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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
. भावार्थ- चाहे भोजन कितना ही बढ़िया संस्कार चाला हो पर धमन कर देने पर व जैसे खाने योग्य नहीं रहता। इसी प्रकार असंयम कात्याग कर देने के बाद असंयमकारी अनेपणीय आहार भी साधु के लिये भोजन योग्य नहीं होता । (पिण्डनियुक्ति गाथा १६१) णिक्खम्ममाणाइ य वुद्धवयणे,
: णिचं चित्तसमाहिओ हवेज्जा। इत्थीण वसं न यावि गच्छे, - . नंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू ।। ।।
भावार्थ--भगवान् की आज्ञानुसार दीक्षालेकर जो सदा उनके वचनों में सावधान रहता है। स्त्रियों के वश नहीं होता तथा छोड़े हुए विषयों का पुनः सेवन नहीं करता वही सच्चा साधु है।
(दशवकालिक दसवां अध्ययन गथा १) चिचाण धणंच भारिणं, पव्वइओ हिसि अणगारियं। मानंतं पुणो वि आविए, समयं गोयमा मा पमायए।६।
भावार्थ--हे गौतम ! तुम धन और स्त्री का त्याग कर दीक्षित हुए हो। वमन किये हुए इनका पुनः पान न करना एवं समय मात्र भी प्रमाद न करना। (उत्तराध्ययन दसवां अ० गाथा २६)
२०-पूजा प्रशंसा का त्याग अञ्चणं रयणं चेव, नंदणं पूयणं तहा । इड्ढी सक्कार सम्माणं,मणसा वि न पत्थए ॥१॥ भावार्थ--अर्चा, पूजा, वन्दना, नमस्कार, ऋद्धि. सत्कार और सम्मान-इनकी मुमुक्षु मन से भी इच्छा न करे।
(उत्तराध्ययन ३५ वां अध्ययन गाथा १)