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श्री सेठिया जन प्रन्यमाला
भिक्खू य अण्णयरं अकिञ्चठाणं पडिसेवित्ता सेणं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कने कालं करेइ, णस्थि तस्स आराहणा। से णं तस्स ठाणस आलोइयपडिक्कते कालं करेइ, अत्थि तस्स आराहणा ॥६॥
भावार्थ-साधु यदि किसी अकृत्य का सेवन कर उसकी आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना काल करे तो उनके आराधना नहीं होती। यदि वह उस अकृत्य की आलोचना प्रतिक्रमण करके काल करे तो उसके आराधना होती है।
(भगवत्ती दसवां शतक दूसरा उद्देशा) एवं उवडियस्सवि, आलोएउ' विसुद्धभावस्स | जंकिंचि वि विस्सरियं,सहसक्कारेण वा चुक्कं ॥७॥ आराहओ तहवि सो, गारवपरिकुंचणामयविहूणो। जिणदेसियस धीरो, सद्दहगो मुत्तिमग्गस्स ॥८॥
भावार्थ-शुद्ध भावपूर्वकमालोचना के लिये उपस्थित हुआव्यक्ति मालोचना करते हुए यदि रमरणशक्ति की कमजोरी के कारण अथवा उतावली में किसी दोष की मालोचना करना भूल जाय । फिर भी माया, मद एवं गारव से रहित वह धैर्यशाली पुरुष भाराधक है एवं जिनोपदिष्ट मुक्ति मार्ग का श्रद्धावान है।
(मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा १२१,१२२) ४२-मात्म-चिन्तन जो पुन्चरत्तावरत्तकाले, संपिक्खए अप्पगमप्पएण। किंमेकर्ड किं च मे किचसेसं,किं सक्कणिज्जन समायरामि
भावार्थ-साधक को चाहिये कि वह रात्रि के प्रथम एवं अन्तिम