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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातव भाग
१७६ तहावि एगंत हियं ति नच्चा, विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो ७ भावार्थ - मन वचन काया का गोपन करने वाले मुनियों को चाहे वस्त्राभूषणों से अलंकृत अप्सराएं भी संयम से विचलित न कर सकें फिर भी उन्हें एकान्तवास का ही आश्रय लेना चाहिये । यही उनके लिये अत्यन्त हितकारी एवं प्रशस्त कहा गया है । ( उत्तराध्ययन बत्तीसवा अध्ययन गाथा १४, १५, १६ ) हत्थपाय पलिच्छिन्नं, कन्ननासविगप्पिअं । अवि वाससयं नारिं, भयारी विवज्जए ॥ ८ ॥
भावार्थ - टूटे हुए हाथ पैर वाली और कटे हुए कान नाक चाली सौ वर्ष की बुढ़िया का सग भी ब्रह्मचारी के लिये वर्जनीय है । ( दशचैकालिक आठवां अध्ययन गाथा ५६ ) जड़ वि स थिरचित्तो, तहावि न संसग्गिलद्धपसराए । अग्गिसमीवेव घयं, विलिज्ज चित्त खु अज्जाए ॥ ९ ॥
भावार्थ-साधु स्वयं स्थिर चित्त हो फिर भी आर्या का संपर्क ठीक नहीं है । जैसे आग के पास रहा हुआ घी पिघल जाता है उसी प्रकार साधु संसर्ग से आर्या का चित्त विकृत होकर विच - लित हो सकता है। ( गच्छाचार प्रकीकि गाथा ६६ ) जत्थ य अज्जाहि समं, थेरावि न उल्लविंति गयदसणा । न य झायंति थीणं, अंगोवंगाई नं गच्छं ॥१०॥
भावार्थ - जहाँ स्थविर साधु भी जिनके कि दाँत गिर गये है, आर्याओं के साथ आलाप संलाप नहीं करते एवं स्त्रियों के अङ्ग उपाङ्ग का ध्यान नहीं करते, वही गच्छ है ।
( गच्छाचार प्रकीर्णक गाथा ३२ )
जत्थ य अज्जासई, पडिग्गहमाई विचिहमुवगरणी
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