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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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'अरिहन्त को नमस्कार हो' इस प्रकार शब्द रूप अथवा मातक काने आदि क्रिया रूप है । ये ज्ञान शब्द और क्रिया नमस्कारकर्त्ता के गुण हैं इसलिये नमस्कार भी उभी का है । नमस्कार करना कर्त्ता के अधीन हैं, इस कारण भी वह उसी का है । नमस्कार का स्वर्गाद फल नमस्कार करने वाले को प्राप्त नमस्कार कारक कर्मों का क्षयोपशम भी उसी के इसलिए नमस्कार का स्वामी भी वही है ।
होता है, होता है
शब्द सममिरूद और एबंधूत नय के अनुसार उपयोग रूप ज्ञान ही नमस्कार है किन्तु वे शब्द और क्रिया रूप नमस्कार नहीं मानते । ज्ञान रूप उपयोग का स्वामी नमस्कार कर्त्ता है इसलिये इन नयों के अनुसार नमस्कार का स्वामी भी वही है ।
(विशेषावश्यक भाष्य २८०० से २८१२) (५) प्रश्न - तीर्थङ्कर दीक्षा लेते समय किसे नमस्कार करते हैं ? उत्तर - तीर्थङ्कर देव दीक्षा लेते समय सिद्ध भगवान् को नमस्कार करते हैं । श्राचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावनाध्ययन में भगवान् महावीर की दीक्षा के सम्बन्ध में यह पाठ है
तओ णंसमणे जाव लोयं करिता सिद्धाणं णमुक्कारं करेह, करिता सव्वं मे अकरणिज्जं पार्व कम्मं ति कट्टु सामाइयं चरितं पडिवज्जइ ।
भावार्थ - इसके पश्चात् श्रमण भगवान् यावत् लोच करके मिद्ध भगवान् को नमस्कार करते हैं और सभी पाप कर्मों का त्याग कर सामायिक चारित्र अंगीकार करते हैं ।
इसी प्रकरण में हरिभद्रीयावश्यक में यह गाया हैकाऊण णमुक्कारं सिद्धाणमभिग्गहं तु से गिण्हे । सव्वं मे अकरणिज्ज पावं ति चरितमारूढो ॥ भावार्थ सिद्धों को नमस्कार कर वे श्रभिग्रह लेते हैं कि सभी