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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
भावार्थ - विनय धर्म रूप वृक्ष का मूल है और मोक्ष उसका सर्वोत्तम रस है । विनय से कीर्ति होती है और पूर्णतः प्रशस्त श्रुतज्ञान का लाभ होता है । (दशवैकालिक नवा ० उ० २ गाथा २ )
विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाउ विषयमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो |४|
भावार्थ - विनय जिनशासन का मूल है । विनीत पुरुष ही संयमवन्त होता है । जो विनयरहित है उसके धर्म और तप कहाँ से हो सकते हैं ? ( हरिभद्रीयावश्यक नियुक्ति गाथा १२१६)
आणा निद्देसकरे, गुरूण मुववाय कारए | इंगियागार सम्पन्ने, से विणीए ति बुवइ ॥३॥
भावार्थ - जो गुरु की आज्ञा पालता है, उनके पास रहता है, उनके द्द' गित तथा आकारों को समझता है वही शिष्य विनीत कहलाता है। ( उत्तराध्ययन पहला श्र० गाथा २ ) विणण णरो गंधेण, चंदणं सोमयाइ स्यणियरो । महुररसेणं अमयं, जणन्पियत्तं लहइ भुवणे ||१४||
भावार्थ - जैसे संसार में सुगन्ध के कारण चन्दन, सौम्यता के कारण शशि एवं मधुरता के कारण अमृतलोक में प्रिय है । इसी प्रकार विनय के कारण मनुष्य भी लोगों का प्रिय बन जाता है। ( धर्मरत्न प्रकरण १ अधिकार ) अणासवा थूलवया कुसीला, मिउंपि चंडं पकरंति सीसा। चित्ताणुया लहु दक्खोववेया, पसादए ते हु दुरासयं | ५ |
भावार्थ - गुरु का वचन नहीं सुनने वाले, कठोर वचन बोलने वाले एवं दुःशील का आचरण करने वाले शिष्य सौम्य स्वभाव