________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातव भाग
२३५
भावार्थ- जो गुणों को धारण करता है वह साधु है और जो गुणों से रहित है वह साधु है । अतएव साधु योग्य गुणों को ग्रहण करो एवं दुर्गुणों का स्थाग करो। जो आत्मा द्वारा आत्मस्वरूप का जानने वाला तथा राग और द्वेप में समभाव रखने वाला है वही पूजनीय है । (दशवैकालिक नवां श्र० तीसरा उ० गाथा ११ )
राग दोसे य दो पावे, पाव कम्म पवत्तणे । जे भिक्खू रुभइ निबं, से न अच्छड़ मंडले ||८||
भावार्थ - राग और द्वेप ये दोनों पाप, पाप कार्यों में प्रवृत्ति कराने वाले हैं। जो साधु इन दोनों का निरोध करता है वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता । (उत्तराभ्ययन इकतीसवां श्र० गाथा ३)
को दुक्खं पाविज्जा, कस्स य सुक्खेहिं विम्हओ हुज्जा । को वा न लभिज्ज मुक्खं, रागद्दोसा जड़ न हुज्जा ||८||
माचार्य - यदि राग द्वेष न हों तो संसार में न कोई दुखी हो और न कोई सुख पाकर ही विस्मित हो बल्कि सभी मुक्त हो जायँ । ( मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा १६७ )
नाणस्स सव्वस्स पगासणाए,
अन्नाण मोहस्स य विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं,
एगतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ १० ॥
भावार्थ- सत्य ज्ञान का प्रकाश करने से, अज्ञान और मोह का त्याग करने से तथा राग और द्वेष का क्षय करने से आत्मा एकान्त सुखमय मोक्ष प्राप्त करता है। (उत्तराध्ययन श्र० ३२ गाथा २ )