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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला भावार्थ-यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य, सर्व प्रधान और अद्वितीय है। यह शुद्ध (निर्दो।) पूर्ण और प्रमाण से अबाधित है। मायादि शल्यों का यह नाश करने वाला है एवं मिद्धि, मुक्ति और निर्वाण का मार्ग है । यह ययार्थ एवं पूर्वापर विरोध रहित है। इस मार्ग को अंगोकार करने से सभी दुःखों का नाश हो जाता है। इसका आश्रय लेने वाले सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होते हैं। वे निर्वाण को प्राप्त करते हैं एवं सभी दुःखों का नाश करते हैं।
(हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन) । औपपातिक सूत्र ३४) जिणवयणे अणुरत्ता जिणवयणं जे करेंति भावेणं। अमला असंकिलिहा ते होंति परित्तसंसारी ॥३॥
भावार्थ-जो जिनागम में अनुरक्त हैं और जो भावपूर्वक जिन भापित अनुष्ठानों का सेवन करते हैं । राग द्वेष रूप क्लेश से रहित वे पवित्रात्मा परित्तसंसारी होते हैं।
(उत्तराध्ययन अध्ययन ३६ गाथा २५८)
४-शात्मा नोई दियग्गिज्झ अमुतभावा,
__ अमुत्तभावा चिय होई निचो॥ अज्झत्थहे निययस्स बंधो,
संसारहेडं च वयंति बंधं ॥१॥ भावार्थ-श्रात्मा अमूर्व होने से इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता और अमूर्त होने से ही वह नित्य है। प्रात्मा में रहे हुए मिथ्यात्व भज्ञान श्रादि दोषों से कर्मबन्ध होता है और यही बन्ध संसार परिभ्रमण का कारण कहा जाता है।
(उत्तराध्ययन अध्ययन चौदहवां गाया १६) नाणं च दंसणं चेच, चरित्तं च तवो तहा । चीरिंग उपओगो य, एवं जीवस्य लक्खणं ॥२॥