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श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, सातवा भाग
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• जसं कित्ति सिलोगं च, जा य वंदण पूयणा। सव्वलोयंसि जे कामा, तं विजं परिजाणिया ॥२॥
भावार्थ--यश, कीर्ति, श्लाघा, वन्दन और पूजन तथा समस्त लोक में जो कामभोग हैं वे भात्मा के लिये अहितकर हैं । अतएव विद्वान् मुनि को इनका त्याग करना चाहिये।
(सूयगडांग नवा अध्ययन गाथा २२) अभिवायण मन्भुट्ठाणं, सामी कुन्जा निमंतणं । जो ताई पडिसेवंति, नो तेसिं पीहए मुणी ॥३॥
भावार्थ-जो स्वतीर्थी या अन्यतीर्थी साधु राजा आदि द्वारा किये गये अभिवादन ( नमस्कार , अभ्युत्थान एवं निमंत्रण का सेवन करते हैं। उन्हें देखकर साधु उनके सौमाग्य की सराहना एवं कामना न करे। (उत्तगययन दूसरा श्र० गाथा ३८)
नोकित्ति वएण सद्द सिलोगट्टयाए तवमहिढेजा। नो कित्तिवपण सद्द सिलोगट्टयाए आयारमहिढेजा।
भावार्थ-प्राचार का पालन एवं तप का अनुष्ठान कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लाघा के लिये न होना चाहिये।
नोट-सभी दिशाओं में फैला हुआ यश कीर्ति है, एक दिशा में फैला हुआ यश वर्ण है। अर्द्ध दिशा में फैला हुआ यश शब्द है एव स्थानीय यश श्लाघा कहा जाता है।
(दशवकालिक नयां अभ्ययन चौथा उद्देशा) जेन वंदे न से कुप्पे, वंदिओ न समुक्कसे । एवमन्नेसमाणस्स, सामण्ण मणुचिट्ठइ ॥५॥ भावार्थ- साधु को चाहिये कि वन्दना न करने वाले पर वह