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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग १७५ वितहं पि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो । सम्हा सो पुट्ठो पावेण, कि पुण जो मुसं वए ॥११॥
भावार्थ-जो मनुष्य भूल से भी, ऊपर से सत्य मालूम होने वाली किन्तु मूलतः असत्य भाषा बोलता है उससे भी वह पाप का मागी होता है, तब मला जान बूझ कर जो असत्य बोलता है उसके पाप का तो कहना ही क्या ? (दशवकालिक साता अगाथा ५) इहलोए चिअ जीवा, जीहाछेअं वह च बंधं वा। अयसं घणनास वा, पाचंति अलिअवयणाओ ॥१२॥
भावार्थ-असत्य मापण के फल स्वरूप प्राणी यहीं परजिवाछेद, वध और वन्ध रूप दुःख भोगते हैं। उनका लोक में अपयश होता है एवं धन का नाश होता है।
(धर्मसँग्रह दूसरा अधिकार श्लोक २६ टीका) अप्पणट्टा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसर्ग न मुसं व्या, नो वि अन्नं वगावए ॥१३॥
भावार्थ-अपने स्वार्थ के लिये अथवा दूसरों के लिये, क्रोध से अथवा भय से, दूसरों को दुःख पहुंचाने वाला असत्य वचन न स्वयं कहे न दूसरों से कहलावे। (दशवैकालिक छठा अ० गाथा ११) तहेव सावजणुमोअणी गिरा,
ओहारिणी जा य परोवघाइणी । से कोह लोह भय हास माणवो,
न हासमाणोऽवि गिरं वएना ॥१४॥ भावार्थ-साधक को पाप का अनुमोदन करने वाली, निश्चयकारिणी तथा दूसरों को दुःख पहुंचाने वाली वाणी, न कहना