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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां माग १६५. में,वह सुख नहीं है जो सुख शील गुणों में रत रहने वाले, शब्दादि विषयों से विरक्त तपस्वी मुनियों को होता है।
(उत्तराध्ययन तेरहवा अध्ययन गाथा १७) २ -यतना
कह चरे कह चिट्टे, कहं आसे कहं सए । कह भुजंतो भासतो, पावं कम्मं न बंधइ ॥१॥
भावार्थ-कैसे चले ? कैसे खड़ा हो? कैसे बैठे और कैसे सोये? तथा किस प्रकार भोजन एवं भापण करे कि पापकर्म का बन्ध न हो?
जयं चरे जयं चिट्ठ: जयमासे जयं सए । जयं भुजंनो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ ॥२॥
भावार्थ-यतना से चले, यतना से खड़ा हो,यतना से बैठे और यतना से सोवे । इसी प्रकार यतना से भोजन एवं भापण करने से पाप कर्म का पन्ध नहीं होता। (दशवकालिक चौथा अ० गाया ४.८) जयणेह धम्म जणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव । तवडूढिकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा ॥३॥
भावार्थ-यतना धर्म की जननी है और यतना ही धर्म का रक्षण करने वाली है । यतना से तप की वृद्धि होती है और वह एकान्त रूप से सुख देने वाली है। (प्रतिमा शतक)
२३--विनय एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो। जेण कित्तिं सुअं सिग्धं, नीसेसं चाभिगच्छह ॥१॥