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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, सातवां भाग २५ (३२) संधि दोप-संधि हो सकने पर भी संधि न करना संधि दोष है। अपवा दुष्ट संधि करना संधि दोप है । जैस विसर्ग का लोप करने के बाद पुनः संधि करना।
ये सूत्र के बत्तीस दोष हुए। गाथा में सूत्र के आठ गुण बतलाये हैं। प्रकरण संगत होने से उन्हें भी यहाँ दिया जाता है:
(१) निर्दोष-उपयुक्त तथा अन्य सभी दोपों से रहित हो ।
(२) सारवत्-जो बहुत पर्याय वाला हो । गो जैसे अनेक अर्थ वाले शब्दों का जिसमें प्रयोग हो ।
(३) हेतु युक्त-जो अन्धय व्यतिरेक रूप हेतु सहित हो अथवा जो हेतु यानी कारण सहित हो ।
(४) अलंकृत-जो उपमा उत्प्रेक्षादि अलंकारों से विभूषित हो। (५) उपनीत-जो उपसंहार सहित हो। (६) सोपचार-जिसमें ग्राम्योक्तियाँ न हो। (७) मित-जो उचित वर्णादि परिमाण वाला हो।
(क)मधुर-जो सुनने में मधुर हो एवं जिसका अर्थ भी मधुर हो। कई सर्वज्ञभापित सूत्रों के छः गुण बतलाते हैं । वे ये हैं:
(१) अल्पाक्षर-जिसमें बहुत अर्थ वाले परिमित अक्षर हों।
(२) असंदिग्ध-सैन्धव लायो' की तरह जो संशय पैदा करने चाला न हो । सैंधव शब्द के नमक, वस्त्र, घोड़ा आदि अनेक अर्थ हैं इसलिये यहाँ श्रोता को सन्देह हो जाता है।।
(३) सारवत्-जो नवनीत (मक्खन) की तरह साररूप हो । - (४) विश्वतोमुख-जो सब तरह से प्रकृत अर्थ का देने वाला हो अथवा अनन्त अर्थ वाला होने से जो विश्वतोमुख हो ।
(५) अस्तोम-च,वा, हि इत्यादि निरर्थक निपात जिसमें न हों।
(६)अनवद्य-जिसमें कामादि पाप व्यापार का उपदेश न हो। (अनुयोग द्वार सूत्र १५१ टीका) (विशपावश्यक भाष्य गाथा ६६६ टीका) (सनियुक्तिक भाप्य वृत्तिक वृहत्कल्प सूत्र पौटिका गाथा २७८-२८७ )