________________
२०६:
श्री सेठिया जन् अन्यमाला, गंधेसु जोगेहि मुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ सो विणासं। रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे,सप्पे बिलाओचिव निक्खमंते।।
भावार्थ--जो जीव गन्ध में तीव्र आसक्ति रखता है वह नागदमनी आदि औषधि की सुगन्ध में गृद्ध होकर रागवश बिल से बाहर आये हुए सर्प की तरह शीघ्र ही विनाश प्राप्त करता है। रसेसु जो गेहिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ सो विणासं। रागाउरेबडिसविभिन्नकाए,मच्छे जहाआमिसभोगगिद्धे।
भावार्थ-रागवश मांस के स्वाद में मूञ्छित हुआ मत्स्य(मछली) जैसे कोटे में फंसकर मर जाता है इसी प्रकार रसों में गृद्धि रखने वाला आत्मा भी अकाल ही में विनाश पाता है। फासेसुजोगेहिमुवेइ तिव्वं,अकालियंपावइ-सोविणासं। रागाउरेसीयजलावसनो,गाहरगहीए महिसेवरपणे॥६॥ ____मावार्थ-रागवश शीतल जल में सुख से - बैठा हुआ,भैंसा , जैसे मगर से पकड़ाजाकर मारा जाता है इमी प्रकार मनोहर स्पर्शी में तीव्र आसक्ति वाला आत्मा अकाल ही में विनाश पाता है। भावेसु जोगेहिमुवेइ तिब्वं, अकालियं पावइ.सोविणासं। रागाउरे कामगुणेसु गिद्ध, करेणुमग्गावहिए व णागे॥७॥
भावार्थ-कामगुणों में गृद्ध होकर हथिनीका पीछा करने वाला.. रागाकुल हाथी जैसे पकड़ा जाता है और संग्राम में मारा जाता है। इसी प्रकार विषय सम्बन्धीभावों में तीव्र गृद्धि रखने वाला आत्मा अकाल ही में विनाश प्राप्त करता है। ,
(उत्तराध्ययन बतीसवां अध्ययन गाथा २४,३७,५०,६३,७६,51)