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श्री जैन सिमान्त बोल संग्रह, सातवा भाग
नहीं होती। शब्द, समभिरुढ और एवंभूत नय केवल आवरण क्षयोपशम रूप लन्धि को ही नमस्कार का कारण मानते हैं क्योंकि लब्धिरहित अभव्य जीवों में वाचना का निमित्त मिल जाने पर भी नमस्कार रूप कार्य की उत्पत्ति नहीं होती।
उक्त नयों के मन्तव्यों के समर्थन और विरोध में विशेषावश्यक भाष्य में भनेक युक्तियाँ दी गई है। विशेष जिज्ञासा के लिये यह विषय वहाँ देखना चाहिये।
(विशेपावश्यक भाष्य गाथा २८०६ से २८३६) (४) प्रश्न-नमस्कार का खामी नमस्कारकर्ता है या पूज्य है ?
उत्तर--नमस्कार के स्वामित्व के सम्बन्ध में नयों के अभिप्राय जुदे जुदे हैं। नैगम और व्यवहार नय के अनुसार नमस्कार का खामी पूख्य आत्मा है । जैसे माधु को दी गई मिक्षा साधु की होती है पर दाता की नहीं होती। इसी प्रकार पूज्य को किया गया नमस्कार पूज्य का होता है परन्तु नमस्कार करने वाले का नहीं होता। जैसे रूपादि धर्म घट का स्वरूप बनलाने के कारण घट की पर्याय हैं इसी प्रकार नमस्कार भी पूज्य की पूज्यता बतलाता है इस लिये वह पूज्य की पर्याय है। कि पूज्य नमस्कार का हेतु है उसे देख कर भक्त में नमस्कार करने की भावना प्रगट होती है इस कारण भी नमस्कार पूज्य का ही है। नमस्कार करने वाला पूज्य का दामत्व स्वीकार करता है। इस दृष्टि से भी वह और उससे किया गया नमस्कार पूज्य ही के हैं।
संग्रह नय सामान्य मात्र को विपय करता है इस कारण वह जीव का नमस्कार, पूज्य का नमस्कार इत्यादि विशेषण रहित केवल सत्ता रूप नमस्कार को स्वीकार करता है। इसलिये यह नय स्वामित्व का विचार ही नहीं करता। 'ऋजुसूत्र के अनुसार नमस्कार उपयोगात्मकमान रूपमा