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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग (२) जैसे शंख पर रंग नहीं चढ़ता उसी प्रकार साधु रागभाव से रंजित नहीं होता।
(३) जैसे कछुआ चार पैर और गर्दन इन पाँच अवयवों को दाल द्वारा सुरक्षित रखता है उसी प्रकार साधु भी संयम द्वारा पाँचों इन्द्रियों का गोपन करता है, उन्हें विषयों की ओर नहीं जाने देता।
(४) निर्मल सुवर्ण जैसे प्रशस्त रूपवान् होता है उसी प्रकार साधु रागादि का नाश कर प्रशस्त अात्मस्वरूप वाला होता है।
(2) जैसे कमलपत्र जल से नितित रहता है उसी प्रकार साधु अनुकूल विषयों में पासत न होता हुआ उनसे निर्लिप्त रहता है।
(६) चन्द्र जैसे सौम्य (शीतल) होता है उसी प्रकार साधु स्वभाव से सौम्य होता है । सौम्य परिणामों के होने से वह किसी को क्लेश नहीं पहुंचाता।
(७) सूर्य जैसे तेज से दीप्त होता है उसी प्रकार साधु भी तप के तेज से दीप्त रहता है।
(E) जैसे सुमेरु पर्वत स्थिर है, प्रलयकाल के बबण्डर से भी वह चलित नहीं होता। उसी प्रकार साधु संयम में स्थिर रहता है। अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसर्ग उसे चलित नहीं कर सकते हैं।
(8) सागर जैसे गम्भीर होता है उसी प्रकार माधु भी गम्भीर होता है। हर्प शोक के कारणों से उसका चित्त विकृत नहीं होता।
(१०) पृथ्वी जैसे सब सहती है उसी प्रकार साधु भी समभावपूर्वक अनुकूल प्रतिकूल सब परीपह उपसर्ग सहन करता है।
(११) राख से ढकी हुई अग्नि जैसे अन्दर से प्रज्वलित रहती है और वाहर मलिन दिखाई देती है। उसी प्रकार सायु तप से कृश होने के कारण बाहर से म्लान दिखाई देता है किन्तु उस का अन्तर शुभ लेश्या से प्रकाशमान रहता है।
(१२) थी से सिंची हुई अग्नि जैसे तेज से देदीप्यमान होती है उसी प्रकार साधु ज्ञान एवं तप के तेज से दीप्त रहता है।