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११. . . . श्री सेठिया जन अन्यमाला है। औपमिक सम्यक्त्व का भी यही स्वरूप है । जैसे किखीणम्मि उइण्णम्मि अणुदिज्जते य सेस मिच्छते।
अतोमुहुत्तमेत उवसमसम्म लहइ जीवो ॥ • भावार्थ-उदय प्राप्त मिथ्यात्व के क्षीण होने और शेष मिथ्यात्व के शान्त होने पर जीव अन्तर्जुहूर्त के लिये उपशम सम्यक्त्व पाता है।
इस प्रकार दोनों सम्यक्त्व का एकसा स्वरूप है फिर दोनों को अलग मानने का क्या कारण है ?
उत्तर-क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में उदय आये हुए मिथ्यात्व का क्षय होता है, अनुदीर्ण मिथ्यात्व का . विपाकानुभव की अपेक्षा उपशम होता है एवं प्रदेशानुभव की अपेक्षा उसका उदय रहता है। किन्तु उपशम सम्यक्त्व में तो अनुदीर्ण मिथ्यात्व का उपशम ही होता है । इस सम्यक्त्व में प्रदेशानुभव कतई नहीं होता । यही दोनों में अन्तर है। कहा भी हैवेए संतकम्म खओवसमिएसु णाणुभावं सो। उवसंत कसाओ पुण रेएइ ण संतकम्म ॥
भावार्थ-क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में जीव सत्कर्म का वेदन करता है। वह विपाक का अनुभव नहीं करता । उपशान्त कपाय वाला तो सत्कर्म को भी नहीं वेदता है । (भगवती सूत्र श० १ उ. ३ टीका)
(२१) प्रश्न-सामायिक का स्वरूप सर्व सावध का त्याग है और छेदोपस्थापनीय का स्वरूप भी यही है क्योंकि महाबत सापद्यविरति रूप होते हैं। फिर ये भिन्न क्यों कहे गये हैं ?
उत्तर-प्रथम एवं चरम तीर्थङ्कर के साधु क्रमशः ऋजु (सरल) एवं चक्रजड़ होते हैं। उनके आश्वासन के लिये चारित्र के ये दो भेद कहे गये हैं। यदि चारित्र के ये दो भेद न होते और केवल 'सामायिक चारित्र का ही विधान होता तो इन साधुओं को कोई • अाश्वासन न रहता. । सामायिक चारित्रे स्वीकार करने के बाद