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श्री सेठिया जैन अन्पमाला चाहिये । उसे क्रोध, लोभ, भय और हास्य के वश पापकारी शब्द न कहना चाहिये। हँसते हुए भी उसे न बोलना चाहिये।
(दशवैकालिक सातवा अध्ययन गाथा ५४) १२-अदत्तादान (चोरी) विरति ख्वे अतित्ते य परिग्गहे य,सत्तोवसत्तोन उवेह तुढ़ि। अतुहिदोसेण दुही परस्स,लोभाबिले आययइ अदत्तं। १॥ ___ भावार्थ-मनोज्ञ रूप आदि इन्द्रियविषयों से जो संतुष्ट नहीं है वह उनके परिग्रह में आसक्ति एवं लालसा वाला बना रहता है। अन्त में असंतोष से दुखी एवं लोभ से कलुपित वह आत्मा अपनी इष्ट वस्तु पाने के लिये चोरी करता है।
(उत्तराध्ययन बत्तीसवा अध्ययन गाथा २६ ) सामी जीवादत्त, तित्थयरेणं तहेव य गुरूहि । एअमदत्तसरूवं, परविअं. आगमधरेहिं ॥२॥
भावार्थ-स्वामी से विना दी हुई वस्तु ग्रहण करना अदत्तादान है । प्राणधारी आत्मा का प्राणहरण भी उपकी आज्ञा न होने से अदत्तादान है । तीर्थङ्कर द्वारा निषिद्ध आचरण का सेवन करना अदत्तादान है एवं गुरु की आज्ञा बिना कोई वस्तु ग्रहण करना भी अदत्तादान है । इस प्रकार श्रागमधारी महात्माओं ने अदत्तादान का स्वरूप बतलाया है। (प्रश्न गकरण तीसरा संवरद्वार सूत्र २६ टीका, धर्मसंग्रह २० श्लोक २७ टीका) चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा वहुं। दंतसोहणमित्तं पि, उग्गहंसि अजाइया ॥३॥ तं अप्पणा. न गिण्हंति, नोऽवि गिराहावए परं । अन वा गिराहमाणं पि, नाणुजाणंति संजया ॥४॥