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श्री जन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
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प्रहर में स्वयं अपनी आत्मा का निरीक्षण करे और विचारे कि मैंने कौन से कर्तव्य कार्य किये हैं, कौन से कार्य करना अवशेष है भौर क्या क्या शक्य अनुष्ठानों का मैं आचरण नहीं कर रहा हूँ? किं मे परो पासइ किं च अप्पा,
किं चाहं खलियं न विवजयामि । इचेव सम्म अणुपासमाणो,
अणागयं नो पडिबंध कुजा ॥२॥ भावार्थ-मरे लोग मुझ में क्या दोष देख रहे हैं, मुझे अपने श्राप में क्या दोष दिखाई देते हैं,क्या मैं इन दोषों को नहीं छोड़ रहा है। इस प्रकार सम्यक रीति से अपने दोपों को देखने वाला मुनि भविष्य में ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता जिससे कि संपम में बाधा पहुँचे। जत्येव पासे कह दुप्पउत्तं,
कारण वाया अदु माणसेणं । तत्येव धीरो पडिसाहरिजा,
__ आहन्नओ खिप्पमिव क्खलींणं ॥३॥ भावार्थ-धीर मुनि जब कमी आत्मा को मन वचन काया सम्बन्धी दुष्ट व्यापारों में लगा हुया देखे कि उसी समय उसे शास्त्रोक्त विधि से श्रात्मा को दुष्ट व्यापार से हटाकर संयम व्यापार में लगाना चाहिये। जैसे पाकीर्णक जाति का घोडालगाम के नियन्त्रण में रहकर सन्मार्ग में चलता है। इसी प्रकार उसे भी शास्त्र विधि के अनुसारमात्मा को संयम मार्ग पर लाना चाहिये।
(दशवकालिक दूसरी चूलिका गाथा १२, १३, १४)