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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवाँ भाग
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भावार्थ - प्राणियों के सभी सदनुष्ठान फल सहित होते हैं। फलभोग किये बिना उनसे छुटकारा नहीं होता किन्तु वे अपना फल अवश्य देते हैं ।
( उत्तराध्ययन तेरहवां अध्ययन गाथा १० ) तेणे जहा संधिमुहे गहीए, सकम्मुणा किचइ पावकारी | एवं पया पेच इहंच लोए, कडाण कम्माण न मुक्ख अत्थि ।।
भावार्थ - जैसे संधिमुख (खात) पर चोरी करते हुए पकड़ा गया पापी चोर अपने कर्मों से दुःख पाता है इसी प्रकार यहाँ और परलोक में जीव स्वकृत कर्मों से ही दुःख भोग रहे हैं। फल भोगे विना कृतकर्मों से मुक्ति नहीं हो सकती । (उत्तराध्ययन चौथा श्र० गाथा ३)
एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया । एगया आसुरं कार्य, अहाकम्मेहिं गच्छ ॥३॥
भावार्थ - यह आत्मा अपने कर्मों के अनुसार कभी देवलोक में, कभी नरक में और कभी असुरों में उत्पन्न होता है । (उत्तराध्ययन तीसरा अध्ययन गाथा ३ ) न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ,
न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । इक्को सगं पचणुहोइ दुक्खं,
कत्तारमेव अणुजाह कम्मं ॥ ४ ॥ भावार्थ- पापी जीव का दुःख न जाति वाले बँटा सकते हैं और न मित्र लोग ही । पुत्र एवं भाई बन्धु भी उसके दुःख के भागीदार नहीं होते। केवल पाप करने वाला अकेला ही दुःख भोगता है क्योंकि कर्म कर्त्ता ही के साथ नाते हैं ।
चिचा दुपयं च चउप्पयं च खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं । कम्मप्पीओ अवसो पयाह, परं भवं सुंदर पावगं वा ॥५॥