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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, साता भाग १६५ जया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणइ । तया निश्चिदए भोए,जे दिव्वेजे य माणुस्से ॥५॥
भावार्थ-जन वह पुण्य,पाप,अन्ध और मोक्ष को जान लेता है तब देवता और मनुष्य सम्बन्धी समस्त कामभोगों को असार जान कर उनसे विरक्त हो जाता है ।
जया निविदए भोए, जे दिव्वे जे य माणुस्से । तया चयइ संजोगं, सम्भिंतर बाहिरं ॥६॥
भावार्थ-जब देवता और मनुष्य सम्बन्धी समस्त कामभोगों से विरक्त हो जाता है तब माता पिता तथा संपत्ति रूप बाह्य संयोग एवं रागद्वेष कपाय रूप आभ्यन्तर संयोग को छोड़ देता है।
जया चयइ संजोगं, सम्भितर बाहिरं । तया मुण्डे भवित्ताण, पञ्चयइ अणगारियं ॥७॥
भावार्थ-जब उक्त बाह्य एवं आभ्यन्तर संयोग को छोड़ देता है तव सुण्डित होकर अनगारवृति (मुनिचर्या) को प्राप्त करता है।
जया मुण्डे भवित्ताणं, पव्वयइ अगगारिय । तया संवरमुश्किलु, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥ ८॥
भावार्थ-जब मुण्डित होकर अनगार वृत्ति को प्राप्त करता है तब सर्व प्राणातिपातादि विरति रूप उत्कृष्ट संवर-चारित्र धर्म का यथावत् पालन करता है।
जया संवरमुक्किड, धम्म फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, अयोहि कलसं कडं ॥९॥
भावार्थ-जम सर्व प्राणातिपातादि विरति रूप उत्कृष्ट संघर चारित्र धर्म को प्राप्त करता है तब मिथ्यात्व रूप कलुष परिणाम से आत्मा के साथ लगे हुए कर्म रज को झाड़ देता है।