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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
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(१८) प्रश्न- ग्राम आकर यावत् सन्निवेशों में कई मनुष्य ऐसे होते हैं जो सभी शब्दादि कामों से विरत होते हैं एवं सभी प्रकार के रागभाव से निवृत्त होते हैं । माता पितादि सम्बन्ध एवं तन्निमित्तक स्नेह से वे परे होते हैं । क्रोधादि कपायों को वे विफल एवं क्षीण कर देते हैं एवं क्रमशः आठ कर्मों का क्षय करते हैं । ये महात्मा पुरुष यहाँ की स्थिति पूरी कर कहाँ जाते हैं ?
उत्तर—उक्त गुण सम्पन्न महात्मा सभी कर्मों का क्षय कर ऊपर लोकाग्रस्थित सिद्धस्थान में विराजते हैं । (पपातिक सूत्र ४१) (१६) प्रश्न- जलचर, स्थलचर, खेचर आदि पर्याप्त संज्ञी तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय जीवों में से कई जीवों को शुभ परिणाम एवं अध्यव साय और लेश्या की विशुद्धि से तथा ज्ञानावरणीय कर्म का चयोरशम होने से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेपणा करते हुए जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो जाता है जिससे वे अपने संज्ञी अवस्था में किये हुए पूर्वभव देखने लगते हैं । वे स्वयमेव पाँच अणुव्रत अङ्गीकार करते हैं और त्याग प्रत्याख्यान शीलत्रत गुणत्रत तथा पौधोपवास का आचरण करते हुए अपना जीवन बिताते हैं । अन्तिम समय में आलोचना और प्रतिक्रमण करके अनशन द्वारा भक्त का छेदन कर समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त होते हैं। वे कहाँ उत्पन्न होते हैं ?
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उत्तर - उपरोक्त तिर्यञ्च काल करके आठवें सहस्रार देवलोक मैं उत्पन्न होते हैं। वहाँ उनकी अठारह सागरोपम की स्थिति होती है । वे पारिवारिक सम्पत्ति, यश आदि से सम्पन्न होते हैं। वे परलोक के आराधक होते हैं । (औपपातिक सूत्र ४१)
(२०) प्रश्न- 'मिच्छत्तं जमुदिएणं तं खीणं अणुदियं च उवसंत' अर्थात् उदय में आये हुए मिध्यात्व का क्षय होना एवं अनुदीर्ण मिथ्यात्व का शान्त होना चायोपशमिक सम्यक्त्व का स्वरूप