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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
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के साथ मैत्री भाव है। किसी के भी साथ मेरा वैर भाव नहीं है। (श्रावश्यक सूत्र ) जं जं मणेण वद्धं, जं जं वायाए भासिअं पावं । जं जं कारण कयं, मिच्छामि दुक्कडं तस्स ||४|| भावार्थ - मन, वचन और शरीर से मैंने जो पाप किये हैं मेरे वे सब पाप मिथ्या हों ।
आयरिए उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुल गणे अ । जे मे केह कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥ ५ ॥
भावार्थ - श्राचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल और गया के प्रति मैंने जो क्रोधादि कयायपूर्वक व्यवहार किया है उसके लिये मैं मन वचन और काया से क्षमा चाहता हूँ । सव्वस्स समणसंघस्स, भगवओ अंजलि करीअ सीसे । सव्वं खमावड़ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥ ६ ॥
भावार्थ- मैं नतमस्तक हो, हाथ जोड़कर पूज्य श्रमण संघ से सभी अपराधों के लिये क्षमा चाहता हूँ और उनके अपराध भी मैं क्षमा करता हूं ।
( मरणसमाचिप्रकीर्णक गाथा ३३५, ३३६) (संस्तारक प्रकीर्णक गाथा १०४, १०५) सव्बस्स जीवरासिस्स, भावओ धम्म निहिअ निअचित्तो । सव्वे खमावत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥ ७ ॥
भावार्थ-धर्म में स्थिर बुद्धि होकर मैं सद्भावपूर्वक सब जीवों से अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगता हूँ और उनके सब प राधों को मैं भी सद्भावपूर्वक क्षमा करता हूँ ।
( संस्तारक प्रकीर्णक गाथा १०६ )