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१८॥
श्री सैठिया जैन अन्यमाला प्राणी की हिंसा न हो। फूलों से भंवरों की तरह वे गृहस्थों के यहां से, उनके निज के लिये बनाये हुए आहार में से थोड़ा थोड़ा आहार लेते हैं। महुगारसमा वुद्धा, जे भगति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता, तेण वुचंति साहुणो ॥४॥
भावार्थ-तत्वज्ञ मुनि भ्रमर जैसी वृत्ति वाले होते हैं। वे कुलादि के प्रतिबन्ध से रहित होते हैं, अनेक घरों से थाड़ा थोड़ा आहार लेकर अपना निर्वाह करते हैं एवं इन्द्रियों का दमन करते हैं इसी लिये वे साधु कहे नाते हैं। (दशवकालिक पहला अ० गाथा २से ५ )
१७-मृगचर्या
त बितऽम्मापिअरो, छंदेणं पुत्त! पव्वया ! नवरं पुण सामरणे, दुक्खं निप्पडिकम्मया ॥१॥ ___ भावार्थ-अन्त में माता पिता ने मृगापुत्र से कहा-हे पुत्र ! यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो खुशी के साथ तुम प्रव्रज्या धारण कर सकते हो। किन्तु तुम्हें मालूम होना चाहिये कि साधु अवस्था में रोग होने पर उसका उपचार (इलाज) नहीं किया जाता, यह नियम बड़ा ही कठोर है।
सो बितऽम्मापियरो, एवमेयं जहाफुड। परिकम्मं को कुणई, अरण्णे मियपक्खिणं ॥२॥
भावार्थ- उत्तर में मृगापुत्र ने कहा-हे माता पिता ! आपका कहना यथार्थ है। पर यह भी विचारिये कि जंगल में मृग और पक्षियों का उपचार कौन करता है ?