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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
एवं समुट्टिओ भिक्खू, एवमेव अणेगए । मिगचारियं चरित्ताणं, उड्ढे पक्कमइ दिसं ॥८॥
भावार्थ-संयम क्रिया में ममुद्यत भिक्षु,मृग की तरह, रोगादि होने पर चिकित्सा की परवाह नहीं करता। वह मृग की तरह ही, किमी निश्चित स्थान पर निवास भी नहीं करता। इस प्रकार मृग जैमी चर्या का पालन कर मोक्षमार्ग का आराधक वह मुनि ऊध्यदिशा की ओर गमन करता है अर्थात् निर्माण प्राप्त करता है। जहा लिए एग अणेगचारी, अणेगवासे धुवगोअरे । एवं मुणी गोयरियं पविहे नोहीलए नोवियखिसाजा। ___ भावार्थ-जैसे मृग अकेला रहता है और अपने पास पानी के लिये अनेक स्थानों में भ्रमण करता है। वह एक जगह टिक कर नहीं रहता और सदा गोचरी करके ही निर्वाह करता है । साधु भी मृग जैसी चर्या वाला होता है। उसे गोचरी में यदि अमनोज्ञ आहार भी मिले तो उसकी अवहेलना एवं दाता की निन्दा न करनी चाहिये।
(उत्तराध्ययन उन्नीसवा अध्ययन गाथा ७५ से ३) १८-सचा त्यागी
जे य कते पिये भोए, लद्धे विपिट्ठीकुवइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुचइ ॥१॥
भावार्थ-जो पुरुष मनोज्ञ एवं प्रिय भोगों को ठुकरा देता है, स्वाधीन भोग सामग्री का त्याग करता है वही त्यागी कहा जाता है।
वत्थं गंध मलंकारं, इथिओ सयणाणि य । अच्छंदाजे न भुजति, न से चाइत्ति चुच्चइ ॥२॥