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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग ६३ (१०) रत्नाधिक और शिष्य विचार भूमि (जंगल)गये हों वहाँ रताधिक से पूर्व शिष्य आचमन-शौच करे तो आशातना होती है।
(११) वाहर से उपाश्रय में लौटने पर शिष्प रत्नाधिक से पहले ईर्यापथ सम्बन्धी आलोचना करे तो आशातना होती है।
(१२) रात्रि में रत्नाधिक के "कौन जागता है ?" पूछने पर शिष्य जागते हुए भी उसका उत्तर न दे और उनके वचन सुने अनसुने कर दे तो आशातना होती है।
(१३) जिस व्यक्ति से रत्नाधिक को पहले बातचीत करनी चाहिये उससे शिष्य पहले बातचीत करले तो आशानता होती है।
(१४) अशनादि की आलोचना पहले दूसरे के आगे करके बाद में रताधिक के प्रागे करे तो आशातना होती है।
(१५) अशनादि पहले दूसरे छोटे साधुओं को दिखला कर बाद में रत्नाधिक को दिखलावे तो आशातना होती है।
(१६) अशनादि के लिये पहले दूसरे साधुओं को निमन्त्रित कर पीछे रताधिक को निमन्त्रित करे तो अाशातना होती है।
(१७) रत्नाधिक को बिना पूछे दूसरे साधु को उसकी इच्छानुसार प्रचुर आहार देने से आशातना होती है।
(१८) रताधिक के साथ आहार करते समय यदि शिष्य इच्छानुकूल वर्ण गन्धादि युक्त, सरस, मनोज, स्निग्ध या रूखा आहार जल्दी जल्दी प्रचुर परिमाण में खाता है तो आशातना होती है।
(१६) प्रयोजन विशेष से ग्लाधिक द्वारा बुलाये जाने पर यदि शिष्य उनके वचन सुने अनसुने कर देता है तो आशातना होती है।
(२०) रताधिक के प्रति या उनके समक्ष कठोर या मर्यादा से अधिक बोलने से आशातना होती है।
(२१) रत्नाधिक से बुलाये जाने पर शिष्य को उत्तर में मत्थएणं वंदामि' कहना चाहिये । ऐसा न कह कर 'क्या कहते हो