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________________ १७८ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला आराधना हो जाती है। शील, तप, विनय, संयम, क्षमा, निर्लो1 भता और गुप्ति ये सभी ब्रह्मचर्य की आराधना से आराधित होते हैं । ब्रह्मचारी इसलोक और परलोक में यश, कीर्ति एवं लोकविश्वास प्राप्त करता है। जेण सुद्धचरिएण भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाहू स इसी स मुणीस संजए स एव भिक्खू जो सुद्धं चरइ बंभचेरं ॥४॥ ____भावार्थ-ब्रह्मचर्य के शुद्ध आचरण से उत्तम ब्राह्मण, उत्तम श्रमण और उत्तम साधु होता है। ब्रह्मचर्य पालने वाला ही ऋषि है । वही मुनि है, वही साधु है और वही भिक्षु है । (प्रश्नव्याकरण चौथा संवर द्वार सूत्र २७) न रूव लावण्ण विलासहासं, न जंपियं इंगियपेहियं वा। इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता,दठूटुंववस्से समणेव तच स्सी भावार्थ-श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य,मधुर वचन, कामचेप्टा एवं कटाक्ष आदि को मन में तनिक मी स्थान न दे एवं रागपूर्वक देखने का कभी प्रयत्न न करे। अदंसणं चेव अपत्थणंच, अचिंतणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्सारियझाणजुग्गं,हियं सया बंभवए रयाणा। भावार्थ-ब्रह्मचारी को स्त्रियों को रागपूर्वक न देखना चाहिये और न उनकी अभिलाषा करनी चाहिये । स्त्रियों का चिन्तन एवं कीर्तन भी उसे न करना चाहिए। सदा ब्रह्मचर्य व्रत में रहने वाले पुरुषों के लिये यह नियम उत्तम ध्यान प्राप्त करने में सहायक है एवं उनके लिये अत्यन्त हितकर है। कामंतु देवीहिं विभूसियाहिं.न चाइयाखोभइतिगुत्ता।
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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