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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
कोप न करे और न वन्दना किये जाने से अभिमान ही करे। भ गान् की इस आज्ञा का आराधक मुनि पूर्ण साधुत्व का अधिकारी होता है। (टशवकालिक पांचवां अध्ययन दूसरा उद्देशा गाथा ३०) नेसि पि न तवो सुद्धो, निक्खन्ता जे महाकुला। जं नेवन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेजए ॥६॥
भावार्थ-महान् सम्पन्न कुल के ऋद्धि ऐश्वर्य का त्याग कर दीक्षालेने वाले पुरुष भी यदि पूजा प्रतिष्ठा के लिये तप का आचरण करते हैं तो उनका वह तप अशुद्ध है। साधु को इस प्रकार तप करना चाहिये कि दूसरों को उसका पता ही न लगे । उसे अपनी प्रशंसा भी कमी न करनी चाहिये। (सूयगडांग ०८गाथा २४) महयं पलिगोव जाणिया, जाविय वंदण पूयणा इह। सुहमे सल्ले दुरुद्धरे, विउमन्ता पयहिज संथवं ॥७॥
भावार्थ-लोक में जो वन्दना पूजा रूप सत्कार होता है वह साधु के लिये महान् अभिष्वङ्ग (प्रासक्ति ) रूप है । यह बड़ा ही सूक्ष्म शल्य है जिमकानिकालना अति कठिन है । अतएव विवेकशील साधु को गृहस्थों से परिचय ही न रखना चाहिये।
(सूयगडांग दूसरा अध्ययन दूसरा उद्देशा गाथा ११) पूयणट्ठा जसोकामी, माणसम्माणकामए । बहुं पसवइ पावं माया सल्लं च कुबइ ।।८।।
मात्राथे-पूजा एवं प्रशंमा को कामना तथा मान मन्मान की लालसा वाला साधु बहुत पाप करता है एवं माया शल्य का सेवन करता है। (दशवैक लिपांचवां अ० दूमग 3० गाथा २५)
इद्धिं च सक्कारण पूयणं च, । चंए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू ॥९॥ ।