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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवों माग वाला है । विश्व के सभी मंगलों में यह प्रधान मंगल है।
- (हरिभद्रीयावश्यक नमस्कार विमांग गाथा ६२३-६२६) नोट-सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु नमस्कार का माहात्म्य बतलाने के लिये भी यही चार चार गाथाएं उक्त ग्रन्थ में दी हैं। अरिहन्त के बदले यथायोग्य सिद्ध आचार्यादि पद दिये हुए हैं।
इहलोए अत्थकामा आरोग्गं अभिई य निष्फत्ती। सिद्धी य सग्ग सुकुल पन्जायाई य परलोए ॥८॥
भावार्थ-नमस्कार से इहलोक में अर्थ, काम, आरोग्य, अभिरति और पुण्य की प्राप्ति होती है एवं परलोक में सिद्धि, स्वर्ग एवं उत्तम कुल की प्राप्ति होती है। (विशेषावश्यक भाष्य गाथा ३२२३)
एसो पंच णमोक्कारो सब्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं पढम हवइ मंगलं ॥ ९ ॥
भावार्थ-अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु-इन पाँचों पदों का यह नमस्कार सभी पापों का नाश करने वाला है। संसार के सत्र मंगलों में यह यह प्रथम (मुख्य) मंगल है।
(आवश्यक मलयगिरि १ श्रध्ययन २ खएड) ३-निर्ग्रन्थ प्रवचन महिमा तमेव सचं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ॥ १ ॥
भावार्थ-राग द्वेष को जीतने वाले पूर्णज्ञानी तीर्थङ्कर देव ने जो कहा है वही सत्य और असदिग्ध है । (प्राचारांग अ० ५ उ० ५ सूत्र १६३)
इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलए संसुद्धे पडिपुण्णे णेआउए सल्लकत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिव्वाणमग्गे णिजाणमग्गे अवितहमविसंधि सव्व दुक्खप्पहीणमग्गे । इहहिआ जीवा सिज्झति बुज्झति मुञ्चति परिणिवायति सबदुक्खाण मंतं करति ॥२॥