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श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, सातवां माग
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भावार्थ-संयमी साधु संचेतन पदार्थ हो या अचेतन पदार्थ हो, अल्पमूल्य पदार्थ हो या बहुमूल्य पदार्थ हो, यहाँ तक कि दांत कुरेदने का तिनका भी स्वामी से याचना किये बिना न स्वयं ग्रहण करते हैं, न दूसरों को ग्रहण करने के लिये प्रेरित करते हैं और न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन ही करते हैं।
(दयवैकालिक छठा अध्ययन गाथा १३-१४) तवतेणे वयतेणे रूवतेणे य जे नरे । आयारभाव तेणे य, कुब्वइ देवकिविसं ॥५॥
भावार्थ-जो साधु तप का चोर है, वचन (वाक्शक्ति) का चोर है,रूप का चोर है, आचार का चोर है एवं भाव का चोर है, वह नीच योनि के किन्चिपी देवों में उत्पन्न होता है।
(दशकालिक पांचवा अध्ययन दूसग उदृशा गाथा ४६)
१३-ब्रह्मचर्य-शील तवेसु वा उत्तम वैभचेरं ॥१॥ भावार्थ--ब्रह्मचर्य सभी तपों में प्रधान है।
। सूयगडांग सत्र छटा अध्ययन गाथा २३) इथिओ जे ण सेवंति, आइमोक्खा हु ते जणा ॥२॥
भावार्थ--जो पुरुष स्त्रिों का सेवन नहीं करते उनका सर्व प्रयम मोक्ष होता है। (सूयगडाग सूत्र पन्द्रहवां अ० गाथा १०)
जम्मि य आराहियम्मि आराहियं वयमिणं सव्वं, सीलं तवो य विणओ य संजमो य संती मुत्ती गुत्ती तहेव य इहलोइयगरलोइय जसे य कित्ती य पच्चओयो।
भावार्थ-प्रमचर्य व्रत की आराधना करने से सभी व्रतों की