________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
१८७
एगभूओ अरण्णे वा जहा ऊ चरई मिगो । एवं धम्मं चरिस्सामि, संजमेण तवेण य ॥ ३॥
भावार्थ - जैसे जंगल में मृग एकाकी विहार करता है इसी प्रकार संयम और तप का आचरण करता हुआ मैं भी एकाकी ( रागद्वेष रहित ) होकर विहार करूंगा ।
जया मिगस्स आयंको महारण्णम्मि जायइ । अच्छन्तं रुक्खमूलम्मि, को णं ताहे तिगिच्छ ॥४॥
भावार्थ - जब महावन में मृग के रोग उत्पन्न होता है तब वृक्ष के नीचे बैठे हुए उस मृग की उस समय कौन चिकित्सा करता है ?
कोवा से ओसहं देह, को वा से पुच्छर सुहं | को वा से भत्तं वपाणं वा, आहरितु पणामए ॥ ५ ॥
भावार्थ - वहाँ उसे कौन औषधि देता है? कौन उसके शरीर का हाल पूछता है? उसे भोजन पानी लाकर कौन खिलाता पिलाता है?
जया मे सुही होइ, तया गच्छइ गोयरं । भत्तपाणस्स अट्ठाए, वल्लराणि सराणि य ॥६॥
भावार्थ - जब मृग स्वतः स्वस्थ होता है। तब वह चरने के लिये जाता है और वन तथा जलाशयों में चारा पानी की खोज करता है।
खाइत्ता पाणियं पाउं, वल्लरेहिं सरेहिं य । मिगचारियं चरित्ताणं, गच्छइ मिगचारियं ||७||
भावार्थ - जंगल में घास चर कर तथा सरोवर में पानी पीकर वह मृग की स्वाभाविक चर्या का सेवन करता है एवं वापिस अपने निवास स्थान पर या जाता है।