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श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, सातवां भाग १४७ उदीरणा के स्वामित्व में कोई विशेष नहीं है। जो जीव ज्ञानावरण श्रादि कर्मों के उदय का स्वामी है वही उन कर्मों की उदीरखा का भी स्वामी है । कहा भी है-'जस्थ उदो तस्थ उदीरणा जत्य उदीरणा तत्थ उदओ' अर्थात् जहाँ उदय है वहाँ उदीरणा है और जहाँ उदीरणा है यहाँ उदय है। किन्तु ४१ प्रकृतियाँ इस नियम की अपवाद रूप हैं । इनका उदीरणा के बिना ही उदय होता है।
इकतालीस प्रकृतियाँ ये हैं-ज्ञानावरण की पाँच प्रतियाँ, अन्तराय की पाँच प्रकृतियाँ, दर्शनावरण की नौ प्रकृतियाँ, वेदनीय की दो प्रकृतियाँ, मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, संज्वलन लोभ, तीन वेद, चार पाय, नामकर्म की नो प्रकृतियाँ, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, स, वादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, तीर्थकर नाम तथा उच्चगोत्र ।
ज्ञानावरण की पाँच, अन्तराय की पाँच और दर्शनावरण की चार-चक्षुदर्शनावरगा, अचतुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण
और केवलदर्शनावरण-इन चौदह प्रकृतियों के उदय और उदीरणा, वारहवें गुणस्थान में एक प्रालिका शेप रहे तब तक, सभी जीवों के एक साथ होते हैं। प्रापलिका शेप रहने पर उदय ही होता है क्योंकि यावलिका के अन्तर्गत प्रतियाँ उदीग्णा योग्य नहीं होती।
शरीरपर्याप्ति की समाप्ति के बाद जीवों के जब तक इन्द्रियपर्याप्ति की समाप्ति नहीं होती तब तक उन्हें निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि का उदय ही होता है, इनकी उदीरणा नहीं होती। शेप काल इनके उदय उदीरणा एक साथ प्रवृत्त होते हैं और साथ ही निवृत्त होते हैं।
वेदनीय की दोनों प्रकृतियों के उदय उदीरणा प्रमत्तगुणस्थान तक साथ होते हैं। आगे इनका उदय ही होता है,उदीरणा नहीं होती।
प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय अन्तरफरण कर लेने पर