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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
३८-पाय
कोहो य माणो य अणिग्गहीया,
माया य लोभो य पचड्ढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया,
सिंचंति मूलाई पुणभवस्स ॥१॥ भावार्थ-वश नहीं किये हुए क्रोध और मान तथा बढ़ते हुए माया और लोभ-ये चारों कुत्सित कपाय पुनर्जन्म रूपी संसारवृक्ष की जड़ों को हरा भरा रखते हैं अर्थात् संसार को बढ़ाते हैं।
कोहं माणं च माय च, लोभं च पाववढणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हियमप्पणो ||२||
भावार्थ-जो मनुष्य आत्मा का हित चाहता है उसे चाहिये कि वह पाप बढ़ाने वाले क्रोध, मान,माया और लोम-इन चार दोषों को सदा के लिये छोड़ दे।
कोहो पीई पणासेह, माणो विणय नासणो । माया मित्ताणि नारोइ, लोभो सम्वविणासणो ॥३॥
भावार्थ-क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी सद्गुणों का विनाश करता है। (दशवकालिक पाठवा अ० गाथा ४०,३७,३८)
अहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई । माया गइ पडिग्घाओ, लोहाओ दुहओ भयं ॥५॥ भावार्थ--क्रोध से आत्मा नीचे गिरता है, मान से अधम गति