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श्री मेठिया जन प्रन्यमाला
भावणा जोग सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। णावा व तीरसंपन्ना, सव्व दुक्खा तिउदृइ ॥४॥
भावार्थ-जो आत्मा पवित्र भावनाओं से शुद्ध है वह जल पर रही हुई नौका के समान है । वह आत्मा नौका की तरह संसार रूप समुद्र के तट पर पहुँच कर सभी दुःखों से छूट जाता है।
. (स्यगडांग पन्द्रहवां अध्ययन गाथा ५)
४३-क्षमापना पुढवी दग अगणिमारुय,एक्कक्के सत्तजोणि लक्खाओ। वण पत्तेय अते, दस चउदस जोणि लक्खाओ ॥१॥ विगलिदिएसुदो दो, चउरो चउरो य नारय सुरेसुं। तिरिएसु होति चउरो, चउदस लक्खा उ मणुएसु ॥२॥
भावार्थ-पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु-प्रत्येक की सात सात लाख योनि हैं। प्रत्येक बनस्पति की दस लाख और अनन्त काय अर्थात् साधारण वनस्पति काय की चौदह लाख योनि हैं।
द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय-इन तीनों विकलेन्द्रियों में से प्रत्येक की दो दो लाख योनि हैं । नारकी और देवता की तथा तिर्यश्च पञ्चन्द्रिय की चार चार लाख योनि हैं । मनुष्य की चौदह लाख योनि हैं । इस प्रकार कुल चौरासी लाख योनि हैं।
. (प्रवचनसारोद्धार गाथा ६६८.६६८) खामेमि सम्वे जीवा, सच्चे जीता खमंतु मे। मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झं न केणइ ॥३॥
भावार्थ-उपरोक चौरासी लाख योनि के सभी जीवों से मैं • घमा चाहता है। सभी जीव मुझे चमा करें। मेरा सभी प्राणियों