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श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, सातवां भाग २०५ ___ भावार्थ-जो पण्डित मुनि अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायाक्लेश और प्रतिसंलीनता रूप वाह्य तप एवं प्रायश्चित्त, विनय, यावृत्त्य, स्वाध्याय,ध्यान और व्युत्सर्ग रूप आभ्यन्तर तप का सम्यक् आचरण करता है वह शीघ्र ही चतुगैतिरूपसंसार से मुक्त हो जाता है। (उत्तराध्ययन तीसवां श्रगाथा ३७)
१७-अनासक्ति
जहा पोम्म जले जायं, नोवलिप्पा वारिणा।
एवं अलितं कामेहि, तं वयं वूम माहणं ॥१॥ - मावार्थ-जैसे कमल जल में उत्पन्न होकर भी जल से निर्लिस रहता है। इसी प्रकार कामभोगों में लिप्त-आसक्त न होने वाले पुरुष को हम ब्राह्मण कहते हैं। उत्तराध्ययन पचीसवां श्र० गाथा २७) रूवेसुजोगिद्धि मुवेइ तिचं,अकालियंपावड़ सेविणासं। रागाउरेसेजह्वा पयंगे,आलोयलोले समुवेइ मच्चुं ॥२॥
भावार्थ-जो आत्मा, रूप में तीव्र गृद्धि-आसक्ति रखता है वह असमय में ही विनाश प्राप्त करता है । रागातर पतंग दीपक की लौ में मूञ्छित होकर प्राणों से हाथ धो बैठता है। सद्देसुजोगेहिमुवेइ तिव्वं,अकालियं पावइ सोविणासं । रागाउरे हरिणमिउवमुद्दे,सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चु ।३।
भावार्थ-जो-जीव शब्दों में अत्यन्त आसक्त है वह अकाल ही में विनष्ट हो जाता है। रागवश हिरण संगीत में मुग्ध होकर - अवम ही मौत का शिकार हो जाता है ।