद्गमदोष मौर १६ उत्पादन दोषों का परिहार करना चाहिये । इन दोषों के नाम और इनका स्वरूप इसी ग्रन्थ के पाँचवें भाग में बोल नं०८६५ और ८६६ में दिये गये हैं। ग्रहणेपणा की शुद्धि के लिये सांधुको शंकितादि दस एपणा दोषों का त्याग करना चाहिये । इन दस दोपों के नाम तथा उनके स्वरूप इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में रोल नं०६६३ में दिये गये हैं। सोलह उद्गम दोप, सोलह उत्पादान दोप और दस एपणा (ग्रहणेपणा)दोप-ये तीनों मिला कर आहारादि के वयालीस दोप कहे जाते हैं। ६६१-नामकर्म की बयालीस प्रकृतियाँ
चौदह पिएड प्रकृति आठ प्रत्येक प्रकृति,प्रस दशक और स्थावर दशक इस प्रकार नामकर्म की बयालीस प्रकृतियां है । इनके नाम, व्याख्या तथा पिएड प्रकृतियों के अवान्तर भेद और उनके स्वरूप इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में बोल नं. ५६० (आठ कर्म) के अन्तर्गत नाम कर्म के वर्णन में दिये गये हैं। (पशापना २३ पद उदया २) ६६२-आश्रव के बयालीस भेद
जिन कारणों से श्रात्मा में शुभ अशुभ कर्म पाते हैं वे आश्रय कहलाते हैं। बच्चों ने संक्षेप से आत्मा में कर्म आने के षयालीस कारण बतलाये हैं। वे इस प्रकार है-- इदिय कसाय अन्वय किरिया पण चउर पंच पणवीसा। जोगतिगं यायाला आसवमेया (इमा किरिया)।
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श्री सेठिया जैन प्रग्यमात्या
भावार्थ-पाँच इन्द्रिय,चार कषाय, पाँच अवत, पच्चीस क्रियाएं और तीन योग ये बयालीस श्राश्रव के भेद हैं।
इन्द्रिय आदि के भेदों के नाम और स्वरूप इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग में दिये गये हैं। पाँच इन्द्रिय और पाँच अनत बोल नं० २८९ में है। चार कषाय बोल नं. १५८ और तीन योग वोल नं. ६५ में दिये गये हैं। पञ्चीस क्रियाएं पाँच पाँच करके वोल नं. २६२ से. २६६ तक में दी गई है।
६६३-पुण्य प्रकृतियाँ बयालीस - आठ कर्मों की प्रकृतियों में कुछ शुभ फल देने वाली हैं और शेष अशुभ फल देने वाली हैं। शास्त्रकारों ने शुभाशुभ फल के मेदसे उन्हें पुण्य प्रकृतियाँ और पाप प्रकृतियाँ कही हैं। पाप प्रकृतियाँ हर और पुण्य प्रकृतियाँ ४२ हैं। पुण्य प्रकृतियों के नाम ये हैतिरि णरसुगउ उच्चं, सायं परघाय आयवुज्जोयं। जिण ऊसास णिम्माण,पणिदिवइरुसभ चउरंसं ॥
तस दस चउवण्णाई,सुरमणुदुगपंचतणु उवंगतिगं। ___अगुरुलहु पढमखगई, बायाला पुण्णपगईओ ।। ' ' (१) तियेचायु (२) मनुष्यायु (३) देवायु (४) उच्चगोत्र (५)
सातावेदनीय (६) पराघात नाम (७) आतप नाम (८) उद्योत नाम '(8) तीर्थङ्कर नाम (१०)श्वासोच्छ्वास नाम (११) निर्माण नाम *(१२) पञ्चेन्द्रिय जाति (१३ वज्रऋषभ नाराच संहनन (१४)
समचतुरस्त्र संस्थान (१५) (प्रस दशक) स नाम (१६) बादर • नाम (१७) पर्याप्त नाम (१८) प्रत्येक नाम (१६) स्थिर नाम (२०)
शुभ नाम (२१) सुभग नाम (२२) सुस्वर नाम (२३) आदेय नाम (२४) यश कीर्ति नाम (२५) शुभ वर्ण (२६) शुभ गन्ध (२७) • शुभ रस (२८) शुभ स्पर्श (२६) देव गति (३०) देवानुपूर्वी ३१) , मनुष्यगति (३२) मनुष्यानुपूर्वी (३३) औदारिक शरीर (३४)
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(४°
बयालीस पुण्य MEल नं० ६३३और
श्री अन सिद्धान्त गोल भंगह, सातवा भाग १५१ बैंक्रिय शरीर (३५) तैजम शरीर (३६) आहारक शरोर (३७). कार्मण शरीर ३८) औदारिक अगोपांग (३६) वैक्रिय अंगोपांग (४. आहारक अंगोपांग (४१) श्रगुरुलघु नाम (४. शुभविहायोगति-ये बयालीस पुण्य प्रकृतियाँ हैं। (कर्म ग्रन्थ पांचर्चा)
नोट-इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में बोल नं०६३३ौतत्व) , में पुण्य तत्व और पाप तत्व में क्रमशः ४२ पुण्य प्रकृतियाँ और ८२ पाप प्रकृतियाँ दी गई हैं।
तयालीसवां बोल ६६४-प्रवचन संग्रह तयालीस
१-धर्म धम्मो मंगल मुक्किटं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥१॥
भावार्थ-धर्म सर्व श्रेष्ठ मंगल है । अहिंसा संयम और तप धर्म के प्रकार हैं ? जिस पुरुष का चित्त सदा धर्म में लगा रहता है उसे देवता भी मस्तक झुकाते हैं। दशवैकालिक पहला अ० गाथा १)
धम्मो ताणं धम्मो सरणं धम्मो गइ पइहा य । धम्मेण सुचरिएण य गम्मद अजरामरं ठाणं ॥२॥
भावार्थ-धर्म त्राण और शरण रूप है. धर्म ही गति है तथा धर्म ही आधार है। धर्म की सम्यग् अाराधना करने सजीव अजर अमर स्थान यानी मोक्ष प्राप्त करता है। (तदुलवेयालय गाथा ३)
जरामरणवेगेण, वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्टा य, गई सरणमुत्तमं ॥ ३ ॥ भावार्थ-जरा और मरण के प्रवाह में वहते हुए प्राणियों के
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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
लिये धर्मही एक मात्र द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है और उचम शरण है।
(उत्तराध्ययन तेइसवां अध्ययन गाथा ६८) मरिहिसिराय!जयातया वा,मणोरसे कामगुणे विहाय। इक्कोहु धम्मो नरदेव ताणं,न विजई अण्णमिहेह किंपिण ___ भावार्थ-हे राजन् ! इन मनोरम शब्द रूप श्रादि कामगुखों. का त्याग कर एक दिन अवश्य मरना होगा। उस समय केवल, एक धर्म हो शरण रूप होगा। हे नरदेव ! इस संसार में धर्म के सिवाय आत्मा की रक्षा करने वाला कोई नहीं है।
(उत्तराध्ययन चौदहवां अध्ययन गाथा ४०) लन्भंति विमला भोगा, लन्भंति सुरसंपया । लभति पुत्त मित्तं च, एगो धम्मो न लन्भइ ॥५॥
भावार्थ-मनोरम प्रधान भोग सुलभ है, देवता की सम्पचि पाना भी सहज है। इसी प्रकार पुत्र मित्रों का सुख भी प्राप्त हो जाता है किन्तु धर्म की प्राप्ति होना दुर्लभ है। (प्रास्ताविक) • जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वढइ ।
जाविंदिया न हायति, ताच धम्म समायरे ॥ ६ ॥
भावार्थ-जब तक बुढ़ापा नहीं सताता,जब तक व्याधियाँ नहींपंदतीं, जब तक इन्द्रियों की शक्ति हीन नहीं होती तब तक धर्म को आचरण कर लेना चाहिये। ... . (दशवैकालिक अाठवां अध्ययन गाथा ३६) · अद्धाणं जो महंत तु, सपाहेजो पवबई । "गठछंतो सो सुही होइ, छुहातण्हाविवजिओ ॥७॥' एवं धम्म पि काऊण, जो गच्छइ परं भवं । गच्छतो सो सुही होइ, अप्पकस्मे अवेयणे ॥ ८ ॥ भावार्थ-जो पथिक पाथेय (भाता) साथ लेकर लम्बी. पात्रा
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श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, सातवा भाग १५३ करता है यह रास्ते में भूख और प्यास से तनिक भी पीड़ित न होकर अत्यन्त सुखी होता है । इसी प्रकार जो मनुष्य यहाँ भालमाँति धर्म की आराधना कर परलोक में जाता है । वह वहाँ अन्पकर्म याला एवं वेदनारहित होकर परम सुस्त्री होता है।
(उत्तराध्ययन उन्नीसवा अध्ययन गाथा २०-२१) २-नमस्कार माहात्म्य ते अरिहंता सिद्धाऽऽयरिओवज्झाय साहवो नेया । जे गुणमयभावाओ गुणा व पुजा गुणत्थीणं ॥१॥ भावार्थ-अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु ये ज्ञानादि गुण सहित हैं । अतएव गुणामिलापी भव्यात्माओं के लिये ये मूर्तिमान गुणों की तरह पूज्य हैं।
मोक्खत्यिणो व मोक्खहेगवो दसणादितियगं व । तो ते ऽभिवंदणिज्जा जइ व मई हेयवो कह ते ॥२॥
भावार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की तरह ये पाँचों पद मुमुनुओं के मोक्ष के हेतु हैं। अतएव ये उनके चन्दनीय हैं। पाँचों पद मोक्ष के हेतु इस प्रकार हैं
मग्गो अविप्पणासो आयारे विणयया सहायत्तं । पंचविहणमोक्कारं करेमि एएहिं हेअहिं ॥३॥
भावार्थ-सम्यग्दर्शनादि रूप मुक्ति का मार्ग अरिहन्त भगवान् का दिखाया हुआ है। सिद्धों के अग्निश्वर शाश्वतत्व गुण को जान कर प्राणी संसार से विमुख होकर मोक्ष के लिये प्रयत्न करते हैं। प्राचार्य स्वयं प्राचारवन्त एवं श्राचार के उपदेशक होते हैं, उन्हें प्राप्त कर भन्यजीव ज्ञानादि प्राचार का ज्ञान प्राप्त करते हैं एवं उनका आचरण करते हैं । उपाध्याय को प्राप्त कर भव्यात्मा कर्म नाश करने वाले ज्ञानादि विनय की आराधना करते हैं।
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१५४
भी सेठिया जैन प्रग्यमाला
भी साठया जन साधु मुक्ति की लालसा वाले प्राणियों को मोक्ष योग्य अनुष्ठानों की साधना में सहायक होते हैं । इस प्रकार उक्त पाँचों पद मोच प्राप्ति के हेतु रूप हैं। इसलिये मैं उक्त पंच परमेष्ठी को नमस्कार करता हूँ। (विशेषावश्यक भाष्य गाथा २६४२-२६४४)
अरहत णमुक्कारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ । भावेण कीरमाणो होइ पुण बोहिलाभाए ॥४॥
भावार्थ-भाव पूर्वक किया हुआ अर्हन्नमस्कार प्रात्मा को अनन्त भवों से छुड़ाकर मुक्ति की प्राप्ति कराता है। यदि उसी भव में मुक्ति का लाभ न हो तो जन्मान्तर में यह नमस्कार चोधि यानी सम्यग्दर्शन का कारण होता है।
अरिहंत णमुक्कारो धण्णाण भवक्खयं कुणंताणं । हिययं अणुम्मुअंतो विसुत्तियावारओ होई ॥५॥
भावार्थ-ज्ञानादि धन वाले तथा जीवन एवं पुनर्भव का क्षय करने वाले महात्माओं के हृदय में रहा हुआ यह अरिहन्त-नमस्कार दुर्यान का निवारण कर धर्मध्यान का आलम्बन रूप होता है।
अरिहंत णमुक्कारो एवं खलु वण्णिओ महत्थुत्ति । । जो मरणम्मि उवग्गे अभिक्खणं कीरए बहुसो॥६॥
भावार्थ-यह अहनमस्कार महान् अर्थ वाला कहा गया है। अन्य अक्षर वाले भी इस नमस्कार पद में द्वादशांगी का अर्थ रहा हुआ है । यही कारण है कि मृत्यु के समीप होने पर निरन्तर इसी का घार वार स्मरण किया जाता है । बड़ी आपत्ति आने पर भी द्वादशांगी के बदले इसी का स्मरण किया जाता है।
अरिहंत णमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो । - मगंलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं ॥ ७ ॥ • भावार्थ-अहन्नमस्कार समी पापों का-कर्मों का नाश करने
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवों माग वाला है । विश्व के सभी मंगलों में यह प्रधान मंगल है।
- (हरिभद्रीयावश्यक नमस्कार विमांग गाथा ६२३-६२६) नोट-सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु नमस्कार का माहात्म्य बतलाने के लिये भी यही चार चार गाथाएं उक्त ग्रन्थ में दी हैं। अरिहन्त के बदले यथायोग्य सिद्ध आचार्यादि पद दिये हुए हैं।
इहलोए अत्थकामा आरोग्गं अभिई य निष्फत्ती। सिद्धी य सग्ग सुकुल पन्जायाई य परलोए ॥८॥
भावार्थ-नमस्कार से इहलोक में अर्थ, काम, आरोग्य, अभिरति और पुण्य की प्राप्ति होती है एवं परलोक में सिद्धि, स्वर्ग एवं उत्तम कुल की प्राप्ति होती है। (विशेषावश्यक भाष्य गाथा ३२२३)
एसो पंच णमोक्कारो सब्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं पढम हवइ मंगलं ॥ ९ ॥
भावार्थ-अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु-इन पाँचों पदों का यह नमस्कार सभी पापों का नाश करने वाला है। संसार के सत्र मंगलों में यह यह प्रथम (मुख्य) मंगल है।
(आवश्यक मलयगिरि १ श्रध्ययन २ खएड) ३-निर्ग्रन्थ प्रवचन महिमा तमेव सचं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ॥ १ ॥
भावार्थ-राग द्वेष को जीतने वाले पूर्णज्ञानी तीर्थङ्कर देव ने जो कहा है वही सत्य और असदिग्ध है । (प्राचारांग अ० ५ उ० ५ सूत्र १६३)
इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलए संसुद्धे पडिपुण्णे णेआउए सल्लकत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिव्वाणमग्गे णिजाणमग्गे अवितहमविसंधि सव्व दुक्खप्पहीणमग्गे । इहहिआ जीवा सिज्झति बुज्झति मुञ्चति परिणिवायति सबदुक्खाण मंतं करति ॥२॥
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला भावार्थ-यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य, सर्व प्रधान और अद्वितीय है। यह शुद्ध (निर्दो।) पूर्ण और प्रमाण से अबाधित है। मायादि शल्यों का यह नाश करने वाला है एवं मिद्धि, मुक्ति और निर्वाण का मार्ग है । यह ययार्थ एवं पूर्वापर विरोध रहित है। इस मार्ग को अंगोकार करने से सभी दुःखों का नाश हो जाता है। इसका आश्रय लेने वाले सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होते हैं। वे निर्वाण को प्राप्त करते हैं एवं सभी दुःखों का नाश करते हैं।
(हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन) । औपपातिक सूत्र ३४) जिणवयणे अणुरत्ता जिणवयणं जे करेंति भावेणं। अमला असंकिलिहा ते होंति परित्तसंसारी ॥३॥
भावार्थ-जो जिनागम में अनुरक्त हैं और जो भावपूर्वक जिन भापित अनुष्ठानों का सेवन करते हैं । राग द्वेष रूप क्लेश से रहित वे पवित्रात्मा परित्तसंसारी होते हैं।
(उत्तराध्ययन अध्ययन ३६ गाथा २५८)
४-शात्मा नोई दियग्गिज्झ अमुतभावा,
__ अमुत्तभावा चिय होई निचो॥ अज्झत्थहे निययस्स बंधो,
संसारहेडं च वयंति बंधं ॥१॥ भावार्थ-श्रात्मा अमूर्व होने से इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता और अमूर्त होने से ही वह नित्य है। प्रात्मा में रहे हुए मिथ्यात्व भज्ञान श्रादि दोषों से कर्मबन्ध होता है और यही बन्ध संसार परिभ्रमण का कारण कहा जाता है।
(उत्तराध्ययन अध्ययन चौदहवां गाया १६) नाणं च दंसणं चेच, चरित्तं च तवो तहा । चीरिंग उपओगो य, एवं जीवस्य लक्खणं ॥२॥
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
ই७
भावार्थ - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य तथा उपयोग ये जीन के लक्षण हैं |
(उत्तराध्ययन अटाईसवां श्रध्ययन गाथा ११ ) जे आया से विष्णाया । जे चिण्णाया से आया । जेण विजाग से आया तं पडुच पडिसंखाए । एस आयावाई समिया परियाए वियाहिए ॥ ३ ॥
भावार्थ - जो आत्मा है वह विज्ञाता (ज्ञान वाला) है । जो विज्ञाता है वह आत्मा है। जिस ज्ञान द्वारा जानता है वह आत्मा हैं । ज्ञान की विशिष्ट परिणति की अपेक्षा आत्मा भी उसी (ज्ञान के) नाम से कहा जाता है । इस प्रकार ज्ञान और आत्मा की एकता जानने वाला ही आत्मवादी हे और उसी की पर्याय ( संयमानुष्ठान, सम्यक् कही गई है।
(श्राचराग पाँचवा अध्ययन पाँचवां उद्देशा सूत्र १६६ ) अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे गंदणं वर्णं ॥ ४ ॥ अप्पा कत्ता विकत्ता य, सुहाण य दुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टिय सुप्प हिओ ॥ ५ ॥ भावार्थ - आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी तथा कूट शाल्मली वृक्ष हैं और यही स्वर्ग की कामदुघा धेनु और नन्दनवन है ।
सदनुष्ठानरत आत्मा सुख देने वाला और दुःख दूर करने. वाला है और दुराचार प्रवृत्त यही आत्मा दुःख देने वाला और मुखों का छीनने वाला हो जाता है । सदनुष्ठानरत आत्मा उपकारी होने से मित्र रूप है एवं दुराचार प्रवृत्त यही आत्मा अपकारी होने से शत्रु रूप है। इस प्रकार आत्मा ही सुख दुःख का देने वाला और यही मित्र और शत्रु रूप है।
(उत्तराध्ययन बीसवां श्रध्ययन गाथा ३६-३७)
पुरिसा ! तुममेव तुमं मिचं किं पहिया मिचमिच्छसि ॥ ६
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श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला दोनों में से एक को भी न छोड़ो । व्यवहार का उच्छेद होने से अवश्य ही तीर्थ का नाश होता है। पच वस्तुक)
६-मोक्षमार्ग नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । एयं भग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सुग्गई ॥१॥
भावार्थ-सभ्यग्जान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र और तप ये चारों मोक्षमार्ग यानी मोक्ष के उपाय हैं । मोक्ष के इस मार्गकी आराधना कर जीव सुगति प्राप्त करते हैं। नाणेण जाणइ भावे, दसणेण य सद्दहे । चारितण निगिरहाई, तवेण परिसुज्झइ ।।२।। भावार्थ-सम्यग्ज्ञान द्वारा मात्मा जीवादि पदार्थों को जानता है और सम्यग्दर्शन द्वारा उन पर श्रद्धा करता है । चारित्र द्वारा आत्मा नवीन कर्म आने से रोकता है एवं तप द्वारा पुराने कर्मों को नाश कर शुद्ध होता है। (उत्तराध्ययन अ० २८ गाथा ३, ३५)
जया जीवमजीवे य, दोवि एए वियाणइ । तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ ।। ।।
भावार्थ-जब आत्मा जीव और अजीव दोनों को भली भांति जान लेता है तब वह सब जीवों की नानाविध नरक तिर्यश्च आदि गतियों को जान लेता है।
जया गई बहुविहं, सव्व जीवाण जाणइ । तया पुगणं च पावं च,बंध मोक्खं च जाणइ ॥४॥
भावार्थ-जब वह सब जीवों की नानाविध गतियों को जान .जेता है तब पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है ।
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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, साता भाग १६५ जया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणइ । तया निश्चिदए भोए,जे दिव्वेजे य माणुस्से ॥५॥
भावार्थ-जन वह पुण्य,पाप,अन्ध और मोक्ष को जान लेता है तब देवता और मनुष्य सम्बन्धी समस्त कामभोगों को असार जान कर उनसे विरक्त हो जाता है ।
जया निविदए भोए, जे दिव्वे जे य माणुस्से । तया चयइ संजोगं, सम्भिंतर बाहिरं ॥६॥
भावार्थ-जब देवता और मनुष्य सम्बन्धी समस्त कामभोगों से विरक्त हो जाता है तब माता पिता तथा संपत्ति रूप बाह्य संयोग एवं रागद्वेष कपाय रूप आभ्यन्तर संयोग को छोड़ देता है।
जया चयइ संजोगं, सम्भितर बाहिरं । तया मुण्डे भवित्ताण, पञ्चयइ अणगारियं ॥७॥
भावार्थ-जब उक्त बाह्य एवं आभ्यन्तर संयोग को छोड़ देता है तव सुण्डित होकर अनगारवृति (मुनिचर्या) को प्राप्त करता है।
जया मुण्डे भवित्ताणं, पव्वयइ अगगारिय । तया संवरमुश्किलु, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥ ८॥
भावार्थ-जब मुण्डित होकर अनगार वृत्ति को प्राप्त करता है तब सर्व प्राणातिपातादि विरति रूप उत्कृष्ट संवर-चारित्र धर्म का यथावत् पालन करता है।
जया संवरमुक्किड, धम्म फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, अयोहि कलसं कडं ॥९॥
भावार्थ-जम सर्व प्राणातिपातादि विरति रूप उत्कृष्ट संघर चारित्र धर्म को प्राप्त करता है तब मिथ्यात्व रूप कलुष परिणाम से आत्मा के साथ लगे हुए कर्म रज को झाड़ देता है।
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
अखिल विश्व में हिंसा जैसा दूसरा धर्म नहीं है । (भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक गाथा ६१ )
११ -सत्य
सचं जसस्स मूलं, सच्च विस्सासकारणं परमं । सच्चं सग्गद्दारं, सच्चं सिद्धीइ सोपाणं ॥१॥
भावार्थ - सत्य यश का मूल कारण है। सत्य ही विश्वासप्राप्ति का मुख्य साधन है । सत्य स्वर्ग का द्वार है एवं सिद्धि का सोपान है । (संग्रह दूसरा अधिकार श्लोक २६ टीका)
र्त लोगम्भि सारभूयं, गंभीरतरं महासमुद्दाओ, थिरतर मेरुपव्ययाओ, सोमतरगं चंदमंडलाओ, दित्ततरं सूरमंडलाओ, विमलतरं सरयनहयलाओ, सुरभितरं गंधमादणाओ ॥२॥
भावार्थ - सत्य लोक में सारभूत है । यह महासमुद्र से भी अधिक गम्भीर है | सुमेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर है। चंद्रमंडल से अधिक सौम्य एवं सूर्यमंडल से अधिक दीप्त है । शरत्कालीन आकाश से यह अधिक निर्मल है एवं गन्धमादन पर्वत 'से भी अधिक सुगन्ध वाला है । (प्रश्नव्याकरण दूसरा संवर द्वार सूत्र २४)
जे वय लोगम्मि अपरिसेसा मंतजोगा जवा य विजाय जंभकाय अत्थाणि य सिक्खाओ य आगमा य सव्वाणि विताई सचे पट्टियाई ॥ ३ ॥
भावार्थ - लोक में जो भी सभी मंत्र, योग, जप, विद्या, जृम्भक अस्त्र, शस्त्र, शिक्षा और आगम हैं वे सभी सत्य पर स्थित हैं । ( प्रश्नव्याकरण दूसरा संवर द्वार सूत्र २४ )
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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवाँ भाग १७३ सचमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए उवहिए से मेहावी मारं तरइ ॥४॥
भावार्थ-हे पुरुषो! सत्य ही का सेवन करो । सत्य की धाराधना करने वाला मेधावी ( बुद्धिमान्) मृत्यु को तिर जाता है।
(प्राचाराग तीसग अध्ययन तीसरा उ० सूत्र ११६) सया सचेण संपन्ने, मित्तिं भूएहि कप्पए ॥५॥
भावार्थ-सदा सत्य से सम्पन्न होकर जगत के सभी प्राणियों के साथ मैत्रीभाव रखो। (स्यगडाग पन्द्रहवा अ० गाथा ३) विस्ससणिजो माया व होइ, पुज्जो गुरुत्व लोअस्स। सयणुव्व सञ्चवाई, पुरिसो सव्वस्स होइ पियो ॥२॥
भावार्थ-सत्यवादी पुरुप माता की तरह लोगों का विश्वासपात्र होता है एवं गुरु की तरह पूज्य होता है। स्वजन की तरह वह सभी को प्रिय लगता है। (भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णकगाथा LL)
सच्चम्मि घिई कुवहा, एत्योवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं झोसइ ॥७॥
भावार्थ-सत्य में दृढ़ रहो । सत्य में व्यवस्थित बुद्धिमान व्यक्ति सभी पाप कर्म का क्षय कर देता है।
याचारांग तीसरा अध्ययन दूसरा उद्देशा सूत्र ११३) सच्चेसु वा अणवज्जं वयंति ॥८॥
भावार्थ-सत्य वचनों में निरवध (पाप रहित ) वचन प्रधान कहा जाता है।
(सयगडांग छठा अ० गाथा २३) सच्चेण महासमुहमज्झेवि चिट्ठति न निमज्जंतिमूदाणियावि पोया, सच्चेण य उदगसंभमम्मि वि न बुज्झइ न य मरंति थाहं तेलभन्ति, सच्चेण यअगणिसंभमम्मि
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श्री सेठिया जैन अन्यमाला
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वि न डझंति, उज्जुगा मणूसा सचेण य तत्त तेल्लतउलोहसीसकाई छिवंति धरैति न य डझंति मणूसा, पव्वयकडकाहिं मुचंते न य मरंति सच्चेण य परिग्गहिया असिपंजरगया समराओ वि णिइंति अणहा य, सञ्चवादी वह बंधभियोगवेरघोरेहिं पमुचंति य अभित्तमज्झाहिं निइंति अणहा य सच्चवादी, सदेवगाणि य देवयाओ करेंति सच्चवयणे रत्ताणं ॥१॥
भावार्थ-महासमुद्र के मध्य दिशा भूले हुए जहाज सत्य के प्रभाव से स्थिर रहते हैं किन्तु इयते नहीं हैं । सत्य के प्रभाव से जल का उपद्रव होने पर मनुष्य न बहते हैं, न मरते ही हैं किन्तु पानी का थाह पा लेते हैं । सत्य ही का यह प्रभाव है कि मनुष्य अग्नि में जलते नहीं हैं । सरल सत्यवादी मनुष्य तपा हुआ तैल कथीर,लोहा और सीसा छू लेते हैं, हथेली पर रख लेते हैं किन्तु जलते नहीं हैं। सत्य को अपनाने वाले पहाड़ से गिराये जाने पर भी मरते नहीं हैं। सत्यधारी महापुरुष युद्ध में खड्ग हाथ में लिये हुए विरोधियों के बीच घिर कर भी अक्षत निकल आते हैं। घोर वध, बन्ध, अभियोग और शत्रुता से भी वे सत्य के प्रभाव से मुक्ति पा लेते हैं और शत्रुओं के चंगुल से बच कर निकल आते हैं । सत्य से आकृष्ट होकर देवताभी सत्यवादियों के समीप बने रहते हैं। (प्रश्नव्याकण दूसरा संवर द्वार सूत्र २४ )
मूसावाओ उ लोगम्मि, सव्वसाहूहिं गरहिओ । अविस्सासो य भूयाण, तम्हा मोसं विवजए ॥१०॥
भावार्थ-संसार में साधु पुरुषों ने मृपा-असत्य वचन की निन्दा की है । असत्यवादी का कोई विश्वास नहीं करता। इसलिये असत्य से परहेज करना चाहिये।
(दशकालिक छठा अध्ययन गाथा १२)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग १७५ वितहं पि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो । सम्हा सो पुट्ठो पावेण, कि पुण जो मुसं वए ॥११॥
भावार्थ-जो मनुष्य भूल से भी, ऊपर से सत्य मालूम होने वाली किन्तु मूलतः असत्य भाषा बोलता है उससे भी वह पाप का मागी होता है, तब मला जान बूझ कर जो असत्य बोलता है उसके पाप का तो कहना ही क्या ? (दशवकालिक साता अगाथा ५) इहलोए चिअ जीवा, जीहाछेअं वह च बंधं वा। अयसं घणनास वा, पाचंति अलिअवयणाओ ॥१२॥
भावार्थ-असत्य मापण के फल स्वरूप प्राणी यहीं परजिवाछेद, वध और वन्ध रूप दुःख भोगते हैं। उनका लोक में अपयश होता है एवं धन का नाश होता है।
(धर्मसँग्रह दूसरा अधिकार श्लोक २६ टीका) अप्पणट्टा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसर्ग न मुसं व्या, नो वि अन्नं वगावए ॥१३॥
भावार्थ-अपने स्वार्थ के लिये अथवा दूसरों के लिये, क्रोध से अथवा भय से, दूसरों को दुःख पहुंचाने वाला असत्य वचन न स्वयं कहे न दूसरों से कहलावे। (दशवैकालिक छठा अ० गाथा ११) तहेव सावजणुमोअणी गिरा,
ओहारिणी जा य परोवघाइणी । से कोह लोह भय हास माणवो,
न हासमाणोऽवि गिरं वएना ॥१४॥ भावार्थ-साधक को पाप का अनुमोदन करने वाली, निश्चयकारिणी तथा दूसरों को दुःख पहुंचाने वाली वाणी, न कहना
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श्री सेठिया जैन अन्पमाला चाहिये । उसे क्रोध, लोभ, भय और हास्य के वश पापकारी शब्द न कहना चाहिये। हँसते हुए भी उसे न बोलना चाहिये।
(दशवैकालिक सातवा अध्ययन गाथा ५४) १२-अदत्तादान (चोरी) विरति ख्वे अतित्ते य परिग्गहे य,सत्तोवसत्तोन उवेह तुढ़ि। अतुहिदोसेण दुही परस्स,लोभाबिले आययइ अदत्तं। १॥ ___ भावार्थ-मनोज्ञ रूप आदि इन्द्रियविषयों से जो संतुष्ट नहीं है वह उनके परिग्रह में आसक्ति एवं लालसा वाला बना रहता है। अन्त में असंतोष से दुखी एवं लोभ से कलुपित वह आत्मा अपनी इष्ट वस्तु पाने के लिये चोरी करता है।
(उत्तराध्ययन बत्तीसवा अध्ययन गाथा २६ ) सामी जीवादत्त, तित्थयरेणं तहेव य गुरूहि । एअमदत्तसरूवं, परविअं. आगमधरेहिं ॥२॥
भावार्थ-स्वामी से विना दी हुई वस्तु ग्रहण करना अदत्तादान है । प्राणधारी आत्मा का प्राणहरण भी उपकी आज्ञा न होने से अदत्तादान है । तीर्थङ्कर द्वारा निषिद्ध आचरण का सेवन करना अदत्तादान है एवं गुरु की आज्ञा बिना कोई वस्तु ग्रहण करना भी अदत्तादान है । इस प्रकार श्रागमधारी महात्माओं ने अदत्तादान का स्वरूप बतलाया है। (प्रश्न गकरण तीसरा संवरद्वार सूत्र २६ टीका, धर्मसंग्रह २० श्लोक २७ टीका) चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा वहुं। दंतसोहणमित्तं पि, उग्गहंसि अजाइया ॥३॥ तं अप्पणा. न गिण्हंति, नोऽवि गिराहावए परं । अन वा गिराहमाणं पि, नाणुजाणंति संजया ॥४॥
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श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, सातवां माग
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भावार्थ-संयमी साधु संचेतन पदार्थ हो या अचेतन पदार्थ हो, अल्पमूल्य पदार्थ हो या बहुमूल्य पदार्थ हो, यहाँ तक कि दांत कुरेदने का तिनका भी स्वामी से याचना किये बिना न स्वयं ग्रहण करते हैं, न दूसरों को ग्रहण करने के लिये प्रेरित करते हैं और न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन ही करते हैं।
(दयवैकालिक छठा अध्ययन गाथा १३-१४) तवतेणे वयतेणे रूवतेणे य जे नरे । आयारभाव तेणे य, कुब्वइ देवकिविसं ॥५॥
भावार्थ-जो साधु तप का चोर है, वचन (वाक्शक्ति) का चोर है,रूप का चोर है, आचार का चोर है एवं भाव का चोर है, वह नीच योनि के किन्चिपी देवों में उत्पन्न होता है।
(दशकालिक पांचवा अध्ययन दूसग उदृशा गाथा ४६)
१३-ब्रह्मचर्य-शील तवेसु वा उत्तम वैभचेरं ॥१॥ भावार्थ--ब्रह्मचर्य सभी तपों में प्रधान है।
। सूयगडांग सत्र छटा अध्ययन गाथा २३) इथिओ जे ण सेवंति, आइमोक्खा हु ते जणा ॥२॥
भावार्थ--जो पुरुष स्त्रिों का सेवन नहीं करते उनका सर्व प्रयम मोक्ष होता है। (सूयगडाग सूत्र पन्द्रहवां अ० गाथा १०)
जम्मि य आराहियम्मि आराहियं वयमिणं सव्वं, सीलं तवो य विणओ य संजमो य संती मुत्ती गुत्ती तहेव य इहलोइयगरलोइय जसे य कित्ती य पच्चओयो।
भावार्थ-प्रमचर्य व्रत की आराधना करने से सभी व्रतों की
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला आराधना हो जाती है। शील, तप, विनय, संयम, क्षमा, निर्लो1 भता और गुप्ति ये सभी ब्रह्मचर्य की आराधना से आराधित होते
हैं । ब्रह्मचारी इसलोक और परलोक में यश, कीर्ति एवं लोकविश्वास प्राप्त करता है।
जेण सुद्धचरिएण भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाहू स इसी स मुणीस संजए स एव भिक्खू जो सुद्धं चरइ बंभचेरं ॥४॥ ____भावार्थ-ब्रह्मचर्य के शुद्ध आचरण से उत्तम ब्राह्मण, उत्तम श्रमण और उत्तम साधु होता है। ब्रह्मचर्य पालने वाला ही ऋषि है । वही मुनि है, वही साधु है और वही भिक्षु है ।
(प्रश्नव्याकरण चौथा संवर द्वार सूत्र २७) न रूव लावण्ण विलासहासं, न जंपियं इंगियपेहियं वा। इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता,दठूटुंववस्से समणेव तच स्सी
भावार्थ-श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य,मधुर वचन, कामचेप्टा एवं कटाक्ष आदि को मन में तनिक मी स्थान न दे एवं रागपूर्वक देखने का कभी प्रयत्न न करे।
अदंसणं चेव अपत्थणंच, अचिंतणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्सारियझाणजुग्गं,हियं सया बंभवए रयाणा।
भावार्थ-ब्रह्मचारी को स्त्रियों को रागपूर्वक न देखना चाहिये और न उनकी अभिलाषा करनी चाहिये । स्त्रियों का चिन्तन एवं कीर्तन भी उसे न करना चाहिए। सदा ब्रह्मचर्य व्रत में रहने वाले पुरुषों के लिये यह नियम उत्तम ध्यान प्राप्त करने में सहायक है एवं उनके लिये अत्यन्त हितकर है। कामंतु देवीहिं विभूसियाहिं.न चाइयाखोभइतिगुत्ता।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातव भाग
१७६ तहावि एगंत हियं ति नच्चा, विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो ७ भावार्थ - मन वचन काया का गोपन करने वाले मुनियों को चाहे वस्त्राभूषणों से अलंकृत अप्सराएं भी संयम से विचलित न कर सकें फिर भी उन्हें एकान्तवास का ही आश्रय लेना चाहिये । यही उनके लिये अत्यन्त हितकारी एवं प्रशस्त कहा गया है । ( उत्तराध्ययन बत्तीसवा अध्ययन गाथा १४, १५, १६ ) हत्थपाय पलिच्छिन्नं, कन्ननासविगप्पिअं । अवि वाससयं नारिं, भयारी विवज्जए ॥ ८ ॥
भावार्थ - टूटे हुए हाथ पैर वाली और कटे हुए कान नाक चाली सौ वर्ष की बुढ़िया का सग भी ब्रह्मचारी के लिये वर्जनीय है । ( दशचैकालिक आठवां अध्ययन गाथा ५६ ) जड़ वि स थिरचित्तो, तहावि न संसग्गिलद्धपसराए । अग्गिसमीवेव घयं, विलिज्ज चित्त खु अज्जाए ॥ ९ ॥
भावार्थ-साधु स्वयं स्थिर चित्त हो फिर भी आर्या का संपर्क ठीक नहीं है । जैसे आग के पास रहा हुआ घी पिघल जाता है उसी प्रकार साधु संसर्ग से आर्या का चित्त विकृत होकर विच - लित हो सकता है। ( गच्छाचार प्रकीकि गाथा ६६ ) जत्थ य अज्जाहि समं, थेरावि न उल्लविंति गयदसणा । न य झायंति थीणं, अंगोवंगाई नं गच्छं ॥१०॥
भावार्थ - जहाँ स्थविर साधु भी जिनके कि दाँत गिर गये है, आर्याओं के साथ आलाप संलाप नहीं करते एवं स्त्रियों के अङ्ग उपाङ्ग का ध्यान नहीं करते, वही गच्छ है ।
( गच्छाचार प्रकीर्णक गाथा ३२ )
जत्थ य अज्जासई, पडिग्गहमाई विचिहमुवगरणी
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श्री सेठिया जन अन्यमाला परिभुजइ साहूहि, तं गोअम ! केरिसं गच्छं ॥११॥ ___ भावार्थ-हे गौतम ! जहाँ साधु आर्याओं से लाये हुए पात्र आदि विविध उपकरणों का परिभोग करते हैं वह कैसा गच्छ है ?
(गच्छाचार प्रकीर्णक गाथा ६१) जत्थ समुद्देस काले, साहूणं मंडलीइ अज्जाओ। गोयम ! ठचंति पाए, इत्थीरज्जन तं गच्छं ॥१२॥
भावार्य--हे गौतम! जहाँ भोजन के समय साधुओं की मंडली में आर्याएं पैर रखती हैं वह गच्छ नहीं किन्तु स्त्रीराज्य है।
(गच्छाचार प्रकीर्णक गाथा L६) विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीअ रसभोयणं । नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥१३॥
भावार्थ--आत्मशोधक पुरुष के लिये शरीर का शृङ्गार, स्त्रियों का संसर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन, तालपुट विष के समान घातक हैं।
(दशवैकालिक अाठवा अ० गाथा ५७) मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गथा वज्जयंति णं ॥१४॥
भावार्थ--अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है और महादोषों का पूजरूप है। इसीलिये निम्रन्थ मुनि स्त्रीसंसर्ग का त्याग करते हैं।
(दशवैकालिक छठा अध्ययन गाथा १६) 'देवदाणाव गंधब्वा, जक्ख रक्खस किन्नरा । बंभयारिं नर्मसंति, दुक्करं जे करंति तं ॥१५॥
भावार्थ-दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले ब्रह्मचारी पुरुष को देव, दानव, गंधर्व,, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी नमस्कार करते हैं।'
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां माग एस धम्मे धुवे निचे, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चाणेणं, सिज्झिस्सन्ति तहावरे॥१६॥ __ भावार्थ -यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्र व है, नित्य है, शाश्वत है और जिनोपदिष्ट है। इसका आचरण कर पूर्वकाल में कितने ही जीव सिद्ध हुए हैं, वर्तमान में हो रहे हैं और भविष्य में होंगे।
(उत्तराध्यन सोलहवा अध्ययन गाथा १६, १५) १४-अपरिग्रह-परिग्रह का त्याग न ते संनिहिमिच्छन्ति, नायवृत्तवओरया ॥१॥
भावार्थ-ज्ञातपुत्र भगवान महावीर के प्रवचन में रत रहने वाले साधु किसी भी वस्तु का संग्रह करने की इच्छा तक नहीं करते। लोहस्सेस अणुप्फासे, सन्ने अन्नयरामवि । जे सिआ सन्निहिं कामे, गिही पब्वइए न से ॥२॥
भावार्थ--मेरे मतानुसार थोडासा भी संग्रह करना, यह लोभ का परिणाम है । यदि साधु कभी भी संग्रह की इच्छा करता है तो वह गृहस्थ ही है पर साधु नहीं।
जं पि वत्थं व पायं वा, कंवलं पायपुंछणं । तपि संजम लजट्ठा, धारंति परिहरं ति य ॥३॥
भावार्थपरिग्रह रहित मुनि जो भी वस्त्र,पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि वस्तुएं रखते हैं वे एकमात्र संयम की रक्षा के लिये हैं एवं अनासक्ति भाव से वे उनका उपभोग करते हैं। न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । ।
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श्री सेठिया जैन अन्यमाला मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इह वुत्तं महेसिणा ॥४॥
भावार्थ:-प्राणी मात्र के रक्षक ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने मनासक्ति भाव से वस्त्रादि रखने में परिग्रह नहीं बतलाया है। महावीर के अनुसार किसी वस्तु पर मूच्छो-ममत्व यानी आसक्ति का होना ही वास्तव में परिग्रह है। सव्ववत्थुवहिणा वुद्धा, संरक्षण परिग्गहे । अवि अप्पणोऽवि देहम्मि, नायरन्ति ममाइयं ॥५॥
भावार्थ--ज्ञानी पुरुप संयम के सहायभूत वस्त्र पात्रादि उपकरणों को केवल संयम की रक्षा के ख्याल से ही रखते हैं पर मूर्छाभाव से नहीं । वस्त्र पात्रादि पर ही क्या, वे तो अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते। (दशवैकालिक छटा अध्ययन गाथा १७ से २१) चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि । अन्न वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ ॥६॥
भावार्थ--जो व्यक्ति सचित्त या अचित्त थोड़ी या अधिक वस्तु परिग्रह को बुद्धि से रखता है अथवा दूसरे को परिग्रह रखने की अनुज्ञा देता है वह दुःख से छुटकारा नहीं पाता।
(सूयगडाग पहला अध्ययन पहला उहे शा गाथा २) परिग्गहे चेव होंति नियमा सल्ला दंडा य गारवा य। कसाया सन्नाय कामगुण अएहगा यइंदिय लेसाओ। __ भावार्थ-मायादि शल्य, दण्ड, गारव, कषाय, संज्ञा,शब्दादि गुण रूप आश्रय, असंवृत इन्द्रियां और अप्रशस्त लेश्याएं-ये सभी परिग्रह होने पर अवश्य ही होते हैं।
नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अस्थि सव्वजीवाणं सव्वलोए ॥८॥
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग १८३ भावार्थ-सारे लोक में सभी जीवों के परिग्रह जैसा कोई पाश (वन्ध) एवं प्रतिवन्ध नहीं है । (प्रश्नव्याकरण पाचवा अधर्म द्वार सूत्र १६ ण पडिन्नविजासयणासणाइं,सिजनिसिज्जं तह भत्तपाणं गामे कुले वा नगरेव देसे,ममत्तभावं न कहिं पि कुन्जा ॥९॥
भावार्थ-साधु को चाहिये कि मासकल्पादि पूरा होने पर विहार करते समय शयन, आसन, निपद्या (स्वाध्यायभूमि) एवं भक्त पान के सम्बन्ध में गृहस्थ को यह प्रतिज्ञा न करावे कि वापिस आने पर उक्त वस्तुएं मुझे ही देना। ग्राम,कूल, नगर एवं देश में कहीं भी साधु को उपकरणादि पर ममत्व भाव न रखना चाहिये।
(दशवकालिक दूसरी चूलिका गाथा ८) जे ममाइयमति जहाति, से जहाइ ममाइतं । से हु दिट्टपहे मुणी, जस्स णत्थि ममाइतं ॥१०॥
भावार्थजो ममत्व बुद्धि का त्याग करता है वह स्वीकृत परिग्रह का त्याग करता है। जिसके ममत्व एवं परिग्रह नहीं है उसी मुनि ने ज्ञान दर्शन चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को जाना है।
(श्राचारांग दूसरा अध्ययन छठा उद्देशा सूत्र ६६ ) उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे,
__ अन्नायउंछं पुलनिप्पुलाए। कयविक्कयसंनिहीओ विरए,
सव्वसंगावगए अ जे स भिक्खू ॥११॥ भावार्थ-जो साधु वस्त्र पात्रादि संयम के उपकरणों में मूर्छा एवं गृद्धिभाव का त्याग करता है, अज्ञात कुलों से थोड़ी थोड़ी शुद्ध भिक्षा लेता है, संयम को असार वनाने वाले दोषों से तथा क्रय, विक्रय और संचय से दूर रहता है एवं सभी द्रव्य भाष
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
संगों से निर्लिप्त रहता है वही सच्चा भिक्षु है ।
( दशवेकालिक दसवां अध्ययन गाथा १६ )
१५ – रात्रि भोजन त्याग
अत्थंगयम्मि आइचे, पुरत्था य अणुग्गए । आहारमाइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए || १ ||
भावार्थ- सूर्य के उदय होने से पहले और सूर्य के अस्त हो जाने के बाद मुनि को सभी प्रकार के भोजन पान आदि की मन से भी इच्छा न करनी चाहिये । (दशवैकालिक चाटना थ० गाथा २८)
जता दिया न कप्पड़, तमं ति काऊण कोट्टगादीसुं । किं पुण तमस्सिनीए, कप्पिस्सइ सव्वरीए उ ॥ २ ॥
भावार्थ - अन्धकार वाले कोठे आदि में, अन्धकार के कारण, जब दिन में भी आहार पानी लेना मुनि को नहीं कल्पता फिर अन्धकार वाली रात्रि में श्राहारादि लेना उसके लिये कैसे ठीक हो सकता है ? ( बृहत्कल्प भाष्य पहला उ० गाथा ७०१ )
संति मे सुहुमा पाणा, तसा अदुव धावरा | जाई राओ अपासंतो, कहमेसणिअं चरे ॥ ३॥
भावार्थ-संसार में बहुत से त्रस स्थावर प्राणी इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे रात्रि में दिखाई नहीं देते। फिर उनकी रक्षा करते हुए रात्रि में आहार की शुद्ध एषणा एवं भोजन कैसे हो सकते हैं ?
उदउल्लं वीयसंत्तं, पाणा निवडिया महि |
! दिआ ताइं विवज्जिज्जा, राओ तत्थ कहं चरे ॥४॥
? भावार्थ- जमीन पर कहीं पानी पड़ा होता है, कहीं बीज बिखरे
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवाँ भाग १८५ होते हैं और कहीं कीड़े मकोड़े आदि प्राणी होते हैं। दिन में उन्हें देख कर बचाया जा सकता है पर रात्रि में उनकी रक्षा करते हुए संयमपूर्वक कैसे चला जा सकता है ? एयं च दोस दट्टणं, नायपुत्तेण भासियं । सवाहारं न भुजंति, निग्गंथा राइ भोयणं ।। ५॥ __ भावार्थ-ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर द्वारा कहे हुए प्राणि-हिंसा, आत्मविराधना आदि रात्रिभोजन के दोषों को जानकर निर्ग्रन्थ मुनि रात्रि में किसी प्रकार का आहार नहीं करते ।
(दशव मलिक छटा अध्ययन गाथा २३, २४, २५)
१६-मरवृत्ति जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । ण य पुष्कं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥ १॥ __ भावार्थ-श्रमर वृक्ष के पुष्पों से इस प्रकार रसपान करता है कि फलों को जगभी पीड़ा नहीं होती और वह चुप्त भी हो जाता है। एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया ॥२॥
भावार्थ-लोक में बाह्य प्राभ्यन्तर परिग्रह से मुक्न जो तपस्वी साधु हैं वे भी दाता द्वारा दिये हुए निर्दोष आहार की एपणा में ठीक उसी तरह रत रहते हैं जिस प्रकार भ्रमर पुष्पों में रत रहते हैं। वयं च वित्तिं लम्भामो, न य कोइ उवहम्म अहागडेसु रीयंते, पुप्फेतु भमरा जहा//l भावार्थ-साधु इस प्रकार वृत्ति प्राप्त करते हैं कि किसी भी
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१८॥
श्री सैठिया जैन अन्यमाला प्राणी की हिंसा न हो। फूलों से भंवरों की तरह वे गृहस्थों के यहां से, उनके निज के लिये बनाये हुए आहार में से थोड़ा थोड़ा आहार लेते हैं। महुगारसमा वुद्धा, जे भगति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता, तेण वुचंति साहुणो ॥४॥
भावार्थ-तत्वज्ञ मुनि भ्रमर जैसी वृत्ति वाले होते हैं। वे कुलादि के प्रतिबन्ध से रहित होते हैं, अनेक घरों से थाड़ा थोड़ा आहार लेकर अपना निर्वाह करते हैं एवं इन्द्रियों का दमन करते हैं इसी लिये वे साधु कहे नाते हैं। (दशवकालिक पहला अ० गाथा २से ५ )
१७-मृगचर्या
त बितऽम्मापिअरो, छंदेणं पुत्त! पव्वया ! नवरं पुण सामरणे, दुक्खं निप्पडिकम्मया ॥१॥ ___ भावार्थ-अन्त में माता पिता ने मृगापुत्र से कहा-हे पुत्र ! यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो खुशी के साथ तुम प्रव्रज्या धारण कर सकते हो। किन्तु तुम्हें मालूम होना चाहिये कि साधु अवस्था में रोग होने पर उसका उपचार (इलाज) नहीं किया जाता, यह नियम बड़ा ही कठोर है।
सो बितऽम्मापियरो, एवमेयं जहाफुड। परिकम्मं को कुणई, अरण्णे मियपक्खिणं ॥२॥
भावार्थ- उत्तर में मृगापुत्र ने कहा-हे माता पिता ! आपका कहना यथार्थ है। पर यह भी विचारिये कि जंगल में मृग और पक्षियों का उपचार कौन करता है ?
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
१८७
एगभूओ अरण्णे वा जहा ऊ चरई मिगो । एवं धम्मं चरिस्सामि, संजमेण तवेण य ॥ ३॥
भावार्थ - जैसे जंगल में मृग एकाकी विहार करता है इसी प्रकार संयम और तप का आचरण करता हुआ मैं भी एकाकी ( रागद्वेष रहित ) होकर विहार करूंगा ।
जया मिगस्स आयंको महारण्णम्मि जायइ । अच्छन्तं रुक्खमूलम्मि, को णं ताहे तिगिच्छ ॥४॥
भावार्थ - जब महावन में मृग के रोग उत्पन्न होता है तब वृक्ष के नीचे बैठे हुए उस मृग की उस समय कौन चिकित्सा करता है ?
कोवा से ओसहं देह, को वा से पुच्छर सुहं | को वा से भत्तं वपाणं वा, आहरितु पणामए ॥ ५ ॥
भावार्थ - वहाँ उसे कौन औषधि देता है? कौन उसके शरीर का हाल पूछता है? उसे भोजन पानी लाकर कौन खिलाता पिलाता है?
जया मे सुही होइ, तया गच्छइ गोयरं । भत्तपाणस्स अट्ठाए, वल्लराणि सराणि य ॥६॥
भावार्थ - जब मृग स्वतः स्वस्थ होता है। तब वह चरने के लिये जाता है और वन तथा जलाशयों में चारा पानी की खोज करता है।
खाइत्ता पाणियं पाउं, वल्लरेहिं सरेहिं य । मिगचारियं चरित्ताणं, गच्छइ मिगचारियं ||७||
भावार्थ - जंगल में घास चर कर तथा सरोवर में पानी पीकर वह मृग की स्वाभाविक चर्या का सेवन करता है एवं वापिस अपने निवास स्थान पर या जाता है।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
एवं समुट्टिओ भिक्खू, एवमेव अणेगए । मिगचारियं चरित्ताणं, उड्ढे पक्कमइ दिसं ॥८॥
भावार्थ-संयम क्रिया में ममुद्यत भिक्षु,मृग की तरह, रोगादि होने पर चिकित्सा की परवाह नहीं करता। वह मृग की तरह ही, किमी निश्चित स्थान पर निवास भी नहीं करता। इस प्रकार मृग जैमी चर्या का पालन कर मोक्षमार्ग का आराधक वह मुनि ऊध्यदिशा की ओर गमन करता है अर्थात् निर्माण प्राप्त करता है। जहा लिए एग अणेगचारी, अणेगवासे धुवगोअरे । एवं मुणी गोयरियं पविहे नोहीलए नोवियखिसाजा। ___ भावार्थ-जैसे मृग अकेला रहता है और अपने पास पानी के लिये अनेक स्थानों में भ्रमण करता है। वह एक जगह टिक कर नहीं रहता और सदा गोचरी करके ही निर्वाह करता है । साधु भी मृग जैसी चर्या वाला होता है। उसे गोचरी में यदि अमनोज्ञ आहार भी मिले तो उसकी अवहेलना एवं दाता की निन्दा न करनी चाहिये।
(उत्तराध्ययन उन्नीसवा अध्ययन गाथा ७५ से ३) १८-सचा त्यागी
जे य कते पिये भोए, लद्धे विपिट्ठीकुवइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुचइ ॥१॥
भावार्थ-जो पुरुष मनोज्ञ एवं प्रिय भोगों को ठुकरा देता है, स्वाधीन भोग सामग्री का त्याग करता है वही त्यागी कहा जाता है।
वत्थं गंध मलंकारं, इथिओ सयणाणि य । अच्छंदाजे न भुजति, न से चाइत्ति चुच्चइ ॥२॥
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श्री जन सिद्धान्त बोज संग्रह, सातवा भाग १८६ भावार्थ-जो अभाव या पराधीनता के कारण विवश हो वख, गन्ध, आभूषण, स्त्री,शय्या आदि भोग सामग्री का उपभोग नहीं करता वह त्यागी नहीं है। दशवकालिक दूसग अ० गाथा ३, २) १६-वमन किये हुए को ग्रहण न करना
पक्खंदे जलिय जोई, धूमकेउ'दुरासयं। नेच्छन्ति वंतयं भो,कुले जाया अगंधणे ॥१॥
भावार्थ-अगंधन कुल में उत्पन्न हुए सर्प जलती हुई दु:मह अग्नि में कूद पड़ते हैं किन्तु वमन किये हुए विष का पान करने की इच्छा तक नहीं करते।
घिरत्यु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा। नंतं इच्छसि आवेउ, सेयं ते मरणं भवे ॥ २ ॥
भावार्थ-हे अपयश के चाहने वाले ! तुम्हें धिकार है जो तुम असंयम जीवन के लिये वमन किये हुए भोगों को वापिस ग्रहण करना चाहते हो। इस अकार्य को करने की अपेक्षा तुम्हारा मर जाना बेहतर है। (दशवकालिक दूसरा अ० गाथा ६-७)
नंतासी पुरिसो रायं, न सो होइ पसंसिओ। माहणेण परिचत्तं, धणमादाउमिच्छसि ॥३॥
भावार्थ-हे राजन् ! आप ब्राह्मण से छोड़े हुए धन को ग्रहण करना चाहते हैं। पर आपको यह मालूम होना चाहिये कि वमन की हुई वस्तु को खाने वाले की प्रशंसानहीं,परन्तु निन्दाही होती है।.
(उत्तराध्ययन चौदहवां अ० गाथा ३८) जह तं तु अभोज,भत्तं जइविय सुसक्कयंआसि। एवमसंजमवमणे, अणेसणिज्ज अभोज्जं तु ॥४॥
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१४...
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
. भावार्थ- चाहे भोजन कितना ही बढ़िया संस्कार चाला हो पर धमन कर देने पर व जैसे खाने योग्य नहीं रहता। इसी प्रकार असंयम कात्याग कर देने के बाद असंयमकारी अनेपणीय आहार भी साधु के लिये भोजन योग्य नहीं होता । (पिण्डनियुक्ति गाथा १६१) णिक्खम्ममाणाइ य वुद्धवयणे,
: णिचं चित्तसमाहिओ हवेज्जा। इत्थीण वसं न यावि गच्छे, - . नंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू ।। ।।
भावार्थ--भगवान् की आज्ञानुसार दीक्षालेकर जो सदा उनके वचनों में सावधान रहता है। स्त्रियों के वश नहीं होता तथा छोड़े हुए विषयों का पुनः सेवन नहीं करता वही सच्चा साधु है।
(दशवकालिक दसवां अध्ययन गथा १) चिचाण धणंच भारिणं, पव्वइओ हिसि अणगारियं। मानंतं पुणो वि आविए, समयं गोयमा मा पमायए।६।
भावार्थ--हे गौतम ! तुम धन और स्त्री का त्याग कर दीक्षित हुए हो। वमन किये हुए इनका पुनः पान न करना एवं समय मात्र भी प्रमाद न करना। (उत्तराध्ययन दसवां अ० गाथा २६)
२०-पूजा प्रशंसा का त्याग अञ्चणं रयणं चेव, नंदणं पूयणं तहा । इड्ढी सक्कार सम्माणं,मणसा वि न पत्थए ॥१॥ भावार्थ--अर्चा, पूजा, वन्दना, नमस्कार, ऋद्धि. सत्कार और सम्मान-इनकी मुमुक्षु मन से भी इच्छा न करे।
(उत्तराध्ययन ३५ वां अध्ययन गाथा १)
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श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, सातवा भाग
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• जसं कित्ति सिलोगं च, जा य वंदण पूयणा। सव्वलोयंसि जे कामा, तं विजं परिजाणिया ॥२॥
भावार्थ--यश, कीर्ति, श्लाघा, वन्दन और पूजन तथा समस्त लोक में जो कामभोग हैं वे भात्मा के लिये अहितकर हैं । अतएव विद्वान् मुनि को इनका त्याग करना चाहिये।
(सूयगडांग नवा अध्ययन गाथा २२) अभिवायण मन्भुट्ठाणं, सामी कुन्जा निमंतणं । जो ताई पडिसेवंति, नो तेसिं पीहए मुणी ॥३॥
भावार्थ-जो स्वतीर्थी या अन्यतीर्थी साधु राजा आदि द्वारा किये गये अभिवादन ( नमस्कार , अभ्युत्थान एवं निमंत्रण का सेवन करते हैं। उन्हें देखकर साधु उनके सौमाग्य की सराहना एवं कामना न करे। (उत्तगययन दूसरा श्र० गाथा ३८)
नोकित्ति वएण सद्द सिलोगट्टयाए तवमहिढेजा। नो कित्तिवपण सद्द सिलोगट्टयाए आयारमहिढेजा।
भावार्थ-प्राचार का पालन एवं तप का अनुष्ठान कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लाघा के लिये न होना चाहिये।
नोट-सभी दिशाओं में फैला हुआ यश कीर्ति है, एक दिशा में फैला हुआ यश वर्ण है। अर्द्ध दिशा में फैला हुआ यश शब्द है एव स्थानीय यश श्लाघा कहा जाता है।
(दशवकालिक नयां अभ्ययन चौथा उद्देशा) जेन वंदे न से कुप्पे, वंदिओ न समुक्कसे । एवमन्नेसमाणस्स, सामण्ण मणुचिट्ठइ ॥५॥ भावार्थ- साधु को चाहिये कि वन्दना न करने वाले पर वह
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
कोप न करे और न वन्दना किये जाने से अभिमान ही करे। भ गान् की इस आज्ञा का आराधक मुनि पूर्ण साधुत्व का अधिकारी होता है। (टशवकालिक पांचवां अध्ययन दूसरा उद्देशा गाथा ३०) नेसि पि न तवो सुद्धो, निक्खन्ता जे महाकुला। जं नेवन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेजए ॥६॥
भावार्थ-महान् सम्पन्न कुल के ऋद्धि ऐश्वर्य का त्याग कर दीक्षालेने वाले पुरुष भी यदि पूजा प्रतिष्ठा के लिये तप का आचरण करते हैं तो उनका वह तप अशुद्ध है। साधु को इस प्रकार तप करना चाहिये कि दूसरों को उसका पता ही न लगे । उसे अपनी प्रशंसा भी कमी न करनी चाहिये। (सूयगडांग ०८गाथा २४) महयं पलिगोव जाणिया, जाविय वंदण पूयणा इह। सुहमे सल्ले दुरुद्धरे, विउमन्ता पयहिज संथवं ॥७॥
भावार्थ-लोक में जो वन्दना पूजा रूप सत्कार होता है वह साधु के लिये महान् अभिष्वङ्ग (प्रासक्ति ) रूप है । यह बड़ा ही सूक्ष्म शल्य है जिमकानिकालना अति कठिन है । अतएव विवेकशील साधु को गृहस्थों से परिचय ही न रखना चाहिये।
(सूयगडांग दूसरा अध्ययन दूसरा उद्देशा गाथा ११) पूयणट्ठा जसोकामी, माणसम्माणकामए । बहुं पसवइ पावं माया सल्लं च कुबइ ।।८।।
मात्राथे-पूजा एवं प्रशंमा को कामना तथा मान मन्मान की लालसा वाला साधु बहुत पाप करता है एवं माया शल्य का सेवन करता है। (दशवैक लिपांचवां अ० दूमग 3० गाथा २५)
इद्धिं च सक्कारण पूयणं च, । चंए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू ॥९॥ ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातव भाग
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भावार्थ - जो ऋद्धि सत्कार और पूजा का त्याग करता है, जो ज्ञानादि में स्थित है एवं माया रहित है वही भिक्षु है । ( दशवैकालिक दसवा अध्ययन गाथा १७ )
नो सक्किय मिच्छड़ न पूर्य,
नो विय वंदणगं कुओ पसंसं । से संजय सुन्वए तवस्सी,
सहिए आयगवेसएस भिक्खु ॥१०॥
भावार्थ- जो साधु सत्कार नहीं चाहता, बन्दना और पूजा की इच्छा नहीं करता एवं प्रशंसा का अभिलाषी नहीं है वही सदनुटान करने वाला, सुव्रत वाला और तपस्वी है। ज्ञान क्रिया सहित होकर मोच की गवेषणा करने वाला वही सच्चा भिक्षु है ।
( उत्तराध्ययन पन्द्रहवा ग्रध्यवन गाथा ५ )
रति
२१ - रति
अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तमं
रयाण परियाय तहाऽरयाणं । निरयोवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं
रमेज तम्हा परियाय पंडिए ॥१॥
भावार्थ-संयम में रति रखने वाले मुनियों के लिये साधु पर्याय देवलोक की तरह सुखद है एवं संयम में अरति वालों को यही पर्याय नरक की तरह दुःखद प्रतीत होती है। इसलिये पंडित मुनि सदा साधु-पर्याय में रत रहे । (दशवैकालिक पहली चूलिका गाथा ११) सज्झाय संजम तवे, वेआवचे अ झाण जोगे अ । जो रमइनो रमद्द असंजमम्मि सो वञ्चइ सिद्धिं ॥२॥
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला भावार्थ-जो पुरुष स्वाध्याय, संयम, तप, वैयावृत्त्य तथा धर्मध्यान में रत रहता है और असंयम से विरत रहता है वह मोक्ष प्राप्त करता है।
(दशवैकालिक नियुक्ति गाथा ३६६) अरई आउद्दे से मेहावी, खणंसि मुक्के ॥३॥
भावार्थ-संसार की असारता को जानने वाला साध संयम विपयक अति को दूर करे। ऐसा करने से वह अल्प काल में ही मुक्त हो जाता है। (श्राचाराग दूसरा अध्ययन दूसरा उद्देशा सूत्र ७१)
नारइं सहई वीरे, धीरे न सहई रई । जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे न रजइ ॥४॥
भावार्थ-धीर साधु संयम विषयक अरति एवं विषय परिग्रह सम्बन्धी रति को अपने मन में स्थान नहीं देता। उक्त रति अरति से निवृत्त होने के कारण वह शब्दादि विषयों में मूञ्छित नहीं होता।
(श्राचारांग दूसरा अध्ययन छठा उद्देशा सूत्र ६६ ) अरइं पिट्टओ किच्चा, विरए आयरक्खिए । धम्मारामे निरारंभे, उवसंते मुणी चरे ॥५॥
भावार्थ-यदि कभी मोहवश साधु को संयम में अरति उत्पन्न हो तो उसे उसका तिरस्कार कर देना चाहिये। हिंसादि से निवृत्त एवं दुर्गति से आत्मा की रक्षा चाहने वाले साधु को धर्म ही में रत रहना चाहिये। उसे प्रारम्भ तथा कषाय का त्याग करना चाहिये ।
___ (उत्तराध्ययन दूसरा अध्ययन गाथा १५) वालाभिरामेसु दुहावहेसु, न त सुहं कामगुणेसु रायं । विरत्तकामाण तवोधणाण.जंभिक्खूणं सीलगुणे रयाणं
भावार्थ-हे राजन् ! बालमनोहर दुःखावह इन कामगुणों
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां माग १६५. में,वह सुख नहीं है जो सुख शील गुणों में रत रहने वाले, शब्दादि विषयों से विरक्त तपस्वी मुनियों को होता है।
(उत्तराध्ययन तेरहवा अध्ययन गाथा १७) २ -यतना
कह चरे कह चिट्टे, कहं आसे कहं सए । कह भुजंतो भासतो, पावं कम्मं न बंधइ ॥१॥
भावार्थ-कैसे चले ? कैसे खड़ा हो? कैसे बैठे और कैसे सोये? तथा किस प्रकार भोजन एवं भापण करे कि पापकर्म का बन्ध न हो?
जयं चरे जयं चिट्ठ: जयमासे जयं सए । जयं भुजंनो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ ॥२॥
भावार्थ-यतना से चले, यतना से खड़ा हो,यतना से बैठे और यतना से सोवे । इसी प्रकार यतना से भोजन एवं भापण करने से पाप कर्म का पन्ध नहीं होता। (दशवकालिक चौथा अ० गाया ४.८) जयणेह धम्म जणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव । तवडूढिकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा ॥३॥
भावार्थ-यतना धर्म की जननी है और यतना ही धर्म का रक्षण करने वाली है । यतना से तप की वृद्धि होती है और वह एकान्त रूप से सुख देने वाली है। (प्रतिमा शतक)
२३--विनय एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो। जेण कित्तिं सुअं सिग्धं, नीसेसं चाभिगच्छह ॥१॥
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
भावार्थ - विनय धर्म रूप वृक्ष का मूल है और मोक्ष उसका सर्वोत्तम रस है । विनय से कीर्ति होती है और पूर्णतः प्रशस्त श्रुतज्ञान का लाभ होता है । (दशवैकालिक नवा ० उ० २ गाथा २ )
विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाउ विषयमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो |४|
भावार्थ - विनय जिनशासन का मूल है । विनीत पुरुष ही संयमवन्त होता है । जो विनयरहित है उसके धर्म और तप कहाँ से हो सकते हैं ? ( हरिभद्रीयावश्यक नियुक्ति गाथा १२१६)
आणा निद्देसकरे, गुरूण मुववाय कारए | इंगियागार सम्पन्ने, से विणीए ति बुवइ ॥३॥
भावार्थ - जो गुरु की आज्ञा पालता है, उनके पास रहता है, उनके द्द' गित तथा आकारों को समझता है वही शिष्य विनीत कहलाता है। ( उत्तराध्ययन पहला श्र० गाथा २ ) विणण णरो गंधेण, चंदणं सोमयाइ स्यणियरो । महुररसेणं अमयं, जणन्पियत्तं लहइ भुवणे ||१४||
भावार्थ - जैसे संसार में सुगन्ध के कारण चन्दन, सौम्यता के कारण शशि एवं मधुरता के कारण अमृतलोक में प्रिय है । इसी प्रकार विनय के कारण मनुष्य भी लोगों का प्रिय बन जाता है। ( धर्मरत्न प्रकरण १ अधिकार ) अणासवा थूलवया कुसीला, मिउंपि चंडं पकरंति सीसा। चित्ताणुया लहु दक्खोववेया, पसादए ते हु दुरासयं | ५ |
भावार्थ - गुरु का वचन नहीं सुनने वाले, कठोर वचन बोलने वाले एवं दुःशील का आचरण करने वाले शिष्य सौम्य स्वभाव
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संभह, सातवाँ भाग १६७ वाले गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं। इसके विपरीत गुरु की वित्तवृत्ति का अनुसरण करने वाले और विना विलम्ब शीघ्र ही गुरु का कार्य करने वाले शिष्य,तेज स्वभाव वाले गुरु को भी प्रसन कर लेते हैं। (उत्तराध्ययन पहला अध्ययन गाथा १३) जे यावि मंदत्तिगुरुं विइत्ता,डहरे इमे अप्पसुएत्तिनचा। हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा,करेंति आसायण ते गुरू।
भावार्थ-गुरु को मन्दबुद्धि,छोटी अवस्था का एवं अल्पभुत जान कर जो उनकी अवहेलना करते हैं वे मिथ्यात्व को प्राप्त कर गुरु की श्राशातना भरते हैं । (दशथैकालिक नयाँ अध्ययन पहला उ० गाथार) विणयं पि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो। दिव्वं मो सिरिमिज्जंति, दंडेण पडिसेहए ॥७॥
भावार्थ-विविध उपायों से विनय के लिये जो प्रेरणा करता है उस पर कोप करना मानो आती हुई दिव्य लक्ष्मी को लाठी मार कर रोकना है। दशवकालिक नया अध्ययन उ• २ गाथा ४ ) जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसगेंसिया। जे मोगपयं उवहिए, नो लज्जे समयं सया चरे ८
भावार्थ-चाहे कोई अनायक यानी स्वामी रहित चक्रवर्ती हो या कोई दास का भी दास हो किन्तु जिसने संयम स्वीकार किया है। उसे लज्जा कात्याग कर समताभाव का आचरण करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि चक्रवर्ती को दासानुदास को, वन्दना करने में लज्जित न होना चाहिये और न दासानुदास को चक्र. वर्ती से वन्दना पाकर गर्षित ही होना चाहिये।
(सूयगडांग दूसरा अध्ययन दूसरा उद्देशा गाथा ३)
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श्री सेठिया जैन मन्थमात्ता
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में शिथिलता न माने पावे |
( मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा १३४ ) (महानिशीथ पहली चूलिका गाथा १४ ) तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजमजोगसन्ती, होमं हुणामि इसिणं पसत्थं | ८ |
भावार्थ - तप रूप अग्नि है । जीव अग्नि का कुंड है। मन वचन काया के शुभ व्यापार तप रूप अग्नि को प्रदीप्त करने के लिये घी डालने की कुड़छी समान और यह शरीर कंडे समान है । कर्म रूप लकड़ी है और संयम के व्यापार शान्ति पाठ रूप हैं । इस प्रकार मैं ऋषियों द्वारा प्रशंसा किया गया चारित्र रूप भाव होम करता हूँ ।
( उत्तराध्ययन बारहवा अध्ययन गाथा ४४ )
तवस्सियं किस दंतं, अवचियमंससोणियं । सुव्वयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं वूम माहणं ॥ २९ ॥
भावार्थ - जो तपस्वी है, दुबला पतला है, इन्द्रियों का निग्रह करने वाला है, उग्र तप कर जिसने शरीर के रक्त और मांस सुखा दिये हैं, जो शुद्ध व्रत वाला है, जिसने कपाय को शान्त कर आत्मशान्ति प्राप्त की है उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं । (उत्तराध्ययन पचीसवां अध्ययन गाथा २२ )
सक्खं खुदीसह तवोविसेसो, न दीसई जाइ विसेस कोइ ॥ १० ॥
भावार्थ - साक्षात् तप ही की विशेषता दिखाई देती है, जाति में कोई विशेषता नहीं है ।
( उत्तराध्ययन चारहवां अ० गाथा ३७ )
एवं नवं तु दुविहं, जं सम्मं आयरे मुणी । से खिष्पं सव्वसंसारा, विप्पमुचइ पंडिए |११|
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श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, सातवां भाग २०५ ___ भावार्थ-जो पण्डित मुनि अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायाक्लेश और प्रतिसंलीनता रूप वाह्य तप एवं प्रायश्चित्त, विनय, यावृत्त्य, स्वाध्याय,ध्यान और व्युत्सर्ग रूप आभ्यन्तर तप का सम्यक् आचरण करता है वह शीघ्र ही चतुगैतिरूपसंसार से मुक्त हो जाता है। (उत्तराध्ययन तीसवां श्रगाथा ३७)
१७-अनासक्ति
जहा पोम्म जले जायं, नोवलिप्पा वारिणा।
एवं अलितं कामेहि, तं वयं वूम माहणं ॥१॥ - मावार्थ-जैसे कमल जल में उत्पन्न होकर भी जल से निर्लिस रहता है। इसी प्रकार कामभोगों में लिप्त-आसक्त न होने वाले पुरुष को हम ब्राह्मण कहते हैं। उत्तराध्ययन पचीसवां श्र० गाथा २७) रूवेसुजोगिद्धि मुवेइ तिचं,अकालियंपावड़ सेविणासं। रागाउरेसेजह्वा पयंगे,आलोयलोले समुवेइ मच्चुं ॥२॥
भावार्थ-जो आत्मा, रूप में तीव्र गृद्धि-आसक्ति रखता है वह असमय में ही विनाश प्राप्त करता है । रागातर पतंग दीपक की लौ में मूञ्छित होकर प्राणों से हाथ धो बैठता है। सद्देसुजोगेहिमुवेइ तिव्वं,अकालियं पावइ सोविणासं । रागाउरे हरिणमिउवमुद्दे,सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चु ।३।
भावार्थ-जो-जीव शब्दों में अत्यन्त आसक्त है वह अकाल ही में विनष्ट हो जाता है। रागवश हिरण संगीत में मुग्ध होकर - अवम ही मौत का शिकार हो जाता है ।
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२०६:
श्री सेठिया जन् अन्यमाला, गंधेसु जोगेहि मुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ सो विणासं। रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे,सप्पे बिलाओचिव निक्खमंते।।
भावार्थ--जो जीव गन्ध में तीव्र आसक्ति रखता है वह नागदमनी आदि औषधि की सुगन्ध में गृद्ध होकर रागवश बिल से बाहर आये हुए सर्प की तरह शीघ्र ही विनाश प्राप्त करता है। रसेसु जो गेहिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ सो विणासं। रागाउरेबडिसविभिन्नकाए,मच्छे जहाआमिसभोगगिद्धे।
भावार्थ-रागवश मांस के स्वाद में मूञ्छित हुआ मत्स्य(मछली) जैसे कोटे में फंसकर मर जाता है इसी प्रकार रसों में गृद्धि रखने वाला आत्मा भी अकाल ही में विनाश पाता है। फासेसुजोगेहिमुवेइ तिव्वं,अकालियंपावइ-सोविणासं। रागाउरेसीयजलावसनो,गाहरगहीए महिसेवरपणे॥६॥ ____मावार्थ-रागवश शीतल जल में सुख से - बैठा हुआ,भैंसा , जैसे मगर से पकड़ाजाकर मारा जाता है इमी प्रकार मनोहर स्पर्शी में तीव्र आसक्ति वाला आत्मा अकाल ही में विनाश पाता है। भावेसु जोगेहिमुवेइ तिब्वं, अकालियं पावइ.सोविणासं। रागाउरे कामगुणेसु गिद्ध, करेणुमग्गावहिए व णागे॥७॥
भावार्थ-कामगुणों में गृद्ध होकर हथिनीका पीछा करने वाला.. रागाकुल हाथी जैसे पकड़ा जाता है और संग्राम में मारा जाता है। इसी प्रकार विषय सम्बन्धीभावों में तीव्र गृद्धि रखने वाला आत्मा अकाल ही में विनाश प्राप्त करता है। ,
(उत्तराध्ययन बतीसवां अध्ययन गाथा २४,३७,५०,६३,७६,51)
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। २१२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला दायी होते हैं किन्तु वीतराग पुरुष को ये विषय कभी थोड़ा सा भी दुःख नहीं देते। (उत्तगध्ययन बत्तीसवा अध्ययन गाया १००)
२६-रसना (जीम) का संयम रसा पगामंन निसेवियव्वा,पायं रसादित्तिकरा नराणं। वित्तंच कामासमभिद्दवन्ति,दुमं जहासाउफलं व पक्खी
भावार्थ-घृत मादि रसों का अधिक मात्रा में सेवन,नहीं करना चाहिये क्योंकि प्रायः रस मनुष्यों में काम का उद्दीपन करते हैं । उद्दीप्त मनुष्य की ओर कामवासनाए' ठीक वैसे ही दौड़ी आती है, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष की ओर पक्षी दौड़े आते हैं।
(उत्तराध्ययन सोलहवां अध्ययन गाथा ७) पणीयं भत्तपाणं तु, खिप्पं मयविवड्ढणं। बंभचेररओ भिक्खू, निचसो परिवज्जए ॥२॥
भावार्थ-पौष्टिक रसीला भोजन विषय वासना को शीघ्र ही उत्तेजित करता है । अतएव ब्रह्मचारी साधु को इसका सदा त्याग करना चाहिये। (उचराध्ययन सोलहवां श्र० गाथा ७) जे मायरं च पियरं च हिच्चा,गारं तहा पुत्त पसुंधणं च। कुलाई जोधावइ साउगाई,अहाहु से सामणियस्स दूरे॥
भावार्थ-माता, पिता, पुत्र परिवार. घर, पशु और धन का त्याग कर सयम अङ्गीकार करके भी जो स्वादवश स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में भिक्षा के लिये जाता है वह साधुत्व से बहुत दूर है।
(सूयगडांग सातवा अध्ययन गाथा ६३) से भिक्खू वा सिक्खुणी वा असणं वा आहारेमाणे णो वामाओ हणुयाओदाहिणंहणुयंसंचारना आसा
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श्री जन सिदान्त बोल संग्रह, सातवां माग २१३ एमाणे,दाहिणाओ वा हणुयाओचामं हणुयं णो संचारेज्जा आसाएमाणे |से अणासायमाणे लाघवियं आगममाणे । तवे से अभिसमन्नागए भवइ ॥४॥
भावार्थ- साधु या साध्वी अशनादि काश्राहार करते समय, स्वाद के लिये ग्रास को मुंह में बांयी ओर से दाहिनी ओर, और दाहिनी ओर से बांयी ओर न करे । इस प्रकार स्वाद का त्याग करने से साधु श्राहार विषयक लघुता--निश्चिन्तता प्राप्त करता है और उसके तप कहा गया है ।
(श्राचाराग आठयां अध्ययन छठा उद्देशा सूत्र २१७) अलोलो न रसे गिद्धो,जिन्भादतो अमुच्छिओ। न रसट्ठाए मुंजिज्जा, जवणहाए महामुणी ॥५॥
भावार्थ-जिह्वा को वश करने वाला अनासक मुनि सरस आहार में लोलुपता एवं गृद्धि का त्याग करे । महामुनि स्वाद के लिये नहीं किन्तु संयम का निर्वाह करने के लिये भोजन करे ।
(उचराध्ययन पैतीसवां अध्ययन गाथा १७ ) आयामगं चेव जवोदणं च, सीयं सोवीरजवोदगं च । नोहीलए पिंडं नीरसंतु,पंतकुलाणि परिन्चए सभिक्खू ।।
भावार्थ-ग्रोसामण, जौ का दलिया, ठंडा भोजन, कॉजी का पानी, जौ का पानी, इस प्रकार स्वाद रहित नीरस मिक्षा पाकर भी जो साधु उसकी हीलना नहीं करता तथा असम्पन्न घरो में नाकर मिक्षा वृत्ति करता है वही सच्चा साधु है।
(उत्तराध्ययय पन्द्रहवा अध्ययन गाथा १३) तपि न स्वरसत्शं. न य वण्णत्थं न चेव दप्पत्थं । सजम भरवहणत्वं, अक्खोवंगं व वहणत्वं ॥७॥
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला भावार्थ:-जैसे पहिये को घराबर गति में रखने के लिये धुरी में तैल लगाया जाता है उसी प्रकार शरीर को संयम यात्रा योग्य रखने के लिये आहार काना चाहिये। किन्तु न स्वाद के लिये, न रूप के लिये, न वर्ण के लिये और न बल के लिये ही भोजन करना चाहिये।
(गच्छाचार पहराणा गाथा १८) ३०-कठोर वचन मुहुत्त दुक्खा उ हवन्ति कंटया,
अओमया ते वि तओ सुउद्धरा । वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धारणि,
वेराणुगंधीणि महन्भयाणि ॥१॥ भावार्थ--लोहे के तीखे काँटे थोड़े समय तक ही दुःख देते हैं। और वे सहज ही शरीर में से निकाले जा सकते हैं। किन्तु हृदय में चुभे हुए कठोर वचनों का निकालना सहज नहीं है। इनसे वर वधता है और ये महा भयावह सिद्ध होते हैं ।
(दशवैकालिक नवा अध्ययन तीसरा उद्देशा गाथा ५) पहिगरणकडस्स भिक्खुणो,वयमाणस्स पसज्झदारुणं। अपरिहायति बहू,अहिगरणं न करेज्ज पंडिए ॥२॥
भावार्थ--जो साधु कलह करता है, दूसरों को भयभीत करने वाले दारुण वचन बोलता है। उसके मंयम की बहुत हानि होती है । अतएव पंडित मुनि को चाहिये कि वह कलह न करे ।
(सूयगडाग दूसरा अध्ययन दूसरा उ० गाथा १६) अप्पत्ति जेण सिआ, आसु कुप्पिन्न वा परो। सव्वसो तं न भासिजा, भासं अहिअगामिणि ॥३॥
भावार्थ-जिस भाषा को सुनकर दूसरों को अप्रीति उत्पन
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श्री अन सिद्धान्त गोल संग्रह, सातवा माग २१५ हो, सामने वाला शीघ्र ही कुपित हो, इहलोक और परलोक में
आत्मा का अहित करने वाली ऐमी भ पा माधक को कतई न बोलनी चाहिये। (दशवकालिक पाठवाँ १० गाथा ४८)
तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडगत्ति वा । वाहिअं वावि रोगित्ति, तेरा चोरत्ति नो वए ॥४॥
भावार्थ-काने को काना,नपुंसक को नपुंसक,गेगी को गेगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है. फिर भी ऐमा नहीं कहना चाहिये। क्योंकि इससे उन व्यक्तियों से दुःख पहुँचता है।)
(दसवैकालिक सातवा अध्ययन गाथा १२) तहेव फरसा भासा, गुरु भूओवगाघाइणी । सचा वि सा न वत्तचा, जओ पावस्म आगमो ॥२॥
भावार्थ--जो भाषा कठोर हो, मगे को दुःख पहुँचाने वाली हो वह चाहे सत्य भी क्यों न हो, नहीं बोलनी चाहिये क्योंकि उससे पाप का आगमन होता है। (दशवकालिक सातवा नः गाथा ११)
अपुच्छिओ न भासिज्जा, भासमाणस्स अंतरा। पिट्टिमंसं न खाइज्जा, मायामोसं विवज्जए ||६||
भावार्थ-साधु कोग्निा पूछे न बोलना चाहिये। गुरु महागज कुछ कह रहे हों तो उनके बीच भी न बोलना चाहिये । उसे किसी की पीठ पीछे बुराई न घरनी चाहिये और न मायाप्रधान असत्य वचन ही कहना चाहिये। (दशवकालिक अाठवां अ० गाथा ४७) दिलु मिअं असंदिद्ध, पडिपुन्नं विअं जिअं । अयंपिर मणुश्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं ॥७॥ भावार्थ-प्रात्मार्थी साधक को दृढ़ अनुभूत वातु विषयक',
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.२१६
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला संदेह रहित परिपूर्ण, स्पष्ट, वाचालता रहित और किसी को भी उद्विग्न न करने वाली चाणो बोलनी चाहिए ।
(दशवकालिक आठवा अध्ययन गाथा ४६) सवक्कसुद्धिं समुपेहिया मुणी,
गिरं च दुट्ट' परिवज्जए राया। मियं अदुट्ट अणुवीइ भासए,
- सयाण मज्झे लहइ पसंसणं ॥८॥ . भावार्थ-साधु को सदावचन शुद्धि का ख्याल रखना चाहिये और दूषित पाणी कमी न कहनी चाहिये। सोच विचार कर निर्दोष परिमित भाषा बोलने वाला साधु सत्पुरुषों में प्रशंसा पाता है। भासाइ दोसे अ गुणे अ जाणिया,
तीसे अ दुट्टे परिवज्जए सया। छसु संजए सामणिए सया जए,
वइज्ज वुद्ध हिअमाणुलोमियं ॥९॥ भावार्थ-भाषा के गुण तथा दोषों को जान कर दूषित भाषा का सदा के लिये त्याग करने वाला, पट्काय जीवों की रक्षा करने वाला और चारित्र पालन में सदा तत्पर बुद्धिमान् साधु एक मात्र हितकारी और मधुर-मीठी भाषा बोले । . . .
(दशवकालिक सातवा अध्ययन गाथा ५५,५६) ३१--कर्मों की सफलता सव्व सुचिएणं सफलं नराणं, कडाण कम्माण न मुक्ख अत्थि ॥१॥
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवाँ भाग
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भावार्थ - प्राणियों के सभी सदनुष्ठान फल सहित होते हैं। फलभोग किये बिना उनसे छुटकारा नहीं होता किन्तु वे अपना फल अवश्य देते हैं ।
( उत्तराध्ययन तेरहवां अध्ययन गाथा १० ) तेणे जहा संधिमुहे गहीए, सकम्मुणा किचइ पावकारी | एवं पया पेच इहंच लोए, कडाण कम्माण न मुक्ख अत्थि ।।
भावार्थ - जैसे संधिमुख (खात) पर चोरी करते हुए पकड़ा गया पापी चोर अपने कर्मों से दुःख पाता है इसी प्रकार यहाँ और परलोक में जीव स्वकृत कर्मों से ही दुःख भोग रहे हैं। फल भोगे विना कृतकर्मों से मुक्ति नहीं हो सकती । (उत्तराध्ययन चौथा श्र० गाथा ३)
एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया । एगया आसुरं कार्य, अहाकम्मेहिं गच्छ ॥३॥
भावार्थ - यह आत्मा अपने कर्मों के अनुसार कभी देवलोक में, कभी नरक में और कभी असुरों में उत्पन्न होता है । (उत्तराध्ययन तीसरा अध्ययन गाथा ३ ) न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ,
न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । इक्को सगं पचणुहोइ दुक्खं,
कत्तारमेव अणुजाह कम्मं ॥ ४ ॥ भावार्थ- पापी जीव का दुःख न जाति वाले बँटा सकते हैं और न मित्र लोग ही । पुत्र एवं भाई बन्धु भी उसके दुःख के भागीदार नहीं होते। केवल पाप करने वाला अकेला ही दुःख भोगता है क्योंकि कर्म कर्त्ता ही के साथ नाते हैं ।
चिचा दुपयं च चउप्पयं च खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं । कम्मप्पीओ अवसो पयाह, परं भवं सुंदर पावगं वा ॥५॥
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श्री. सेठिया जैन प्रश्रमाला
- भावार्थ-द्विपद, चतुष्पद, क्षेत्र, घर, धन, धान्य-इन सभी को यहीं छोड़कर परवश हो यह आत्मा अपने कर्मों के साथ परलोक में जाता है और वहाँ अपने कर्मों के अनुसार अच्छाया बुरा भव प्राप्त करता है। (उचराध्ययन तेरहवां अध्ययन गाथा २३-२४)
३२-कामभोगों की असारता जे गुणे से आवटे, जे आवट्टे से गुणे ॥१॥ ___ भावार्थ-जो शब्दादि विषय हैं वही संसार है और जो संसार है वही शब्दादि विषय है। (श्राचाराग पहला अ० पांचवा उ० सूत्र ४१) सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं न विडंवियं । सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥२॥ ___ भावार्थ-सभी संगीत विलाप रूप है, सभीनृत्य या नाटक विडम्बना रूप हैं, सभी आभूषण भार रूप है एवं सभी शब्दादि काम दुःख देने वाले हैं। (उत्तराध्ययन तेरहवां अध्ययन गाथा १६) सुट्टु वि मग्गिज्जतोकथवि केलीइ नत्थि जह सारो। इंदिय विसएसु तहा, नत्थि सुहं सुटु वि गविढें ॥३॥
भावार्थ-जैसे कदली (केले) में खूब गवेपणा करने पर भी कहीं सार नहीं मिलता इसी प्रकार इन्द्रिय विषय में भी तत्त्वज्ञों ने खूब खोज करके भी कहीं सुख नहीं देखा है।
(भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक गाथा १४४ ) जह किपागफलाणं, परिणामो न संदरो। एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुंदरो॥४॥ भावार्थ-जैसे किंपाक फलों का परिणाम सुन्दर नहीं होता
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
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उसी प्रकार भुक्त भोगों का परिणाम भी सुन्दर नहीं होता । (उत्तराध्ययन उन्नीसवां श्र० गाथा १७ )
जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वण्मेण य भुजमाणा । ते खुद्दए जीविय पञ्चमाणा, एसोवमा कामगुणा विवागे |५|
भावार्थ - जैसे किंपाक फल रूप रंग और रस की दृष्टि से शुरू में खाते समय बड़े मोहर मालूम होते हैं किन्तु पचने पर वे इस जीवन ही का नाश कर देते हैं। इसी प्रकार कामभोग भी बड़े आकर्षक और सुखद प्रतीत होते हैं पर विपाक काल में वे सर्वनाश कर देते हैं । (उत्तराध्ययन बत्तीसवां अध्ययन गाथा २०)
खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा, पगाम दुक्खा अनिगाम सुक्खा । संसार मुक्खस्स विपक्ख भूया,
खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥ ६ ॥
भावार्थ - कामभोग क्षण मात्र सुख देने वाले हैं और चिरकाल तक दुःख देने वाले हैं। उनमें सुख बहुत थोड़ा है पर अतिशय दुःख ही दुःख है । ये कामभोग मोक्ष सुख के परम शत्रु हैं एवं अनर्थों की खान हैं । ( उत्तराध्ययन चौदहवा० गाथा १३) कामा दुरतिक्कमा, जीविय दुष्पडिवूहगं, कामकामी खलु अयं पुरिसे से सोयह जूरह तिप्पड़ पिट्टइ परितप्पड़ ॥ भावार्थ - इच्छा और मोग रूप कामों का नाश करना अति कठिन है। यह जीवन भी नहीं बढ़ाया जा सकता। ( अतएव कभी प्रेमाद न करना चाहिये । ) कामभोगों की कामना करने चाला श्रात्मा उनके प्राप्त न होने पर या उनका वियोग होने पर शोक करता है, खिन्न होता है, मर्यादा भंग करता है, पीड़ित होता है एवं परिताप करता है । ( आचाराग दूसरा ० पांचवां उ० सूत्र ६३ )
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२२० श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा। कामे य पत्थेमाणा, अकामा जंति दोग्गई॥८॥ __ भावार्थ-कामभोग शन्य रूप हैं, विष रूप हैं और विषधर सर्प के समान हैं। कामभोगों का सेवन तो दूर रहा, केवल उनकी अभिलाषा करने से ही श्रात्मा दुर्गति में जाता है।
(उत्तराध्ययन नवां अध्ययन गाथा ५३) कामेसु गिद्धा णिचयं करंति,संसिच्चमाणा पुणरिति गभं|
भावार्थ-कामभोगों में आसक्ति रखने वाले प्राणी कर्मों का संचय करते हैं। कर्मोंसे पूर्ण होकर वे संसार में परिभ्रमण करते हैं।
___ (श्राचारांग तीसरा अध्ययन दूसरा उद्देशा स्त्र ११२) अम्मताय ! मए भोगा, भुत्ता विसफलोवमा। पच्छा कड्डयविवागा, अणुबन्ध दुहावहा ॥१०॥
भावार्थ-हे माता पिता ! मैंने विष फल के सदृश इन भोगों को खूब भोगा है । अन्त में ये कटुक यानी अनिष्ट परिणाम वाले एवं निरन्तर दुःखदायी होते है । (उत्तराध्ययन उन्नीसवां अ० गाथा ११)
गुरू से कामा, तओसे मारते, जओरोमारते तओ से दूरे, नेव से अंतो नेव से दूरे ॥११॥
भावार्थ-अपरमार्थदर्शी आत्मा के लिये इन कामभोगों का त्याग करना अति कठिन है और इसी कारण वह जन्म मृत्यु के चक्र में फंसारहता है । जन्म मृत्यु के चक्र में फंसकर वह यथार्थ सुख से बहुत दूर रहता है । इस प्रकार विपयाभिलापी आत्मा विषय सुखों के प्राप्त न होने से न उनके समीप होता है और विषयाभिलापा कात्यागन करने के कारण, नवह उनसे दूर ही होता है।
(श्राचारांग पांचवां अध्ययन पहला उ० सूत्र १४२)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
२२१
उबलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पह | भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ ||१२||
भावार्थ - शब्दादि भोग भोगने पर आत्मा कर्म मल से लिप्त होता है और भोगी लिप्त नहीं होता । भोगी संसार में परिभ्रमण करता है और मोगी संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है । (उत्तराध्ययन पचीसवां अध्ययन गाया ३६ ) विसं तु पीयं जह कालकूड, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसो व धम्मो विसओववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवण्णो ॥
भावार्थ - जैसे कालकूट विष पीने वाले को, उल्टा पकड़ा हुआ शस्त्र शस्त्रधारी को एवं मंत्रादि से वश नहीं किया हुआ वेताल सावक को मार डालता है । इसी प्रकार शब्दादि विपय वाला यतिधर्म भी वेशधारी द्रव्य साधु को दुर्गति में ले जाता है ।
( उत्तराध्ययन वीसवा अध्ययन गाथा ४४ ) तण कट्ठेहि व अग्गी, लवण जलो वा नईस हस्से हिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेडं कामभोगेहिं ॥ १४ ॥
भावार्थ - जैसे व काष्ठों से अमि तृप्त नहीं होती, हजारों नदियों से भी लवण समुद्र को संतोष नहीं होता । इसी प्रकार कामभोगों से भी इस जीव की तृप्ति नहीं हो सकती ।
(
प्रकीर्णक गाथा ५० )
आतुरप्रत्याख्यान
जस्सिमे सदा य, रूवा य, गंधा य, रसा य, फासा य अहिसमन्नागया भवनि से आयबी, णाणवी, वेयवी, धम्मवी, बंभवी ॥१५॥
भावार्थ - जो आत्मा मनोज एवं मनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शो में राग द्वेप नहीं करता, वही आत्मा ज्ञान, वेद (चाचा
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२२८
श्री सेठिया जन प्रन्पमाला
३५-वैराग्य धणेण किं धम्मधुराहिगारे,सयणेण वाकामगुणेहिं चेव।
भावार्थ-जहाँ धर्माचरण का प्रश्न है वहाँ धन से कोई मतलब नहीं। इसी तरह स्वजन एवं शब्दादि इन्द्रिय विषयों का भी उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।
(उचराध्ययन चौदहवां अध्ययन गाथा १०) जया सव्वं परिचज, गंतव्व मवसस्स ते। अणिचे जीवलोगम्मि, किं रजम्मि पसजसि ॥२॥
भावार्थ-हे राजन् ! यह जीव लोक अनित्य है। तुम्हें भी परवश हो यह सभी वैभव त्याग कर जब कभी न कभी जाना ही है तब फिर इस राज्य में क्यों आसक्त हो रहे हो ?
(उचराध्ययन अठारहवां अध्ययन गाथा १२) खित्तं वत्थु हिरणं च, पुत्तदारं च बंधवा । चइत्ताण इमं देहं, गंतव्व मवसस्स मे ॥ ३ ॥
भावार्थ-क्षेत्र,वास्तु (घर),सोना, चाँदी, पुत्र, स्त्री और वन्धुजन इन सभी को, तथा इस शरीर को भी यहीं छोड़ कर कभी न कमी कर्मवश मुझे अवश्य जाना ही होगा।
(उत्तराध्ययन उन्नीसवां अध्ययन गाया १६) इमं सरीरं अणिचं, असुई असुइसंभवं । असासयावासमिणं, दुक्ख केसाण भायणं ॥४॥
भावार्थ-यह शरीर अनित्य है, अशुचि है, अशुचि से ही उत्पन्न हुआ है और अशुचि ही उत्पन्न करता है। यह दुःख और क्लेश का भाजन है । जीव का यह अशाश्वत आवास है, न जाने इसे कब छोड़ना पड़े?
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग २२६ असासए सरीरम्मि, रई नोवलभामहं । पच्छा पुरा व चइयव्वे, फेण चुचुय सन्निभे ॥५॥
भावार्थ-यह शरीर पानी के बुलबुले के समान चणभंगुर है, पहले या पीछे एक दिन इसे छोड़ना ही पड़ता है। यही कारण है कि विविध भोग सामग्री के सुलभ होते हुए भी इस अशाश्वत देह में मैं जरा भी सुख अनुभव नहीं करता।
माणुस्सत्ते असारम्मि, वाहिरोगाण आलए । जरामरण घम्मि , खणं पि न रमामि हं ॥६॥
भावार्थ-यह मानव शरीर असार है.व्याधि और रोगों का घर है तथा जरा और मरण से पीड़ित है। इसमें मैं क्षणभर भी आनन्द नहीं पाता । (उचराध्ययन उन्नीसवां अ० गाथा १२, १३,१४)
नीहरंति मयं पुत्ता, पियरं परमक्खिया । पियरोवि तहा पुत्ते, बंधू रागं ! तवं चरे ॥७॥
भावार्थ-पिता के वियोग से अत्यन्त दुखित हुए भी पुत्र मृत पिता को घर से बाहर निकाल देते हैं और इसी प्रकार पिता भी मृत पुत्रों को घर से अलग कर देता है। बन्धुजन भी मृत बन्धु के साथ यही व्यवहार करते हैं । इस प्रकार संसार के सम्बन्धी को कच्चा समझ कर हे राजन् ! तप का आचरण करो।
तओ तेणजिए दव्वे, दारे य परिरक्खिए । ' कीलंतन्ने नरा रागं, हट्ट तुट्ठ मलंकिया ॥८॥
भावार्थ-इसके बाद मृत व्यशि द्वारा उपार्जित धन से एवं हर तरह से रक्षा की गई उसकी त्रियों के साथ दसरे योग दृष्ट, तुष्ट
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२३०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
( प्रसन्नचित्त) एवं अलंकृत होकर क्रीड़ा करते हैं ।
(उत्तराध्ययन अठारहवा अध्ययन गाथा १५, १६ ) मच्चुणा Sभाहओ लोओ, जराए परिवारिओ । अमोहा रयणी वुत्ता, एवं ताय वियाणह ||९||
भावार्थ - हे पिताजी ! यह लोक मृत्यु से पीड़ित है एवं जरा ( बुढ़ापा से घिरा हुआ है। दिन रात रूप अमोघ शस्त्र हैं जो प्रति क्षण प्राणियों के जीवन का नाश कर रहे हैं ।
( उत्तराध्ययन चौदहवा अध्ययन गाथा २३ )
जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ किस्सन्ति अंतवो । १९ ।
भावार्थ - संसार में जन्म का दुःख है, जरा का दुःख है और रोग तथा मृत्यु का दुःख है । अहो ! संसार ही दुःख रूप है जहाँ प्राणी क्लेश-दुःख प्राप्त करते हैं। (उतराध्ययन उन्नीसवां श्र० गाथा १६ )
इहलोग दुहावहं विऊ, परलोगे वि दुहं दुहावहं । विद्धंसण धम्ममेव तं इइ विजं को गारमावसे |११|
3
भावार्थ - स्वजन, सम्बन्धी, परिग्रह आदि इसलोक और परलोक में दुःख देने वाले हैं तथा सभी नाशवान् हैं । यह जान कर गृहस्थ में रहना कौन पसन्द करेगा ? (सूयगडांग अ० २३०२ गाथा १० )
जह जह दोसोवरमो, जह जह विसएसु होइ वेरग्गं । तह तह वियाणाहि, आसन्नं से पयं परमं ॥ १२ ॥
भावार्थ-ज्यों ज्यों दोष शान्त होते जाते हैं और विषयों में विराग होता जाता है त्यों त्यों आत्मा को परमपद यानी मोच के अधिकाधिक समीप समझो । ( मरणसमाधि प्रकीक गाया ६३१ )
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
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३६-प्रमाद समयं गोयम ! मा पमायए ॥१॥ . भावार्थ-हे गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद न करो।
(उचराध्ययन दसवा अध्ययन ) मज्जं विसय कसाया, निद्दा विगहा य पंचमी भणिया। इअ पंचविहो एसो, होइ पमाओ य अपमाओ ||२||
भावार्थ-मद्य (नशा), विषय, कपाय, निद्रा और विकथा ये पाँच प्रकार के प्रमाद हैं। इनका अभाव रूप अप्रमाद भी पाँच ही प्रकार का है। (उत्तराधयन चौथा अ० नियुक्ति गाथा १८०)
पमा कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं ।। तभावादेमओ वावि, बाले पण्डियमेव वा ॥३॥
भावार्थ-तीर्थङ्कर देव ने प्रमाद को कर्म कहा है और अप्रमाद को कर्म का प्रभाव बतलाया है अर्थात् प्रमादयुक्त प्रवृत्तियाँ कर्म बन्धन कराने वाली हैं और जो प्रवृत्तियाँ प्रमाद से रहित हैं वे कर्म वन्धन नहीं करातीं। प्रमाद के होने और न होने से ही मनुष्य क्रमशः मूर्ख और पण्डित कहलाता है । ( सूयगडाग श्र० ८ गाथा ३) सन्चओपमत्तस्स भयं,सचओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं।
भावार्थ-प्रमादी को चारों ओर से भय ही भय है, अप्रमत्त पुरुष को कहीं से भी भय नहीं है ।
(पाचाराग तीसरा अध्ययन तीसरा उ० सूत्र १२४) पमत्ते पहिया पास, अप्पमत्तो परिवए ॥२॥ भावार्थ-विषय कपाय आदि प्रमाद का सेवन करने वालों
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२३२ भी सेठिया बेन प्रन्थमाला को धर्म से बाहर समझो। अतएव प्रमाद का त्याग कर धर्माचरण में उद्यम करो। (आचारांग पॉचवॉ श्र० दूसरा उ० सूत्र १५१)
तं तह दुल्लहलंभ, विज्जुलया चंचलं माणुस।
लधुण जोपमायइसो कापुरिसोन सप्पुरिसो।। - भावार्थ-अति दुर्लभ एवं बिजली के समान चंचल इस मनुष्यभव को पाकर जो पुरुष प्रमाद करता है वह कापुरुष ( कायर) है, सत्पुरुष नहीं।
(आवश्यक मलयगिरि पहला अ०) जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हुदण्डे पवुच्चइ । तं परिणाय मेहावी इयाणिणोजमहं पुज्वमकासी पमाएवं ॥७॥ ' . भावार्थ-जो मद्यादि प्रमाद का पाचरण करता है,शब्दादि गुणों को चाहता है वह हिंसक कहा जाता है । यह जानकर वुद्धिमान् साधु यह निश्चय करे कि प्रमाद वश मैंने जो पहले कियाथा वह अब मैं नहीं करूंगा। (आचारांग पहला अ० चौथा उ० सूत्र ३५-३६)
अंतरं च खल इमं संपेहाए, धीरो मुहुत्तमपि णो पमायए। वओ अचेइ जोवणं च ॥ ८॥
भावार्थ-मानव भव, आर्यकुल श्रादि की प्राप्ति-यही धर्म साधन के लिये उपयुक्त अवसर है। यह जान कर धीर पुरुष मुहूर्त मात्र भी प्रमाद न करे। यह वय (अवस्था) और यौवन बीते जारहे हैं।
(आचाराग दूसरा अध्ययन पहला उ० सत्र ६६) मुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरंति ॥ ६ ॥ . भावार्थ-जो लोग सोये हुए हैं वे अमुनि हैं और जो मुनि हैं पे सदा जागते रहते हैं। (आचारांग तीसरा अ० पहला उ० सूत्र १०६)
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श्री जैन सिद्धान्त घोल संग्रह, सातवाँ माग २३३ सुत्तेसुयावि पडिवुद्धजीवी, न विस्ससे पंडिय आसुपन्ने। घोरा मुहत्ता अबलं सरीरं,भारंड पक्खी वचरऽप्पमत्तो।
भावार्थ-आशुप्रज पंडित पुरुप को, मोह निद्रा में सोये हुए प्राणियों के बीच रहकर भी सदा जागरूक रहना चाहिये। प्रमादाचरण पर उसे कभी विश्वास न करना चाहिये । काल निदेय है और शरीर निर्वल है-यह जान कर उसे भारण्ड पक्षी की तरह सदा अप्रमत होकर विचारना चाहिये। ( उत्तरा० अ०४ गाथा ६)
३७-राग दुष
रागोयदोसोविय कम्मवीयं,कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाइमरणस्समूलं, दुक्खं च जाइमरणं दयंति॥
भावार्थ-राग और द्वेष कर्म के मूल कारण हैं और कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म जन्म मृत्यु का मूल हेतु है और जन्म मृत्यु को ही दुःख कहा जाता है । (उत्तराध्ययन बत्तीसवां अ० गाथा)
दवग्गिणा जहा रपणे, डज्झमाणेसु जंतुसु । अन्ने सत्ता पमोयंति, रागदोस वसं गया ॥२॥ एवमेव वयं मृढा, कामभोगेसु मुच्छिया। डज्झमाणं न बुज्झामो, रागदोसग्गिणा जगं ॥३॥
भावार्थ-जैसे जंगल में दावाग्नि से प्राणियों के जलने पर दुसरे प्राणी राग द्वेप के वश होकर प्रसन्न होते हैं । (वेवेचारे यह नहीं जानते कि बढती हुई यह दावाग्नि हमें भी भस्म कर देगी और इसलिये हमें इससे बचने का प्रयत्न करना चाहिये ।) इसी प्रकार काम भोगों में मूञ्छित हम अज्ञानी लोगभी यह नहीं
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२३४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
समझते कि विश्व रागद्वेषरूप अग्नि से जल रहा है और हमें इस अग्नि से बचने का प्रयत्न करना चाहिये।
(उत्तराध्ययन चौदहवा अध्ययन गाथा ४२, ४३) न वितं कुणई अमित्तो सुटु विय विराहिओसमत्थो वि। जं दो वि अणिग्गहीया, करंति रागो य दोसो य ॥४॥
भावार्थ-समर्थ शत्रु का भी कितना ही विरोधक्यों न किया जाय फिर भी वह आत्मा का उतना अहित नहीं करता जितना कि वश नहीं किये हुए राग द्वेष करते हैं । (मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा १६८) नकाम भोगा समयं उविंति,न यावि भोगा विगइंउर्विति जेतप्पओसीय परिग्गही य, सोतेसु मोहा विगइंउवेइ ।।
भावार्थ-कामभोग अपने आप न तो किसी मनुष्य में समभाव पैदा करते हैं और न किसी में विकार भाव ही उत्पन्न करते हैं । किन्तु जो मनुष्य उनसे राग या द्वेष करता है वही मोह के वश होकर विकारभाव प्राप्त करता है। (उत्तराध्ययन अ० ३२ गाथा १०१)
जायख्वं जहामट्ठ, निद्धतमल पावगं । रागदोस भवातीतं, तं वयं वूम माहणं ॥६॥
भावार्थ:-जो कसौटी पर कसे हुए एवं अग्नि में डालकर शुद्ध किये हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग, द्वेष तथा भय से रहित है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। उत्तराभ्ययन १० पच्चीसवा गाथा २१) गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू,
गिएहाहि साहूगुण मुंचऽसाहू । वियाणिया अप्पगमप्पएणं,
जो राग दोसेहिं समो स पुज्जो ॥७॥ .
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातव भाग
२३५
भावार्थ- जो गुणों को धारण करता है वह साधु है और जो गुणों से रहित है वह साधु है । अतएव साधु योग्य गुणों को ग्रहण करो एवं दुर्गुणों का स्थाग करो। जो आत्मा द्वारा आत्मस्वरूप का जानने वाला तथा राग और द्वेप में समभाव रखने वाला है वही पूजनीय है । (दशवैकालिक नवां श्र० तीसरा उ० गाथा ११ )
राग दोसे य दो पावे, पाव कम्म पवत्तणे । जे भिक्खू रुभइ निबं, से न अच्छड़ मंडले ||८||
भावार्थ - राग और द्वेप ये दोनों पाप, पाप कार्यों में प्रवृत्ति कराने वाले हैं। जो साधु इन दोनों का निरोध करता है वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता । (उत्तराभ्ययन इकतीसवां श्र० गाथा ३)
को दुक्खं पाविज्जा, कस्स य सुक्खेहिं विम्हओ हुज्जा । को वा न लभिज्ज मुक्खं, रागद्दोसा जड़ न हुज्जा ||८||
माचार्य - यदि राग द्वेष न हों तो संसार में न कोई दुखी हो और न कोई सुख पाकर ही विस्मित हो बल्कि सभी मुक्त हो जायँ । ( मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा १६७ )
नाणस्स सव्वस्स पगासणाए,
अन्नाण मोहस्स य विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं,
एगतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ १० ॥
भावार्थ- सत्य ज्ञान का प्रकाश करने से, अज्ञान और मोह का त्याग करने से तथा राग और द्वेष का क्षय करने से आत्मा एकान्त सुखमय मोक्ष प्राप्त करता है। (उत्तराध्ययन श्र० ३२ गाथा २ )
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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
३८-पाय
कोहो य माणो य अणिग्गहीया,
माया य लोभो य पचड्ढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया,
सिंचंति मूलाई पुणभवस्स ॥१॥ भावार्थ-वश नहीं किये हुए क्रोध और मान तथा बढ़ते हुए माया और लोभ-ये चारों कुत्सित कपाय पुनर्जन्म रूपी संसारवृक्ष की जड़ों को हरा भरा रखते हैं अर्थात् संसार को बढ़ाते हैं।
कोहं माणं च माय च, लोभं च पाववढणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हियमप्पणो ||२||
भावार्थ-जो मनुष्य आत्मा का हित चाहता है उसे चाहिये कि वह पाप बढ़ाने वाले क्रोध, मान,माया और लोम-इन चार दोषों को सदा के लिये छोड़ दे।
कोहो पीई पणासेह, माणो विणय नासणो । माया मित्ताणि नारोइ, लोभो सम्वविणासणो ॥३॥
भावार्थ-क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी सद्गुणों का विनाश करता है। (दशवकालिक पाठवा अ० गाथा ४०,३७,३८)
अहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई । माया गइ पडिग्घाओ, लोहाओ दुहओ भयं ॥५॥ भावार्थ--क्रोध से आत्मा नीचे गिरता है, मान से अधम गति
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग २३७ प्राप्त होती है, माया से सद्गति का नाश होता है और लोभ से इसलोक तथा परलोक में भय प्राप्त होता है। (उचराध्ययन अ० गाथा५४) जस्स वि य दुप्पणिहिया,होति कसाया तब चरंतस्स । सो बाल तवस्सी विव,गयण्हाण परिस्सम कुणइ ॥॥ ___ भावार्थ-जो तप का आचरण करता है किन्तु कपार्यों का निरोध नहीं करता वह बाल-तपस्वी है । गजस्नान की तरह उसका तप कमां की निर्जरा का नहीं बल्कि अधिक कर्म बन्धका कारण होता है। (दशवकालिक पाठवां अ० नियुक्ति गाथा ३०० ) जे कोहणे होइ जगहभासी,
विओसिड जे उ उदीरएज्जा। अंधे व से दंडपहं गहाय,
अविओसिए धासति पावकम्मी ॥६॥ भावार्थ-जो पुरुप क्रोधी है, सर्वत्र दोष ही दोप देखता है और शान्त हुए कलह को पुनः छेड़ता है वह पापारमा सदा अशान्त रहता है एवं छोटे मार्ग में जाते हुए अन्धे पुरुप की तरह पद पद पर दुखी होता है। (सूयगडांग तेरहवां अध्ययन गाथा ५) जे यावि चंडे मह इढिगारवे,
पिसणे नरे साहस हीणपेसणे। अदिधम्मे विणए अकोविए,
___ असंविभागी न हु तस्स मुक्खो ॥७॥ भावार्थ-जो साधु क्रोधी होता है, ऋद्धि, रस और साता गारच की इच्छा करता है, चुगली खाता है, विना विचारे कार्य करता है, गुरुजनों का आज्ञाकारी नहीं होता, धर्म के यथार्थ स्वरूप का
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२४४
श्री सैठिया जैन ग्रन्थमाला
सुवण्ण रुप्पस्स उपव्यया भवे,
सिया हु केलाससमा असंखया। णरस्स लद्धस्स ण तेहिं किंचि,
इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ॥६। भावार्थ-कैलाश पर्वत के समान सोने चाँदी के असंख्यात पर्वत भी हों तो भी लोभी मनुष्य का मन नहीं भरता । सच है, भाकाश की तरह इच्छा का भी अन्त नहीं है।
पुढवी साली जवा चेव, हिरणं पसुभिस्सह। पडिपुण्णं नालमेगस्स, इइ विजा तवं चरे ॥७॥
भावार्थ शालि, जब आदि धान्य, सोना, चाँदी आदि धन ' तथा पशुओं से परिपूर्ण यह सारी पृथ्वी एक मनुष्य की इच्छा तृप्स करने के लिये भी पर्याप्त (पूरी) नहीं है। यह जान कर तप ही का प्राचरण करना चाहिये । (उत्तराध्ययन नयां श्र० गाथा ४८, ४६)
४०-शल्य रागद्दोसामिहया, ससल्लमरणं मरंति जे मूढ़ा। ते दुक्ख सल्ल बहुला,भमंति संसार कांतारे ॥१॥
भावार्थ--रागद्वेष से अभिभूत जो मूढ़ प्राणो शल्य सहित मरते हैं वे विविध दुःख रूप शल्यों से पीड़ित होकर संसार रूप अटवी में परिभ्रमण करते हैं। (मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा ५१) सुहुमंपि भावसलं अणुरित्ता उ जे कुणइ कालं। लज्जाइ गारवेण य, न हु सो आराहओ भणिओ.॥२॥
भावार्थ- लज्जा अथवा गारव के कारण जो सूक्ष्म भी भाव
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातको माग २९५ शल्य की शुद्धि नहीं करताऔर शल्य सहित ही काल कर जाता है उसे माराधक नहीं कहा है। (मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा ६८)
ससल्लो जइ वि कटुग, घोरवीरं तवं चरे । दिव्वं वाससहस्सं पि,ततो वि तं तस्स निष्फलाश
भावार्थ--शन्य वाला श्रात्मा चाहे देवता के हजार वर्ष तक भी वीरता पूर्वक घोर उग्र तप का आचरण करे पर शन्य के कारण उसे उसका कोई फल नहीं होता। (महानिशीथ १ अ०)
तं खलु समणाउसो! तस्स णियाणस्म इमेयारूवे पावए फल विवागे भवति जनो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणित्तए ॥४॥
भावार्थ-हे आयुष्मन् श्रमण ! उम निदान (नियाणे, का यह - पाप रूप फल होता है कि श्रात्मा सर्वज्ञभाषित धर्म भी नहीं सुन सकता।
(दशाश्रुतस्कन्ध दसवी दशा (प्रथम निदान) हत्यिणपुरम्मि चित्ता, दट्टणं नरवई महिड्डियं । कामभोगेसु गिद्धेणं, नियाण मसुहं कडं ॥९॥ तस्स मे अपडिकंतस्स, इमं एयारिसं फलं। जाणमाणोविजं धम्म, काम भोगेसु मुच्छिओ।
भावार्थ- हे चित्त मुने ! हस्तिनापुर में महाऋद्धि सम्पन्न नृपति (सनत्कुमार नामक चौथे चक्रवती) को देखकर, मैंने कामभोग में अत्यन्त श्रासन हो, उस ऋद्धि की प्राप्ति के लिये अशुभ निदान किया था। - उस निदान का मैने प्रतिक्रमण नहीं किया। उसी का यह फल है कि धर्म का स्वरूप समझने हुए भी मैं कामभोगों में गृद्ध हो रहा हूँ। ( उत्तराध्ययन तेरहवां अध्ययन गाथा १८, ३६)
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भी मेठिया जैन प्रधमाला
अवगणिय जोमुक्खसुह, कुणइ निआ असारसुह हेडं। सो कायमणि करणं, वेरुलियमणि पणासेइ ।।७।।
भावार्थ--जो मोक्ष सुख की अचगणना कर संसार के असार सुखों के लिये निदान करता है वह काच के टुकड़े के लिये वैडूर्य मणि को हाथ से खो बैठना है ! भक्ताशा प्रकीर्णक गाथा १३८)
जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं उत्तमट्टकालम्मि । दुल्लह बोहीयत्त, अणंत संसारियत्तं च ॥८॥ तो उद्धांति गारव रहिया, मूलं पुणभवलया। मिच्छा दसण सल्लं, माया सल्लं नियाणं च ॥१॥
भावार्थ - अन्तिम भागधना काल में यदि भावशल्य की शुद्धि न की जाय तो वह शल्य आत्मा का बड़ा ही अहित करता है। • इसके फल म्वरूप आत्मा को बोधि (सम्यक्त्व) दुर्लभ हो जाती है एवं उसे अनन्त काल तक. संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है।
अतएव प्रात्नार्थी पुरुष गारवशत्याग कर, भवलता के मूल समान मिथ्यादर्शन,माया एवं निदान रूप शल्य की शुद्धि करते हैं।
(मरणसमाधि प्रकीर्णक गाया १११, १५२)
४१-आलोचना कयपावोऽवि मणूसो, आलोइय निदिउ गुरुसगासे। होइ अइरेग लहुओ,ओहरिय भरोच भारवहो ॥१॥
भावार्थ--जैसे भारवाही भार उतार कर अत्यन्त हल्कापन अनुभव करता है इसी प्रकार पापी मनुष्य भी गुरु के समीप अपने दुष्कृत्यों की आलोचना निन्दा कर पाप से हल्का हो जाता है।
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भी जन मिद्धान्त गोल संग्रह, सासवां भाग जह वालोजपंनो, कज्जमकज च उज्जु भणइ। तं तह आलोएज्जा, मायामय विप्पमुक्को य ॥२॥
भावार्थ-जैसे बालक वोजते हुए सरल भाव से कार्य अकार्य समी कुछ कह देता है । उमी प्रकार प्रान्मार्थी पुरुष को भी माया एवं अभिमान कात्याग कर सरलभाव से अपने दोपों की पालोपना करनी चाहिये। जह सुकुसलोऽवि विज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहिं। नं तह आलोयवं, सुटुवि ववहारकुसलेणं ॥ ३ ॥
भावार्थ-जैसे बहुत कुशन भी वैद्य अपना रोग दूसरे वैद्य से कहता है । इसी प्रकार प्र यश्चित्त विधि में निपुण व्यक्ति को भी अपने दोपों की आलोचना दुसरे योग्य व्यक्ति के सम्मुख करनी चाहिये।
जंपुवं तं पुन्छ,जहाणुपुब्धि जहक्कम्म सव्वं । आलोइज्ज सुविहिओ,कमकालविहिं अभिदतो॥४॥
भावार्थ-श्रेष्ठ आचार वाले पुरुष को क्रम और काल विधि का मेदन न करते हुए लगे हुए दोपों की क्रमशः पालोचना करनी चाहिये । जो दोप पहने जगा हो उसकी थालोचना पहले और इसके बाद के दोपों की आलोचना बाद में इस प्रकार पानुपूर्वी से श्रालोचना करनी चाहिये । लज्जाइ गारवेण य, जे नालोयति गुरुसगासम्मि । घंत पि सुशसमिद्धा, न हु ते आराहगा हुंति ॥५॥
भावार्थ-जो लज्जावश अथवा गर्व के कारण गुरु के समीप अपने दोपों की आलोचना नहीं करते, वे श्रुत से अतिशय समृद्ध होते हुए भी श्राराधक नहीं हैं।
(परणसमाधि प्रकीर्णक गाथा १०२, १०१, १०४, १०५, १०३
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श्री सेठिया जन प्रन्यमाला
भिक्खू य अण्णयरं अकिञ्चठाणं पडिसेवित्ता सेणं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कने कालं करेइ, णस्थि तस्स आराहणा। से णं तस्स ठाणस आलोइयपडिक्कते कालं करेइ, अत्थि तस्स आराहणा ॥६॥
भावार्थ-साधु यदि किसी अकृत्य का सेवन कर उसकी आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना काल करे तो उनके आराधना नहीं होती। यदि वह उस अकृत्य की आलोचना प्रतिक्रमण करके काल करे तो उसके आराधना होती है।
(भगवत्ती दसवां शतक दूसरा उद्देशा) एवं उवडियस्सवि, आलोएउ' विसुद्धभावस्स | जंकिंचि वि विस्सरियं,सहसक्कारेण वा चुक्कं ॥७॥ आराहओ तहवि सो, गारवपरिकुंचणामयविहूणो। जिणदेसियस धीरो, सद्दहगो मुत्तिमग्गस्स ॥८॥
भावार्थ-शुद्ध भावपूर्वकमालोचना के लिये उपस्थित हुआव्यक्ति मालोचना करते हुए यदि रमरणशक्ति की कमजोरी के कारण अथवा उतावली में किसी दोष की मालोचना करना भूल जाय । फिर भी माया, मद एवं गारव से रहित वह धैर्यशाली पुरुष भाराधक है एवं जिनोपदिष्ट मुक्ति मार्ग का श्रद्धावान है।
(मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा १२१,१२२) ४२-मात्म-चिन्तन जो पुन्चरत्तावरत्तकाले, संपिक्खए अप्पगमप्पएण। किंमेकर्ड किं च मे किचसेसं,किं सक्कणिज्जन समायरामि
भावार्थ-साधक को चाहिये कि वह रात्रि के प्रथम एवं अन्तिम
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श्री जन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
२४९
प्रहर में स्वयं अपनी आत्मा का निरीक्षण करे और विचारे कि मैंने कौन से कर्तव्य कार्य किये हैं, कौन से कार्य करना अवशेष है भौर क्या क्या शक्य अनुष्ठानों का मैं आचरण नहीं कर रहा हूँ? किं मे परो पासइ किं च अप्पा,
किं चाहं खलियं न विवजयामि । इचेव सम्म अणुपासमाणो,
अणागयं नो पडिबंध कुजा ॥२॥ भावार्थ-मरे लोग मुझ में क्या दोष देख रहे हैं, मुझे अपने श्राप में क्या दोष दिखाई देते हैं,क्या मैं इन दोषों को नहीं छोड़ रहा है। इस प्रकार सम्यक रीति से अपने दोपों को देखने वाला मुनि भविष्य में ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता जिससे कि संपम में बाधा पहुँचे। जत्येव पासे कह दुप्पउत्तं,
कारण वाया अदु माणसेणं । तत्येव धीरो पडिसाहरिजा,
__ आहन्नओ खिप्पमिव क्खलींणं ॥३॥ भावार्थ-धीर मुनि जब कमी आत्मा को मन वचन काया सम्बन्धी दुष्ट व्यापारों में लगा हुया देखे कि उसी समय उसे शास्त्रोक्त विधि से श्रात्मा को दुष्ट व्यापार से हटाकर संयम व्यापार में लगाना चाहिये। जैसे पाकीर्णक जाति का घोडालगाम के नियन्त्रण में रहकर सन्मार्ग में चलता है। इसी प्रकार उसे भी शास्त्र विधि के अनुसारमात्मा को संयम मार्ग पर लाना चाहिये।
(दशवकालिक दूसरी चूलिका गाथा १२, १३, १४)
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श्री मेठिया जन प्रन्यमाला
भावणा जोग सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। णावा व तीरसंपन्ना, सव्व दुक्खा तिउदृइ ॥४॥
भावार्थ-जो आत्मा पवित्र भावनाओं से शुद्ध है वह जल पर रही हुई नौका के समान है । वह आत्मा नौका की तरह संसार रूप समुद्र के तट पर पहुँच कर सभी दुःखों से छूट जाता है।
. (स्यगडांग पन्द्रहवां अध्ययन गाथा ५)
४३-क्षमापना पुढवी दग अगणिमारुय,एक्कक्के सत्तजोणि लक्खाओ। वण पत्तेय अते, दस चउदस जोणि लक्खाओ ॥१॥ विगलिदिएसुदो दो, चउरो चउरो य नारय सुरेसुं। तिरिएसु होति चउरो, चउदस लक्खा उ मणुएसु ॥२॥
भावार्थ-पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु-प्रत्येक की सात सात लाख योनि हैं। प्रत्येक बनस्पति की दस लाख और अनन्त काय अर्थात् साधारण वनस्पति काय की चौदह लाख योनि हैं।
द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय-इन तीनों विकलेन्द्रियों में से प्रत्येक की दो दो लाख योनि हैं । नारकी और देवता की तथा तिर्यश्च पञ्चन्द्रिय की चार चार लाख योनि हैं । मनुष्य की चौदह लाख योनि हैं । इस प्रकार कुल चौरासी लाख योनि हैं।
. (प्रवचनसारोद्धार गाथा ६६८.६६८) खामेमि सम्वे जीवा, सच्चे जीता खमंतु मे। मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झं न केणइ ॥३॥
भावार्थ-उपरोक चौरासी लाख योनि के सभी जीवों से मैं • घमा चाहता है। सभी जीव मुझे चमा करें। मेरा सभी प्राणियों
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
२५१
के साथ मैत्री भाव है। किसी के भी साथ मेरा वैर भाव नहीं है। (श्रावश्यक सूत्र ) जं जं मणेण वद्धं, जं जं वायाए भासिअं पावं । जं जं कारण कयं, मिच्छामि दुक्कडं तस्स ||४|| भावार्थ - मन, वचन और शरीर से मैंने जो पाप किये हैं मेरे वे सब पाप मिथ्या हों ।
आयरिए उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुल गणे अ । जे मे केह कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥ ५ ॥
भावार्थ - श्राचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल और गया के प्रति मैंने जो क्रोधादि कयायपूर्वक व्यवहार किया है उसके लिये मैं मन वचन और काया से क्षमा चाहता हूँ । सव्वस्स समणसंघस्स, भगवओ अंजलि करीअ सीसे । सव्वं खमावड़ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥ ६ ॥
भावार्थ- मैं नतमस्तक हो, हाथ जोड़कर पूज्य श्रमण संघ से सभी अपराधों के लिये क्षमा चाहता हूँ और उनके अपराध भी मैं क्षमा करता हूं ।
( मरणसमाचिप्रकीर्णक गाथा ३३५, ३३६) (संस्तारक प्रकीर्णक गाथा १०४, १०५) सव्बस्स जीवरासिस्स, भावओ धम्म निहिअ निअचित्तो । सव्वे खमावत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥ ७ ॥
भावार्थ-धर्म में स्थिर बुद्धि होकर मैं सद्भावपूर्वक सब जीवों से अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगता हूँ और उनके सब प राधों को मैं भी सद्भावपूर्वक क्षमा करता हूँ ।
( संस्तारक प्रकीर्णक गाथा १०६ )
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२५२
. भी सेठिया जैन मन्यमाला
रागेण व दोसेण व,अहवा अकयन्नूणा पडिनिवेसणं । जो मे किंचि विभणियो,तमहं तिविहेणखामेमि ||८|| ____ भावार्थ-राग द्वेष,अकृतज्ञता अथवा आग्रहवश मैंने जो कुछ भी कहा है उसके लिये मैं मन वचन कायासे सभी से क्षमा चाहता हूँ।
(मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा २१४) नोट-तयालीसवें वोल में सूत्र की गाथाएं हैं पाठक को ये गाथाए बत्तीस अस्वाध्याय ालकर पढना चाहिये । इसी ग्रन्थ में बोल नम्बर ६६८ में पचीस अरवाध्याय दिये गये हैं।
चवालीसवाँ बोल ६६५-स्थावर जीवों की अवगाहना के
अल्पबहुत्व के चैवालीस बोल पृथ्वीकाय, अकाय, अग्निकाय,वायुकाय और निगोद इनके सूक्ष्म बादर के भेद से दस भेद होते हैं। प्रत्येक शरीर बादर वनस्पत्तिकाय ग्यारहवां भेद है। पर्याप्त अपर्याप्त के भेद से इन (स्थावरों) के वाईस भेद होते हैं । इन जीवों में प्रत्येक की जघन्य और उत्कृष्ट दो तरह की अवगाहना होती है । इस प्रकार स्थावर जीवों की अवगाहना के ४४ पोल हो जाते हैं। इनका अल्पबहुत्व इस प्रकार है। (१ अपर्याप्तसूक्ष्म निगोद की जघन्य वगाहना सबसे कम है। (२)उससे अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय की जघन्य अवगाहना असं. ख्यात गुणी है । (३) उससे अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकाय की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी है। (४) उससे अपर्याप्त सूक्ष्म अकाय की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी है । (५) उससे अपर्याप्त म पृथ्वीकाय की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
२५३ है । (६) उससे अपर्याप्त चादर वायुकाय की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी है । (७) उससे अपर्याप्त बादर अग्निकाय की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी है । (८) उससे अपर्याप्त बादर
काय की जन्य अवगाहना असंख्यात गुणी है । (६) उससे अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी है । ( १०-११ ) प्रत्येक शरीर चादर वनस्पतिकाय तथा वादर निगोद के पर्याप्त को जवन्य अवगाहना उससे असंख्यात गुणी और दोनों की परस्पर तुल्य है । (१२) पर्याप्त सूक्ष्म निगोद की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यात गुणी है । (१३) अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेषाधिक है। (१४) पर्याप्त सूक्ष्म निगोद की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेषाधिक है । (१५) पर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय की जघन्य अवगाहना उससे श्रसंख्यात गुणी है। (१६) अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है। (१७) पर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय की उत्कृष्ट विशेषाधिक है । (१८-२० ) पर्याप्त सूक्ष्म अग्निकाय की जघन्य श्रवगाहना असंख्यात गुणी है । अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकाय की उत्कृष्ट अवगाहना विशेपाधिक है और उससे भी पर्याप्त सूक्ष्म अग्निकाय की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । (२१-२३) पर्याप्त सूक्ष्म अष्काय की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी और अपर्याप्त सूक्ष्म अकाय तथा पर्याप्त सूक्ष्म अप्काय की उत्कृष्ट अवगाहना उत्तरोत्तर विशेषाधिक है । (२४-२६) पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय की जघन्य श्रवगाहना असंख्यातगुणी एवं
पर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट अवगाहना उत्त रोवर विशेषाधिक है । (२७-२६) पर्याप्त चादर वायुकाय की जघन्य अवगाहना श्रसंख्यात गुणी तथा अपर्याप्त और पर्याप्त चादर वायुकाय की उत्कृष्ट अवगाहना उत्तरोत्तर विशेपाधिक है ।
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२६०
भी सेठिया जैन मन्यमाला वाले विद्वान् हैं। ज्योतिष के अंग भी आप जानते है और धर्मों के पारगामी आप ही हैं।
(३६) आप ही अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं । अतएव, हे तपस्वी भिक्षुत्तम ! मिक्षा ग्रहण कर श्राप हम पर अनुग्रह कीजिये।
(४०) (मुनि का उत्तर) हे द्विज ! मुझे तुम्हारी भिक्षा की आवश्यकता नहीं है । किन्तु मैं चाहता हूँ कि तुम शीघ्र प्रवज्या स्वीकार करो। ऐसा करने से तुम भय रूप आवर्त्त वाले इस भीषण संसार समुद्र में परिभ्रमण न करोगे।
(४१) भोग भोगने वाला कर्मों से लिप्त होता है और भोगों का त्याग करने वाले आत्मा को कर्म छूते भी नहीं हैं। यही कारण है कि भोगी आत्मा संसार में परिभ्रमण करता रहता है और त्यागी आत्मा मुक्त हो जाता है।
(४२) गीले और सूखे मिट्टी के दो गोलों को यदि दीवाल पर फेंका जाय तो दोनों दीवाल से टकरायेंगे और जो गीला होगा वह वहीं पर चिपट जायगा।
(४३) इसी तरह जो दुवुद्धि पुरुष विषयासक्त हैं वे कर्मबद्ध हो संसार में फंसे रहते हैं और जो विरक्त हैं वे मिट्टी के सखे गोले की तरह विषयों में आसक्त नहीं होते और न संसार में ही फंसते हैं।
(४४ इस प्रकार मुनि का श्रेष्ठ धर्मोपदेश सुनकर विजयघोष ब्राह्मण ने जयघोष मुनि के पास दीक्षा धारण की। , (४५) संयम और चप द्वारा पूर्वकृत कर्मों का नाश कर जयघोष और विजयघोष-दोनों मुनि प्रधान सिद्धि गति को प्राप्त हुए।
(उत्तराध्ययन पचीसवां अध्ययन) .६६७- आगम पैंतालीस
स्थानकवासी सम्प्रदाय में प्रामाणिकता की दृष्टि से बत्तीस
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संमह, सातवा भाग २६१ सूत्रों को जो विशिष्ट स्थान प्राप्त है, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में वही स्थान पैंतालीस आगमों को प्राप्त है । ग्यारह अंग, बारह उपांग-ये तेईस आगम दोनों सम्प्रदाय में एकरूप से प्रामाणिक हैं । चार छेदसूत्र, चार मूलसूत्र और आवश्यक-ये नौ सूत्र मिलाकर स्थानकवासी सम्प्रदाय में वत्तीस सूत्र मान्य हैं । मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में छ: छेदसूत्र, छा मूलसूत्र और दस पहराणा ये बाईस सूत्र मिलाकर पैंतालीस आगम गिने जाते हैं। बत्तीस सूत्रों के नाम, अंग; उपांग और मूलसूत्रों की श्लोक संख्या के साथ इसी ग्रन्थ में बोल नं० ६६६ में दिये जा चुके हैं। अतएव अंग उपांग को यहाँ न दोहरा कर शेष बाईस आगमों के नाम श्लोक प्रमाण के साथ यहाँ दिये जाते हैं।
छः छेदसूत्र--(१) निशीथसूत्र ८१५ (२) महानिशीथस्त्र ४५४८ (३) बृहत्कल्पसूत्र ४७३ (8) व्यवहार सूत्र ६०० (५) दशाश्रुतस्कन्ध * ८६० (६) जीतकल्प १०८। __ छः मूल सूत्र--(१) आवश्यक सूत्र १२५ (२) उचराध्ययन सूत्र २००० (३) अोपनियुक्ति १३५५, मूलगाथा ११६४ (४) दशकालिक ७०० (५) नन्दी सूत्र ७०० (६) भनुयोग द्वार-२००५
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दशाश्रुतस्कन्ध का आठवां अध्ययन कल्पसूत्र माना जाता है। इसकी श्लोक संख्या १२१६ है । कल्पसूत्र को श्लोक संख्या साथ में गिनने से दशाश्रुतस्कन्ध की श्लोक संख्या २१०६ हो जाती है। अमिधानराजेन्द्रकोप प्रथम भाग की प्रस्तावना में दशाश्रुतस्कन्ध की श्लोक संख्या १८३५ दी है।
x आगमोदय समिति से प्रकाशित अनुयोग द्वार सूत्र में गाथा १६०४ अनुष्ट प् प्रन्याम २००५ बतलाया है। अभिधानराजेन्द्र कोप प्रथम भाग की प्रस्तवना में इस सूत्र की श्लोक संख्या १६०० और जैन मन्यावली में १८६६ दी है।
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२६२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला - दस पइएणा (प्रकीर्णक)- (१) चउसरण पइएण गाथा ६३ (२) आउर पञ्चक्खाण गाथा ८४ (३) महापचक्खाण गाथा १४२ (४)भच परिगणा गाथा १७२ (५ तन्दुल वेयालिय गा०४.० (६) संथारग पइएणय गाथा १२३ (७) गच्छाचार पइएणय गाथा १३७ (८) गणिविज्जापइएणयगाथा १०० (९) देविंद थव पइएणयगाथा ३०७ (१०) मरण समाहि पइएणय% गाथा ६६३ - इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में वोल नं० ६८६ में दस पदण्णा का संक्षिप्त विषय वर्णन दिया गया है। • नोट-छेद सूत्रों में कहीं जीतकन्प के बदले पंचकल्प ११३३ माना गया है। मूल स्त्रों में ओनियुक्ति के बदले कहीं पिण्डनियुक्ति मानी जाती है। कई प्राचार्यों के मतानुसार मूलसूत्र चार ही हैं। उनके मतानुसार नन्दी और अनुयोगद्वार मूलसूत्र में नहीं हैं किन्तु ये दोनों चूलिका ग्रन्थ हैं। आगमोदयसमिति द्वाग प्रकाशित 'चतुःशरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं' में ऊपर लिखे दश प्रकीर्णक प्रकाशित हुए हैं। किन्तु अन्यत्र दश प्रकीर्णक के नाम में गच्छाचारपइएणय का नाम नहीं मिलता। वहाँ इसके बदले 'चद विज्जग पइएणय' दिया गया है। कहीं कहीं मरणसमाधि प्रकीर्णक भी दश प्रकीर्णकों में नहीं दिया गया है
और उसके बदले वीरस्तवप्रकीर्णक गिना गया है। ऊपर जोश्लोक संख्या दी है वह भी सब जगह एकसी नहीं मिलती,कहीं ज्यादा और कहीं कम देखने में आती है। . (जैनग्रन्थावली) (अभिधानगजेन्द्रयोष प्रथम भाग प्रस्तावना पृष्ठ ३१-३५)
* श्रागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित 'चतुःशरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशक में तन्दुल वेयालिय का ग्रन्थ-प्रमाण सूत्र १६ गाथा १३८ है और गरिणविजापइएणय में गाथा ८२ हैं। अभिधानराजेन्द्र 'कोष प्रथम भाग की प्रस्तावना में देविदथव पइएणय में गाथा २०० और मरणसमाहिपहरणय में गाथा ७०० होना बतलाया है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग
२९३.
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छियालीसवाँ बोल संग्रह ६६८-गणितयोग्य कालपरिमाण के ४६ भेद
(१) समय-काल का सूक्ष्मतम भाग। (२) श्राव'लका-असंख्यात समय की एक प्रावलिका होती है। (३) उच्छ्वास-संख्यात प्रालिका का एक उच्छ्वास होता है। (४) निःश्वाम-सख्यात श्रावलिका का एक निःश्वास होता है। (५) प्राण-एक उच्छवाम और निःश्वास का एक प्राण होता है। (६ स्नोक-सात प्राण का एक स्तोक होता है। . (७) लव-सात स्तोक का एक लव होता है। । (८) मुहूर्त-७७ लव या ३७७३ प्राण का एक मुहूर्त होता है। (8) अहोरात्र-तीम मुहूर्त का एक अहोरात्र होता है। . १०) पक्ष- पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष होता है। (११' मास-दो पक्ष का एक माम होता है। ., (१२) ऋतु-दो मास की एक ऋतु होती है। :: . (१३) अयन-तीन ऋरों का एक अयन होता है। . . (१४) संवत्सर (वर्ष)-दो अयन का एक संवत्सर होता है। (१५) युग-पांच संवत्सर का एक युग होता है। । : ' (१६) वर्षशत-चीम युग का एक वर्षशत (सौ वर्ष) होता है।
(१७) वर्पसहस्र-दम वशित का एक वर्षसहस्र (एक हजार वर्ष) होता है। • (१८) वर्षशतसहस्र-सौ वर्षसहस्रों का एक वर्षशतसहस्र (एक लाख वर्ष) होता है।
(१६ पूर्वांग-चौगसी लाग्य वर्षों का एक पूर्वांग होता है।
२०) पूर्व-पूर्वाग को चौरासी लाख से गुणा करने से एक पूर्व होता।
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२६४
भी सेठिया अन अन्यमाला (२१) त्रुटितांग-पूर्व को चौरासी लाख से गुणा करने से एक त्रुटितांग होता है।
(२२) त्रुटित -त्रुटितांग को चौरासी लाख से गुणा करने से एक त्रुटित होता है।
इस प्रकार पहले की राशि को ८४ लाख से गुणा करने से उपरोचर राशियां बनती हैं वे इस प्रकार हैं
(२३) अटटांग (२४) अटट (२५) अवांग (२६) अवव (२७) हुहुकांग (२८) हुहुक (२६) उत्पलांग ३०) उत्पल (३१) पयांग (३२, पम (३३) नलिनांग (३४) नलिन (३५) अर्थ निपूरांग (३६) अर्थ निपूर (३७) अयुतांग (३८) अयुत (३६) नयुतांग (४०) नयुत (४१) प्रयुतांग (४२) प्रयुत (४३) चूलिकांग (४४) चूलिका (४५) शीर्ष प्रहेलिकांग (४६ शीर्ष प्रहेलिका।
शीर्षप्रहेलिका १६४ अंकों की संख्या है। ७५८२६३२५३. ७३०१०२४११५७६७३५६६६७५६६६४०६२१८६६६८१८०८०१८३२९६ इन चौपन अंकों पर १४० विन्दियाँ लगाने से शीर्षप्रहेलिका संख्या का प्रमाण आता है। । यहाँ तक का काल गणित का विषय माना गया है। इसके
आगे भी काल का परिमाण बतलाया गया है पर वह उपमा का विषय है गणित का नहीं। (अनुयोग द्वार कालानुपूर्वी अधिकार सूत्र ११४) (भगवती सूत्र शतक ६ उ०७) ६६६-ब्राह्मी लिपि के मातृकातर छियालीस
असे ह तक तथा क्ष ये ४६ अक्षर ब्राह्मी लिपि के मातकाघर कहे गये हैं। इनमें ऋऋ ल ल ल ये पांच अक्षर नहीं गिने जाते । ४६ मातृकाक्षर इस प्रकार हैं' ' (१-१२) स्वर-अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः।
यह मराठी ल और स के बीच का अक्षर है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग mmmmmmmmmmmmm
(१३-४६) चौतीस व्यंजन-पचीस स्पर्श, चार अन्त:स्थ, चार ऊष्मा और च । कख ग घ ङ च छ ज झ न, ट ठ ड ढ ण, तथ द धन,प फ ब भ म-ये पचीस स्पर्श हैं । य र ल र अन्तःस्थ है शप सह ऊष्मा अक्षर हैं और छियालीसवाँ च अक्षर है।
(समवायाग ४६) सैंतालीसवां बोल संग्रह १०००--आहार के सैंतालीस दोष
सोलह उद्गम दोप, सोलह उत्पादना दोप, दस एपणा (ग्रहणेपणा) दोप और पंच ग्रासपणा (मांडला) के दोष-ये सभी मिलाकर आहार के सैंतालीस दोष कहे जाते हैं । सोलह उद्गम
और सोलह उत्पादनादोपों का स्वरूप इसी ग्रन्थ के पाँच भाग में क्रमशः बोल नं० ८६५ और ८६६ में दिया गया है। एपणा के दस दोपों का स्वरूप इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में चोल ०६६३ में तथा ग्रासपणा (मांडला) के दोषों का स्वरूप इसी ग्रन्थ के प्रथम माग में बोल नं० ३३० में दिया गया है।
अड़तालीसवां बोल संग्रह १००१-तिर्यञ्च के अड़तालीस भेद
पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय-इनके सूक्ष्म, पादर के मेद से भाठ एवं पर्याप्त अपर्याप्त के मेद से सोलह भेद होते हैं । सूक्ष्म, प्रत्येक और साधारण के भेद से वनस्पति काय के तीन भेद है। पर्याप्त अपर्याप्त के मेह से इन तीन के छ भेद होते हैं। इस प्रकार स्थावर जीवों के बाईम भेद हुए। द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय-इन तीन विकलेन्द्रियों के पर्याप्त अपर्याप्त
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२६६
श्री सेठिया जैन ग्रन्पमाला
mmmmmmmmmmmmmminimirm के भेद से भेद होते हैं।जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प
और भुजपरिसर्प के भेद से तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के पाँच भेद हैं। संज्ञी अमज्ञी के भेद से इन पाँच के दस भेद होते हैं । ये दस पर्याप्त
और दस अपर्याप्त इस प्रकार निर्यश्च पञ्चेन्द्रिय के कुल बीस भेद होते हैं। इस प्रकार स्थावर के वाईस, विकलेन्द्रिय के : और तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के बीस-कुल मिला कर विर्यश्च के ४८ भेद होते हैं।
इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में बोल नं० ६६३ (नव तन्य) में जीव के ५६३ भेदों में नियंञ्च के अड़तालीस भेद गिनाये गये हैं।
(पन्नत्रणा पहला पद सूत्र १० से ३५)
१००२-ध्यान के अड़तालीस भेद
श्राध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान के भेद से ध्यान के चार प्रकार है । आध्यान के चार प्रकार एवं चार लक्षण (लिग) हैं। रौद्रध्यान के भी चार प्रकार और चार लक्षण हैं। इस प्रकार आर्त, रौद्र के प्रत्येक के आठ आठ और दोनों के सोलह भेद हुए ।धर्मध्यान के चार प्रकार, चार लक्षण, चार बालस्बन और चार भावना इस प्रकार सोलह भेद हैं। धर्मध्यान की तरह शुक्ल ध्यान के भी चार प्रकार, चार लक्षण, चार मालम्बन
और चार भावना इस प्रकार सोलह मेद हैं । इस प्रकार चार ध्यान के कुल अड़तालीस भेद होते हैं।
ध्यान की व्याख्या, ध्यान के प्रकार, ध्यान के लक्षण (लिंग), ध्यान के नानम्वन और ध्यान की भावना इन सभी का विराद वर्णन इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग में बोल नं. २१५ से २२८ तक में तथा तीरारे भाग में बोल नं० ५६३ (नौ तत्व-प्राभ्यन्तर तप) में दिया गया है। (औषपातिक सत्र २० श्राभ्यन्तर तप अधिकार)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग २६७
उनपचासवां बोल संग्रह १००३-श्रावक के प्रत्याख्यान के ४६ भंग
करना, कराना, अनुमोदन करना (करते हुए को भला जानना) ये तीन करण हैं । मन, वचन और काया-ये तीन योग हैं। इनके संयोग से मूल भंग नौ और उत्तर भंग (भांगे) उनपचास होते हैं। नौ भंग ये हैं-(१) तीन करण तीन योग (२) तीन करण दो योग (३) तीन करण एक योग (४) दो करण तीन योग (५) दो करण दो योग (६) दो करण एक योग (७) एक करण तीन योग (८) एक करण दो योग (ह)एक करण एक योग । इस प्रकार नौ भंगों से श्रावक भूत काल का प्रतिक्रमण करता है, वर्तमान काल में प्राश्रव का निरोध करता है और भविष्य के लिये प्रत्याख्यान अर्थात् पाप नहीं करने की प्रतिज्ञा करता है।
१-तीन करण तीन योग (१) करूँ नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूँ नहीं मन से चचन से काया से
२-तीन करण दो योग (२) करूँ नहीं कराऊँ नहीं अनुमो, नहीं मन से वचन से (२१ " " " मन से काया से (४) " " , पचन से काया से
३-तीन करण एक योग। (५) करू नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूँ नहीं मन से (६) , " , वचन से (७) F
काया से ४-दो करण तीन योग (E) करूं नहीं कराऊँ नहीं मन से वचन से काया से (8) करू नहीं अनुमो, नहीं ॥ ॥
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवी भाग
-एक करण दो योग
(३२) करू नहीं
(३३)
(३४)
""
(३५) कराऊं नहीं
(३६)
11
(३७) (३) अनुमोदूँ नही
(३६)
(४०)
12
11
"
19
(४१) करूँ नहीं
(४२)
11
---
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(४३)
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(४४) कराऊँ नहीं
(४३)
>>
(४६)
13
(४७) अनुमोदूँ नहीं
(४८)
(४६)
मन से वचन से
मन से काया से
६--एक कर एक योग
वचन से काया से
मन से वचन से
मन से काया से
वचन से काया से
मन से वचन से
मन से काया से
वचन से काया से
२६६
मन से
वचन से
काया से
मन से
वचन से
काया से
मन से
वचन से
काया से
"
भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल इस प्रकार काल की अपेक्षा उनपचास भंगों को तीन से गुणा करने से १४७ भंग बनते हैं ।
(भगवती सूत्र आठ तक पांचवां उद्देथा )
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मूल मंग तथा उत्तर भंग का यंत्र
करण योग मूलभंग उत्तरभंग
अंक
३
४४
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श्री जैन सिद्धान्त बाल संग्रह, सातवां भाग
२७१
पचासवां बोल संग्रह १००४-प्रायश्चित्त के पचास भेद
दस प्रकार का प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्त देने वाले के दस गुण प्रायश्चित्त लेने वाले के दस गुण, प्रायश्चित्त के दस दोप, दोष प्रतिसेवना के दस कारण ये कुल मिला कर प्रायश्चित्त के पचास भेद कहे जाते हैं।
इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में बोल नं०६३३ (नवतच)में तथा बोल नं०६६६, ६७०, ६७,६७२, ६६३, में प्रायश्चिच के पचास भेद व्याख्या सहित दिये गये हैं।
(भगवती सूत्र पचीसवा शतक उद्दशा७) इकावनवां बोल संग्रह १००५-आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध
· के इकावन उद्देशे श्राचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्वन्ध के नौ अध्ययन हैं। नौ अध्ययन के इकावन उद्देशे हैं- पहले अध्ययन के सात उद्देशे हैं, दूसरे अध्ययन के छः उद्देशे हैं, तीसरे और चौथे अध्ययन के चार चार उद्देशे हैं, पाँचवें अध्ययन के और छठे अध्ययन के ५ उद्देशे हैं, सातवें अध्ययन के सात उद्देशे हैं। इस अध्ययन का विच्छेद हो गया माना जाता है । पाठवें अध्ययन के आठ और नवे अध्ययन के चार उद्देशे हैं। इस प्रकार श्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्धं के नौ अध्ययनों के कुल ५१ (७+६+४+४+६+५+७+ ८+४=५१) उद्देशे हैं।
(समवायाग सत्रश
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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवाँ भाग २७३ (३) नियाग (नित्यपिएड)-आहार पानी के लिये जो गृहस्थ आमन्त्रण करे उसके घर से भिक्षा लेना ।
(४) अम्यान-घर या गाँव आदि से साधु के लिये सामने शाया हुआ आहार आदि लेना।
(५) रात्रि भोजन-रात्रि में आहार लेना, दिन में लेकर रात को खांना इत्यादि रूप रात्रि भोजन का सेवन करना।
(६) स्नान-देश स्नान और सर्व स्नान करना। (७)गन्ध-चन्दनकपुरादि सुगन्धित वस्तुओं का सेवन करना। (८) मान्य-पुष्पमाला का सेवन करना । (8) वीजन-पंखे आदि से हवा लेना। (१०) सन्निधि-घृत गुड़ आदि वस्तुओं का संचय करना । (११) गृहिमात्र-गृहस्थ के वर्तनों में भोजन करना । (१२ राजपिएड-राजा के लिये तैयार किया गया आहार लेना।
(१३) किमिच्छक-'तुम को क्या चाहिये ?' इस प्रकार याचक से पूछ कर जहाँ उसके इच्छानुसार दान दिया जाता है ऐसी दानशाला आदि का आहार लेना।
(१४) संबाधन-अस्थि, मांस, त्वचा और रोम के लिये सुखकारी मर्दन अर्थात् हाथ पैर श्रादि अवयवों को दबाना ।
(१५) दन्त प्रधावन-अंगुली से दांत साफ करना । (१६) संप्रश्न-गृहस्थ से कुगल आदि रूप सावध प्रश्न पूछना । (१७) देह प्रलोकन-दर्पण आदि में अपना शरीर देखना । (१८) अष्टापद नालिका-नाली से पाशे फेंक कर अथवा और प्रकार से जुया खेलना (१६) छत्रधारण-स्वयं छत्र धारण करना या कराना । ।
(२०) चिकित्सा-चिकित्सा अर्थात् रोग का इलाज करना। दिन कन्पी साधुओं के लिये रोग होने पर उसकी प्रतिक्रिया के
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संरह, सातवा भाग २७५ (४१) सचिच रुमा लवण (रोमक क्षार) का सेवन करना । (४२) सचित्त समुद्र का नमक सेवन करना । (४३) सचित्त ऊपर नमक का सेवन करना। (४४) सचित काले नमक (सैंधव लवण, पर्वत के एक देश में उत्पन्न होने वाले) का सेवन करना । (४५) धूपन-अपने वस्त्रादि को धूप देकर सुगन्धित करना । (४६) वमन-औपधि लेकर वमन करना। (४७) वस्तिकर्म वित्यिकम्म,- मलादि की शुद्धि के लिये वस्तिकर्म करना। (४८) विरेचन-पेट साफ करने के लिये जुलाब लेना । (४६) अंजन-आँखों में अंजन लगाना । (५०) दन्तकाष्ठ (दंतवएणे;-दतौन से दाँत साफ करना । (५१) गात्राभ्यङ्ग-सहलपाक आदि तैलों से शरीर का मर्दन। (५२) विभूषण-स्त्र, आभूषणों से शरीर की शोभा करना । यहाँ अनाचीर्ण का स्वरूप टीका अनुसार दिया गया है। किन्तु दो एक बातों में टीका से भिन्नता है । टीका में ५३ अनाचीर्ण गिने हैं। किन्तु ५२ अनाचीर्ण प्रसिद्ध होने से यहाँ वाचन ही दिये गये हैं। टीकाकार ने सांभर नमक को अलग अनाचीर्य माना है इसी लिये वहाँ एक संख्या बढ़ गई है। इसके मिवाय टीका में राजपिएड
और किमिच्छक एक अनाचीर्ण में गिने हैं पर यहाँ अलग अलग दिये गये हैं । अष्टायद और नालिका का अनाचीर्ण यहाँ एक माना है किन्तु टीका में दोनों अलग अलग हैं । चंचल और काला नमक एक है ऐमा कई लोग समझते हैं और इसलिये यहाँ शंका हो सकती है पर बात ऐमी नहीं है। दोनों नमक जुदे जुदे
(दशवकालिक तीसरा अध्ययन सटीक)
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' श्री सैठिया जन प्रन्यमाला
त्रेपनवाँ बोल संग्रह १००८-मोहनीय कर्म के ओपन नाम
यहाँ मोहनीय कर्म से चार कषाय विवक्षित हैं। चार कषायों के पन नाम भगवती सूत्र में इस प्रकार दिये है-क्रोध के दस • नाम,मान के बारह नाम,माया के पन्द्रह नाम,लोम के सोलह नाम।
क्रोध के दस नाम ये हैं-क्रोध, कोप,रोष, दोष, अक्षमा संवलन, कलह, चांडिक्य (रौद्र आकार बनाना),भण्डन और विवाद । · मान के बारह नाम-मान, मद,दर्प, स्तम्भ, गर्व, आत्मोत्कर्ष, परपरिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नत, उन्नाम और दुर्नाम ।।
माया के पन्द्रह नाम-माया, उपधि, निति, वलय, गहन, नूम, कन्क, कुरूपा, जिह्मता, किल्विप, आदरणता, गृहनता, वंचनता, प्रतिकुंचता और सातियोग।
लोम के सोलह नाम-लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांदा, गृद्धि, तृष्णा, मिध्या, अभिध्या, आशंसना,प्रार्थना,लालपनता,कामाशा भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नन्दीराग।
समवायांग ५२ में समवाय में मोहनीय कर्म के ५१ नाम कहे है-क्रोध के दस, मान के ग्यारह, माया के सत्रह और लोम के चौदह क्रोध के नाम दोनों में एक सरीखे हैं। मान के नामों में दुनाम के सिवाय शेष ग्यारह नाम वे ही हैं। माया के सत्रह नामों में उपरोक पन्द्रह नाम एवं दंभ और कूट-ये सत्रह नाम दिये हैं। लोम के उपरोक्त सोलह नामों में से आशंसना, प्रार्थना और लालपनता ये तीन नाम समवायांग में नहीं हैं । नन्दीराग को एक न । गिन कर समवायांग में नन्दी और राग दो नाम गिने हैं।
इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में बोल नं.७०२ में क्रोध के नाम, चौथे भाग में बोल नं० ७६० में मान के नाम एवं पांचवें भाग के
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२७८
श्री सेठिया जैन अन्यमाला
लवणसमुद्र के जल से जहाँ इस पर्वत का स्पर्श होता है वहीं इस ' के दोनों तरफ चारों विदिशाओं (कोण) में गजदन्ताकार दो दो
दादाएं निकली हुई हैं। एक एक दादा पर सात सात अन्तरद्वीप हैं। इस प्रकार चार दादाओं पर अठाईस अन्तरद्वीप हैं।
पूर्व दिशा में ईशानकोण में जो दाढ़ा निकली है उसमें सात अन्तरद्वीप इस प्रकार हैं-(१) लवण समुद्र के पर्यन्त भाग से तीन सौ योजन जाने पर पहला एकोरुक नाम वाला अन्तरद्वीप भाता है। यह अन्तरद्वीप जम्बूद्वीप की जगती से तीन सौ योजन
दूर है। इसका विस्तार तीन सौ योजन का और इसकी परिधि · कुछ कम ६४६ योजन की है । (२) एकोसक द्वीप से चार सौ : योजन जाने पर दूसरा हयकर्ण अन्तरद्वीप आता है। यकर्ण
अन्तरद्वीप जम्बूद्वीप की जगती से चार सौ योजन दूर है। यह 'चार सौ योजन विस्तार वाला है और इसकी परिधि कुछ कम १२६५ योजन की है । (३) हयकर्ण द्वीप से पाँच सौ योजन आगे सीसरा आदर्शमुख नामक अन्तरद्वीप है । यह द्वीप जम्बुद्वीप की जगती से पाँच सौ योजन दूर है। इसकी लम्बाई चौड़ाई पाँच
सौ योजन की और परिधि १५८१ योजन की है। (४ श्रादर्श .. मुख अन्तरद्वीप से छ: सौ योजन आगे चौथा अश्वमुख अन्तर
द्वीप है । जम्बूद्वीप की जगती से यह छः सौ योजन दूर है। इसका विस्तार छ: सौ योजन का और परिधि १८६७ योजन की है। (५) चौथे अन्तरद्वीप से सात सौ योजन आगे पाँचवां अश्वकर्ण अन्तरद्वीप है। यह जम्बूद्वीप की जगती से सात सौ योजन दूर है। इसका विस्तार सात सौ योजन है और परिधि २२१३ योजन की है ६) अश्वकर्ण से आठ सौ योजन आगे छठा उन्कामुख नामक अन्तरद्वीप है। जगती से यह आठ सौ योजन दूर है। • इसका विस्तार आठ सौ योजन का और परिधि २५२६ योजन
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