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.......भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां माग .... १४१ गया हो,साधु को आधाकर्म दोष वाला वह आहार न लेना चाहिये।
(१५) आधाकर्मी आहार का एक कण भी जिसमें मिला हों वह आहार पूतिकर्म दोष वाला है। साधु को ऐसे दूषित आहार का सेवन न करना चाहिये यह उसका कन्प है । जिसके शुद्ध.या अशुद्ध होने में शंका हो वह आहार भी साधु को नहीं कन्पता।
(१६) ग्राम अथवा नगरों में श्रद्धालु धार्मिक गृहस्थों के स्थान होते हैं वहाँ रहा हुआ कोई गृहस्थ धर्मबुद्धि से ऐसे कार्य,जिनमें जीवों की हिंसा होती है, करता है। आत्मा का गोपन करने वाला जितेन्द्रिय साधु उनके धर्माधर्म के सम्बन्ध में कथन कर जीवहिसा का अनुमोदनन करे।
(१७) इस प्रकार के उपरोक्त वचन सुन कर साधु उनसे पुएर होता है ऐसा न कहे । उन कार्यों से पुण्य नहीं होता यह भी उसे नहीं कहना चाहिये क्योंकि ऐसा कहना महाभयदायक है। . — (१८) दान के निमित्त जिन स और स्थावर प्राणियों की हिंसा होती है उन जीवों की रक्षा के लिये साधु को 'पुण्य होता है। ऐसा न कहना चाहिये। ' (१९) जिन प्राणियों को दान देने के लिये अन्न जल आदि तैयार किये जाते हैं, पुण्य का निषेध करने से चूकि उन प्राणियों के अन्तराय पड़ती है इसलिये उन कार्यों में 'पुण्य नहीं होता' ऐसा भी साध को न कहना चाहिये।
(२०) जो दान की प्रशंसा करते हैं वे प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं और जो दान का निषेध करते हैं वे प्राणियों की दृषि का छेदन करते हैं। - (२१) उक्त कारणों से दान में पुण्य होता है अथवा पुण्य नहीं होता इस प्रकार दोनों ही बात साधु नहीं कहते। ऐसा करने वाले साधु कर्म का आगमन रोक कर निर्वाण को प्राप्त करते हैं।