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श्री सेठिया जैन मन्थमाला
इन जीवों के पृथक् पृथक् शरीर हैं। तृण, वृक्ष और बीज रूप वनस्पति भी जीव रूप है। प्रत्येक वनस्पति के जीवों के पृथक् पृथक् शरीर होते हैं और साधारण वनस्पति में अनन्त जीवों के एक ही साधारण शरीर होता है ।
(८) उक्त पाँच के सिवाय दुसरे त्रस प्राणी हैं। इस प्रकार कुल मिल कर छः काय कहे गये हैं । इतने ही जीव निकाय हैं इनके सिवाय दूसरा कोई संसारी जीव नहीं है ।
(E) बुद्धिमान् पुरुष को अनुकूल युक्तियों द्वारा इन छः काय को जीव रूप जानना चाहिये । ये सभी दुःख के द्वेषी और सुख चाहने वाले हैं ऐसा जानकर किसी जीव की हिंसा न करनी चाहिये ।
(१०) ज्ञानी के ज्ञान का यही सार है कि वह वह किसी जीव की हिंसा न करे | तीर्थङ्कर का उपदेश अहिंसा प्रधान है केवल इतना ही जानकर मुमुक्षु को किसी की हिंसा न करनी चाहिये ।
(११) ऊपर, नीचे और तिछें जो भी त्रस स्थावर प्राणी हैं उनकी हिंसा से निवृत्त होना चाहिये । हिंसा से निवृत्ति यानी अहिंसा ही अपने पराये सभी आत्माओं के लिये शान्ति रूप है एवं निर्वाण प्राप्ति में प्रधान कारण होने से निर्वाण रूप कही गई है।
(१२) मोक्षमार्ग का आचरण करने में समर्थ जितेन्द्रिय व्यक्तिको मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और अशुभ योग रूप दोष दूर कर मन वचन काया से कभी किसी से विरोध न करना चाहिये । (१३) संवर वाले, बुद्धिशील एवं क्षुधा पिपासा आदि परीषहों से क्षुब्ध न होने वाले धीर साधु को स्वामी या उसकी आज्ञा से दिये हुए आहार की एपणा करनी चाहिये । सदा एषणा समिति में उपयोग रखते हुए उसे अनेषणीय आहार का त्याग करना चाहिये ।
(१४) साधु के निमित्त संरंभ, समारंभ और आरंभ के कार्यों द्वारा प्राणियों को दुःख पहुँचा कर जो आहार पानी तैयार किया
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