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श्री सेठिया जैन मन्थमात्ता
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में शिथिलता न माने पावे |
( मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा १३४ ) (महानिशीथ पहली चूलिका गाथा १४ ) तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजमजोगसन्ती, होमं हुणामि इसिणं पसत्थं | ८ |
भावार्थ - तप रूप अग्नि है । जीव अग्नि का कुंड है। मन वचन काया के शुभ व्यापार तप रूप अग्नि को प्रदीप्त करने के लिये घी डालने की कुड़छी समान और यह शरीर कंडे समान है । कर्म रूप लकड़ी है और संयम के व्यापार शान्ति पाठ रूप हैं । इस प्रकार मैं ऋषियों द्वारा प्रशंसा किया गया चारित्र रूप भाव होम करता हूँ ।
( उत्तराध्ययन बारहवा अध्ययन गाथा ४४ )
तवस्सियं किस दंतं, अवचियमंससोणियं । सुव्वयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं वूम माहणं ॥ २९ ॥
भावार्थ - जो तपस्वी है, दुबला पतला है, इन्द्रियों का निग्रह करने वाला है, उग्र तप कर जिसने शरीर के रक्त और मांस सुखा दिये हैं, जो शुद्ध व्रत वाला है, जिसने कपाय को शान्त कर आत्मशान्ति प्राप्त की है उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं । (उत्तराध्ययन पचीसवां अध्ययन गाथा २२ )
सक्खं खुदीसह तवोविसेसो, न दीसई जाइ विसेस कोइ ॥ १० ॥
भावार्थ - साक्षात् तप ही की विशेषता दिखाई देती है, जाति में कोई विशेषता नहीं है ।
( उत्तराध्ययन चारहवां अ० गाथा ३७ )
एवं नवं तु दुविहं, जं सम्मं आयरे मुणी । से खिष्पं सव्वसंसारा, विप्पमुचइ पंडिए |११|