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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
अखिल विश्व में हिंसा जैसा दूसरा धर्म नहीं है । (भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक गाथा ६१ )
११ -सत्य
सचं जसस्स मूलं, सच्च विस्सासकारणं परमं । सच्चं सग्गद्दारं, सच्चं सिद्धीइ सोपाणं ॥१॥
भावार्थ - सत्य यश का मूल कारण है। सत्य ही विश्वासप्राप्ति का मुख्य साधन है । सत्य स्वर्ग का द्वार है एवं सिद्धि का सोपान है । (संग्रह दूसरा अधिकार श्लोक २६ टीका)
र्त लोगम्भि सारभूयं, गंभीरतरं महासमुद्दाओ, थिरतर मेरुपव्ययाओ, सोमतरगं चंदमंडलाओ, दित्ततरं सूरमंडलाओ, विमलतरं सरयनहयलाओ, सुरभितरं गंधमादणाओ ॥२॥
भावार्थ - सत्य लोक में सारभूत है । यह महासमुद्र से भी अधिक गम्भीर है | सुमेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर है। चंद्रमंडल से अधिक सौम्य एवं सूर्यमंडल से अधिक दीप्त है । शरत्कालीन आकाश से यह अधिक निर्मल है एवं गन्धमादन पर्वत 'से भी अधिक सुगन्ध वाला है । (प्रश्नव्याकरण दूसरा संवर द्वार सूत्र २४)
जे वय लोगम्मि अपरिसेसा मंतजोगा जवा य विजाय जंभकाय अत्थाणि य सिक्खाओ य आगमा य सव्वाणि विताई सचे पट्टियाई ॥ ३ ॥
भावार्थ - लोक में जो भी सभी मंत्र, योग, जप, विद्या, जृम्भक अस्त्र, शस्त्र, शिक्षा और आगम हैं वे सभी सत्य पर स्थित हैं । ( प्रश्नव्याकरण दूसरा संवर द्वार सूत्र २४ )