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श्री. सेठिया जैन प्रश्रमाला
- भावार्थ-द्विपद, चतुष्पद, क्षेत्र, घर, धन, धान्य-इन सभी को यहीं छोड़कर परवश हो यह आत्मा अपने कर्मों के साथ परलोक में जाता है और वहाँ अपने कर्मों के अनुसार अच्छाया बुरा भव प्राप्त करता है। (उचराध्ययन तेरहवां अध्ययन गाथा २३-२४)
३२-कामभोगों की असारता जे गुणे से आवटे, जे आवट्टे से गुणे ॥१॥ ___ भावार्थ-जो शब्दादि विषय हैं वही संसार है और जो संसार है वही शब्दादि विषय है। (श्राचाराग पहला अ० पांचवा उ० सूत्र ४१) सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं न विडंवियं । सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥२॥ ___ भावार्थ-सभी संगीत विलाप रूप है, सभीनृत्य या नाटक विडम्बना रूप हैं, सभी आभूषण भार रूप है एवं सभी शब्दादि काम दुःख देने वाले हैं। (उत्तराध्ययन तेरहवां अध्ययन गाथा १६) सुट्टु वि मग्गिज्जतोकथवि केलीइ नत्थि जह सारो। इंदिय विसएसु तहा, नत्थि सुहं सुटु वि गविढें ॥३॥
भावार्थ-जैसे कदली (केले) में खूब गवेपणा करने पर भी कहीं सार नहीं मिलता इसी प्रकार इन्द्रिय विषय में भी तत्त्वज्ञों ने खूब खोज करके भी कहीं सुख नहीं देखा है।
(भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक गाथा १४४ ) जह किपागफलाणं, परिणामो न संदरो। एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुंदरो॥४॥ भावार्थ-जैसे किंपाक फलों का परिणाम सुन्दर नहीं होता