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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग २३७ प्राप्त होती है, माया से सद्गति का नाश होता है और लोभ से इसलोक तथा परलोक में भय प्राप्त होता है। (उचराध्ययन अ० गाथा५४) जस्स वि य दुप्पणिहिया,होति कसाया तब चरंतस्स । सो बाल तवस्सी विव,गयण्हाण परिस्सम कुणइ ॥॥ ___ भावार्थ-जो तप का आचरण करता है किन्तु कपार्यों का निरोध नहीं करता वह बाल-तपस्वी है । गजस्नान की तरह उसका तप कमां की निर्जरा का नहीं बल्कि अधिक कर्म बन्धका कारण होता है। (दशवकालिक पाठवां अ० नियुक्ति गाथा ३०० ) जे कोहणे होइ जगहभासी,
विओसिड जे उ उदीरएज्जा। अंधे व से दंडपहं गहाय,
अविओसिए धासति पावकम्मी ॥६॥ भावार्थ-जो पुरुप क्रोधी है, सर्वत्र दोष ही दोप देखता है और शान्त हुए कलह को पुनः छेड़ता है वह पापारमा सदा अशान्त रहता है एवं छोटे मार्ग में जाते हुए अन्धे पुरुप की तरह पद पद पर दुखी होता है। (सूयगडांग तेरहवां अध्ययन गाथा ५) जे यावि चंडे मह इढिगारवे,
पिसणे नरे साहस हीणपेसणे। अदिधम्मे विणए अकोविए,
___ असंविभागी न हु तस्स मुक्खो ॥७॥ भावार्थ-जो साधु क्रोधी होता है, ऋद्धि, रस और साता गारच की इच्छा करता है, चुगली खाता है, विना विचारे कार्य करता है, गुरुजनों का आज्ञाकारी नहीं होता, धर्म के यथार्थ स्वरूप का