________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
ই७
भावार्थ - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य तथा उपयोग ये जीन के लक्षण हैं |
(उत्तराध्ययन अटाईसवां श्रध्ययन गाथा ११ ) जे आया से विष्णाया । जे चिण्णाया से आया । जेण विजाग से आया तं पडुच पडिसंखाए । एस आयावाई समिया परियाए वियाहिए ॥ ३ ॥
भावार्थ - जो आत्मा है वह विज्ञाता (ज्ञान वाला) है । जो विज्ञाता है वह आत्मा है। जिस ज्ञान द्वारा जानता है वह आत्मा हैं । ज्ञान की विशिष्ट परिणति की अपेक्षा आत्मा भी उसी (ज्ञान के) नाम से कहा जाता है । इस प्रकार ज्ञान और आत्मा की एकता जानने वाला ही आत्मवादी हे और उसी की पर्याय ( संयमानुष्ठान, सम्यक् कही गई है।
(श्राचराग पाँचवा अध्ययन पाँचवां उद्देशा सूत्र १६६ ) अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे गंदणं वर्णं ॥ ४ ॥ अप्पा कत्ता विकत्ता य, सुहाण य दुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टिय सुप्प हिओ ॥ ५ ॥ भावार्थ - आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी तथा कूट शाल्मली वृक्ष हैं और यही स्वर्ग की कामदुघा धेनु और नन्दनवन है ।
सदनुष्ठानरत आत्मा सुख देने वाला और दुःख दूर करने. वाला है और दुराचार प्रवृत्त यही आत्मा दुःख देने वाला और मुखों का छीनने वाला हो जाता है । सदनुष्ठानरत आत्मा उपकारी होने से मित्र रूप है एवं दुराचार प्रवृत्त यही आत्मा अपकारी होने से शत्रु रूप है। इस प्रकार आत्मा ही सुख दुःख का देने वाला और यही मित्र और शत्रु रूप है।
(उत्तराध्ययन बीसवां श्रध्ययन गाथा ३६-३७)
पुरिसा ! तुममेव तुमं मिचं किं पहिया मिचमिच्छसि ॥ ६