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श्री जैन सिद्धान्त बोल संभह, सातवाँ भाग १६७ वाले गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं। इसके विपरीत गुरु की वित्तवृत्ति का अनुसरण करने वाले और विना विलम्ब शीघ्र ही गुरु का कार्य करने वाले शिष्य,तेज स्वभाव वाले गुरु को भी प्रसन कर लेते हैं। (उत्तराध्ययन पहला अध्ययन गाथा १३) जे यावि मंदत्तिगुरुं विइत्ता,डहरे इमे अप्पसुएत्तिनचा। हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा,करेंति आसायण ते गुरू।
भावार्थ-गुरु को मन्दबुद्धि,छोटी अवस्था का एवं अल्पभुत जान कर जो उनकी अवहेलना करते हैं वे मिथ्यात्व को प्राप्त कर गुरु की श्राशातना भरते हैं । (दशथैकालिक नयाँ अध्ययन पहला उ० गाथार) विणयं पि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो। दिव्वं मो सिरिमिज्जंति, दंडेण पडिसेहए ॥७॥
भावार्थ-विविध उपायों से विनय के लिये जो प्रेरणा करता है उस पर कोप करना मानो आती हुई दिव्य लक्ष्मी को लाठी मार कर रोकना है। दशवकालिक नया अध्ययन उ• २ गाथा ४ ) जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसगेंसिया। जे मोगपयं उवहिए, नो लज्जे समयं सया चरे ८
भावार्थ-चाहे कोई अनायक यानी स्वामी रहित चक्रवर्ती हो या कोई दास का भी दास हो किन्तु जिसने संयम स्वीकार किया है। उसे लज्जा कात्याग कर समताभाव का आचरण करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि चक्रवर्ती को दासानुदास को, वन्दना करने में लज्जित न होना चाहिये और न दासानुदास को चक्र. वर्ती से वन्दना पाकर गर्षित ही होना चाहिये।
(सूयगडांग दूसरा अध्ययन दूसरा उद्देशा गाथा ३)