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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला संदेह रहित परिपूर्ण, स्पष्ट, वाचालता रहित और किसी को भी उद्विग्न न करने वाली चाणो बोलनी चाहिए ।
(दशवकालिक आठवा अध्ययन गाथा ४६) सवक्कसुद्धिं समुपेहिया मुणी,
गिरं च दुट्ट' परिवज्जए राया। मियं अदुट्ट अणुवीइ भासए,
- सयाण मज्झे लहइ पसंसणं ॥८॥ . भावार्थ-साधु को सदावचन शुद्धि का ख्याल रखना चाहिये और दूषित पाणी कमी न कहनी चाहिये। सोच विचार कर निर्दोष परिमित भाषा बोलने वाला साधु सत्पुरुषों में प्रशंसा पाता है। भासाइ दोसे अ गुणे अ जाणिया,
तीसे अ दुट्टे परिवज्जए सया। छसु संजए सामणिए सया जए,
वइज्ज वुद्ध हिअमाणुलोमियं ॥९॥ भावार्थ-भाषा के गुण तथा दोषों को जान कर दूषित भाषा का सदा के लिये त्याग करने वाला, पट्काय जीवों की रक्षा करने वाला और चारित्र पालन में सदा तत्पर बुद्धिमान् साधु एक मात्र हितकारी और मधुर-मीठी भाषा बोले । . . .
(दशवकालिक सातवा अध्ययन गाथा ५५,५६) ३१--कर्मों की सफलता सव्व सुचिएणं सफलं नराणं, कडाण कम्माण न मुक्ख अत्थि ॥१॥