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श्री सेठिया जन अन्यमाला परिभुजइ साहूहि, तं गोअम ! केरिसं गच्छं ॥११॥ ___ भावार्थ-हे गौतम ! जहाँ साधु आर्याओं से लाये हुए पात्र आदि विविध उपकरणों का परिभोग करते हैं वह कैसा गच्छ है ?
(गच्छाचार प्रकीर्णक गाथा ६१) जत्थ समुद्देस काले, साहूणं मंडलीइ अज्जाओ। गोयम ! ठचंति पाए, इत्थीरज्जन तं गच्छं ॥१२॥
भावार्य--हे गौतम! जहाँ भोजन के समय साधुओं की मंडली में आर्याएं पैर रखती हैं वह गच्छ नहीं किन्तु स्त्रीराज्य है।
(गच्छाचार प्रकीर्णक गाथा L६) विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीअ रसभोयणं । नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥१३॥
भावार्थ--आत्मशोधक पुरुष के लिये शरीर का शृङ्गार, स्त्रियों का संसर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन, तालपुट विष के समान घातक हैं।
(दशवैकालिक अाठवा अ० गाथा ५७) मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गथा वज्जयंति णं ॥१४॥
भावार्थ--अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है और महादोषों का पूजरूप है। इसीलिये निम्रन्थ मुनि स्त्रीसंसर्ग का त्याग करते हैं।
(दशवैकालिक छठा अध्ययन गाथा १६) 'देवदाणाव गंधब्वा, जक्ख रक्खस किन्नरा । बंभयारिं नर्मसंति, दुक्करं जे करंति तं ॥१५॥
भावार्थ-दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले ब्रह्मचारी पुरुष को देव, दानव, गंधर्व,, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी नमस्कार करते हैं।'