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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला आराधना हो जाती है। शील, तप, विनय, संयम, क्षमा, निर्लो1 भता और गुप्ति ये सभी ब्रह्मचर्य की आराधना से आराधित होते
हैं । ब्रह्मचारी इसलोक और परलोक में यश, कीर्ति एवं लोकविश्वास प्राप्त करता है।
जेण सुद्धचरिएण भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाहू स इसी स मुणीस संजए स एव भिक्खू जो सुद्धं चरइ बंभचेरं ॥४॥ ____भावार्थ-ब्रह्मचर्य के शुद्ध आचरण से उत्तम ब्राह्मण, उत्तम श्रमण और उत्तम साधु होता है। ब्रह्मचर्य पालने वाला ही ऋषि है । वही मुनि है, वही साधु है और वही भिक्षु है ।
(प्रश्नव्याकरण चौथा संवर द्वार सूत्र २७) न रूव लावण्ण विलासहासं, न जंपियं इंगियपेहियं वा। इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता,दठूटुंववस्से समणेव तच स्सी
भावार्थ-श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य,मधुर वचन, कामचेप्टा एवं कटाक्ष आदि को मन में तनिक मी स्थान न दे एवं रागपूर्वक देखने का कभी प्रयत्न न करे।
अदंसणं चेव अपत्थणंच, अचिंतणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्सारियझाणजुग्गं,हियं सया बंभवए रयाणा।
भावार्थ-ब्रह्मचारी को स्त्रियों को रागपूर्वक न देखना चाहिये और न उनकी अभिलाषा करनी चाहिये । स्त्रियों का चिन्तन एवं कीर्तन भी उसे न करना चाहिए। सदा ब्रह्मचर्य व्रत में रहने वाले पुरुषों के लिये यह नियम उत्तम ध्यान प्राप्त करने में सहायक है एवं उनके लिये अत्यन्त हितकर है। कामंतु देवीहिं विभूसियाहिं.न चाइयाखोभइतिगुत्ता।